सेहतमंद जीवन के सूत्र समेटे पंचकर्म
शरीर से विषाक्त और रोग पैदा करने वाले तत्वों को निकालने के लिए जिन पांच प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें पंचकर्म कहते हैं. शोधन चिकित्सा की विभिन्न विधियों और उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा.

आज के आधुनिक तकनीकी युग में आयुर्वेद एवं योग का प्रसार उनके प्राचीन भारतीय पद्धतियां होने के साथ-साथ पूरे विश्व में भी हो रहा है. स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग पूरी दुनिया में केमिकलयुक्त औषधियों के सेवन से बचने के लिए इन नैसर्गिक तथा वैज्ञानिक चिकित्सा के साधनों को अपनाने के लिए तत्पर हैं.
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने भी इस बात को माना है कि स्वस्थ जीवनशैली को अपनाने तथा उसका अनुसरण करने से हम अधिकतर घातक बीमारियों के प्रकोप से बच सकते हैं. स्वस्थ जीवन के साथ दीर्घायु होना तथा जीर्ण रोगों से मुक्ति पाने का एकमात्र सस्ता तथा टिकाऊ उपाय आयुर्वेद पद्धति ही है. आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत शोधन चिकित्सा (पंचकर्म) तथा शमन चिकित्सा (औषधियां) दो प्रकार से चिकित्सा की जाती है.
होली फैमिली हॉस्पिटल, दिल्ली के पुराने हॉस्पिटल में से एक है तथा यहां आयुर्वेद विभाग में नित्य ही सैकड़ों रोगी चिकित्सा परामर्श लेने और पंचकर्म कराने आते हैं. पंचकर्म क्या है? यह कैसे किया जाता है?
पंचकर्म किन-किन रोगों में किया जाता है? पंचकर्म का वैज्ञानिक आधार क्या है? क्या इसे करने में रोगी को पीड़ा होती है? सामान्य व्यक्तियों में यह प्रश्न अक्सर सुनने में आते हैं. हालांकि आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा विज्ञान है लेकिन पूर्ण रूप से प्रसार न होने के कारणों से रोगियों में जानकारी का अभाव है तथा पंचकर्म तो लोगों को पता ही नहीं है.
जागरूक व्यक्ति अपने रोगों की चिकित्सा को खोजते हुए आते हैं तथा उनका हम यहां संतुष्टि के साथ निराकरण करते हैं. सर्वप्रथम रोगी चिकित्सक से मिलकर अपने रोग के विषय में परामर्श लेते हैं, तत्पश्चात आयुर्वेद चिकित्सक उन्हें बताते हैं कि उनका रोग निवारण मात्र औषधियों से ही हो जाएगा अथवा पंचकर्म की भी आवश्यकता होगी.
इस प्रकार से रोगी का चिकित्सा क्रम निर्धारण किया जाता है. कुछ लोग स्वास्थ्यवर्धन के लिए भी पंचकर्म करवाना चाहते हैं. उन्हें भी उचित परामर्श के अनुसार जो कर्म उनके लिए कर सकते हैं, वह किया जाता है. पंचकर्म को निम्न भागों में बांटा जा सकता हैः
वमन कर्म, विरेचन कर्म, अनुवासन (स्नेह) बस्ति, आस्थापन (निरुह) बस्ति, नस्य कर्म पाचन (आमपाचन तथा दीपन कर्म-शुष्ठी क्वाथ आदि द्वारा किया जा सकता है),स्नेहन (धृत, तैल आदि का सेवन करवाना तथा अभ्यंग करना),स्वेदन (अभ्यंग, वाष्प आदि कई प्रकार से किया जाता है)
पूर्व कर्म करने के पश्चात प्रधान कर्म अर्थात् पंचकर्म किया जाता है और अंत में पश्चात कर्म अथवा संसर्जन कर्म किया जाता है जिसमें विशेष प्रकार के आहार का सेवन तथा दिनचर्या का पालन किया जाता है.
स्नेहन
स्नेहन का शाब्दिक अर्थ चिकनापन है. स्नेहन कर्म में चिकने पदार्थ जैसे धृत, तेल इत्यादि शरीर पर मालिश किए जाते हैं या उचित मात्रा में पिलाए जाते हैं. इस प्रकार स्नेहन कर्म दो प्रकार के होते हैं: बाह्य स्नेहन अभ्यंतर स्नेहन
इसमें निम्न प्रकार के धृत तथा तेलों का उपयोग होता है. औषधीय धृत अथवा तैल का चयन वैद्य द्वारा रोग तथा रोगी की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए किया जाता हैः पंचतिक्तधृत फल कल्याण धृत मंजिष्ठादि तेल इत्यादि
सामन्यतः स्नेहन 3, 5 अथवा 7 दिन तक रोगी के शरीर की आवश्यकतानुसार प्रातः सूर्य उदय के समय पिलाया जाता है. स्नेहपान के दिनों में रोगी को आराम करना चाहिए, दिन में सोना नहीं चाहिए तथा जब भूख लगे, तब चावल अथवा दाल का सूप पीना चाहिए. स्नेहन कर्म वायु दोष का शमन करके शरीर को चिकना करता है. पाचन को सुधारता है
स्वेदन
ऐसे रोगी जिनका स्नेहन कर्म हो चुका है उन्हें कृत्रिम रूप से पसीना लाने की क्रिया को स्वेदन कर्म कहा जाता है.
एकांग स्वेद सर्वांग स्वेद
स्वेदन कर्म शरीर के स्तंभ या जकड़ाहट के खात्मे के साथ गौरव अथवा भारीपन तथा शीतता को समाप्त करता है.
स्वेदन कर्मः इस स्वेदन प्रक्रिया में रोगी को सबसे पहले तेल अथवा धृत से अभ्यंग किया जाता है, जिसका चयन उसकी व्याधि के अनुसार वैद्य करते हैं. जैसे सामान्यतः वायु रोगों में जहां रोगी को शरीर में जकड़न तथा पीड़ा है वहां नारायण तेल अथवा धन्वंतरम तैल से अभ्यंग किया जा सकता है. इसके पश्चात वाष्प स्वेदन यंत्र में औषधि द्रव्यों की वाष्प बनाकर पाइप या ट्यूब द्वारा उसी अंग का स्वेदन किया जाता है. इसमें वाष्प बनाने के लिए औषधि द्रव्य का निर्धारण भी रोग के अनुसार किया जाता है. जैसे-वायु रोग में दशमूल क्वाथ, निर्गुंडी अथवा एरंड पत्र क्वाथ इत्यादि. इसी प्रकार सर्वांग स्वेदन किया जाता है. स्वेदन करने से प्रकुपित दोष कोष्ठ में आ जाते हैं तथा इन्हें प्रधान कर्म द्वारा शरीर से निष्कासित कर दिया जाता है.
वमन कर्म
दूषित दोषों को मुख मार्ग द्वारा वमन (उल्टी) कराकर निकालना वमन कर्म है. वमन कर्म विशेषतः आमाशय स्थित प्रकुपित कफ दोष को निकालता है. अतः कफज आधिक्य वाले रोगों में वमन कर्म करते हैं.
वमन द्रव्य वचा चूर्ण- 2 ग्राम, मदनफल चूर्ण- 4 ग्राम, काला नमक- 5 ग्राम, मधु - 15 मि.लि.
अन्य द्रव्य दूध-1.5 लीटर, मधुयष्टि क्वाथ- 1.5 लीटर, लवणोदक- 1.5 लीटर. नारायण तेल, क्षीर बला तैल आदि उदर, वक्ष तथा पीठ पर अभ्यंग के लिए.
प्रक्रियाः वमन कर्म के पहले दिन रोगी को कफ दोष को उभारने वाले द्रव्य जैसे माष, पायस आदि खिलाए जाते हैं. अगले दिन प्रातः 7-8 बजे रोगी को यवागू (चावल का पानी) धृत के साथ पिलाकर स्नेहन तथा स्वेदन किया जाता है. इसके बाद रोगी को कुर्सी पर बैठा दिया जाता है तथा मधुयष्टि क्वाथ पेट भर पिलाकर मदनफल चूर्ण का मिश्रण मधु में मिलाकर चटाते हैं. 10-15 मिनट के बाद रोगी को वमन शुरू हो जाता है. वमन के बीच-बीच में रोगी को छाती तथा पीठ पर उपर की ओर मालिश की जाती है. वमन कर्म को ठीक से करवाने के लिए दूध तथा लवणोदक पिलाते रहते हैं. निम्न, मध्यम तथा प्रवर वमन में 4, 6 तथा 8 वेग क्रमशः हो जाते हैं. वमन कर्म के पश्चात हरिद्रा आदि द्रव्यों द्वारा रोगी को धूम्रपान करवाया जाता है.
विरेचन कर्म
विरेचन क्रिया में दूषित दोषों को नियंत्रित स्वरूप में मल मार्ग से बाहर निकाला जाता है. यह विशेषतः प्रकुपित पित्त दोषजन्य व्याधियों में किया जाता है.
विरेचन कर्म में रोगी को सर्वप्रथम स्नेहन तथा स्वेदन कर्म किया जाता है. इसमें बल तथा सत्व के अनुसार रोगी को 3-7 दिन तक क्रमशः बढ़ती मात्रा में स्नेहपान प्रातः करवाया जाता है तथा उसके बाद 3 दिन तक स्वेदन किया जाता है. दसवें दिन रोगी को प्रातः खाली पेट विरेचन द्रव्य दिया जाता है. इसमें इच्छाभेदी रस, अभयादि मोदक आदि औषधियों का प्रयोग किया जाता है. प्रायः औषधि सेवन के 3 घंटे में रोगी को पतले दस्त शुरू हो जाते हैं. प्रत्येक मल विसर्जन के अंतराल में रोगी को सादा पानी या नींबू पानी पिलाते रहना चाहिए. पूर्ण विरेचन होने के बाद रोगी को विश्राम करना चाहिए. सम्यक विरेचन के लक्षण वैद्य को देखने चाहिए.
अल्प विरेचन—10 वेग मध्यम विरेचन—10-20 वेग
प्रवर विरेचन—20-30 वेग
विरेचन कर्म त्वचा की व्याधियां जैसे एग्जिमा, सोरायसिस अथवा एलर्जी में किया जाता है. इसके अतिरिक्त पक्षाघात, ग्रन्थिरोग, मधुमेह आदि में भी विरेचन कर्म किया जाता है.
बस्ति कर्म
बस्ति क्रिया में बस्ति यंत्र द्वारा औषधियों का क्वाथ अथवा स्नेह द्रव्य गुदामार्ग से निर्धारित मात्रा में दिया जाता है. यह विधि दो प्रकार की होती हैः अनुवासन अथवा स्नेह बस्ति (धृत/तेल आदि द्वारा दी जाने वाली) आस्थापन अथवा निरुह बस्ति (औषधियों के काढ़े से दी जाने वाली)
इसके अतिरिक्त मूत्र मार्ग अथवा योनि मार्ग से दी जाने वाली बस्ति को उत्तर बस्ति कहा जाता है. बस्ति क्रिया पंचकर्म क्रियाओं में सबसे अधिक उपयोगी कर्म है तथा वायु दोष की व्याधियों में किया जाता है.
निरूह बस्ति/ क्वाथ अथवा आस्थापन बस्ति - निरुह बस्ति प्रातरू खाली पेट दी जाती है. द्रव्य—औषधियुक्त धृत/ तेल 240 मि.ली. मधु (शहद) 180 मि.ली. औषधीय क्वाथ (काढ़ा) 480 मि.ली. शताहवा कल्क 30 ग्राम सैंधव लवण 15 ग्राम
इसमें सर्वप्रथम सैंधव तथा मधु को एक बर्तन में अच्छे से मिलाया जाता है. इसके बाद थोड़ा-थोड़ा तेल मिलाया जाता है फिर शताहवा कल्क मिलाया जाता है तथा फिर औषधीय काढ़ा मिलाकर एकसार मिश्रण तैयार कर लिया जाता है. अब इस मिश्रण को थोड़ा गुनगुना (शरीर के तापमान से थोड़ा अधिक गर्म) रखते हुए बस्ति यंत्र में डालकर गुदामार्ग पर बाहर की तरफ थोड़ा तैल लगाकर धीरे से बस्ति नेत्र को अंदर डालते हैं तथा बस्ति यंत्र द्वारा एक समान दबाव बनाकर बस्ति द्रव्यों को गुदा में डाल दिया जाता है. फिर धीरे से बस्ति नेत्र को निकालकर रोगी को सीधा लिटा दिया जाता है, जब तक कि रोगी को मल विसर्जन की इच्छा न हो.
पूर्ण बस्ति द्रव्य लेने के लगभग 10 मिनट के बाद रोगी को मल विसर्जन हो जाता है. अधिकाधिक बस्ति द्रव्य के अंदर रहने का समय 48 मिनट होता है. इस प्रकार एक-एक दिन निरुह व स्नेह बस्ति करवाई जाती है. बस्तियों की संख्या तथा क्रम का निर्धारण रोगी के रोग की अवस्था को देखते हुए किया जाता है. इस प्रकार से 3 प्रकार के बस्ति क्रम कहे गए हैं: कर्म बस्ति - 30 बस्तियां (12 निरुह तथा 18 अनुवासन) काल बस्ति - 16 बस्तियां (6 निरुह तथा 10 अनुवासन) योग बस्ति - 8 बस्तियां (3 निरुह तथा 5 अनुवासन)
बस्ति कर्म के योग्य रोगीः पक्षाघात, सर्वांगघात, सायटिका, कंपवात (पार्किसोनिज्म), वातरक्त (गाउट), आमवात (र्यूमैटॉयड आर्थराइटिस), कटिशूल (लंबर स्पांडिलाइटिस/ स्लिप डिस्क), संधिवात (ऑस्टीयो-आर्थराइटिस), अंगमर्द (मायाल्जिया), पाचन संबंधी रोग, जीर्ण ज्वर, अनार्तव (सेकंडरी एमिनोरिया)
स्नेह बस्ति या अनुवासन बस्तिः औषधीय तैल को गुदामार्ग द्वारा एनीमा दिए जाने की क्रिया को स्नेह बस्ति कहते हैं. प्रकुपित दोषों तथा व्याधि की तीव्रता को देखते हुए स्नेह की मात्रा का निर्धारण किया जाता है. प्रायः स्नेह बस्ति दोपहर के भोजन के बाद दी जाती है. इसमें निरुह बस्ति के समान स्नेह द्रव्य को बस्ति यंत्र में भरकर बस्ति नेत्र को गुदामार्ग में प्रवेश करके स्नेह को गुदा में प्रवेश कर दिया जाता है. रोगी को प्रयास करना चाहिए कि स्नेह 3 घंटे तक अंदर रहे तथा उसके पश्चात ही मल विसर्जन हो. अगर स्नेह एक दिन तक भी अंदर रह जाता है तो भी अच्छा है.
स्नेह बस्ति के योग्य रोगीः कटिशूल (लंबर-स्पांडिलाइटिस अथवा स्लिप-डिस्क), गृध्रसी (सायटिका), जीर्ण ज्वर तथा अन्य वात व्याधियों में स्नेह बस्ति दी जाती है.
मात्रा बस्तिः कम मात्रा में तथा प्रति दिन दी जा सकने वाली बस्ति मात्रा बस्ति कहलाती है तथा यह हानिरहित होती है. यह किसी भी आयु तथा लिंग के रोगी में दी जा सकती है तथा यह स्नेह बस्ति के जैसी होती है और सामान्यतः 60 मि.लि. की मात्रा में दी जाती है. मात्रा बस्ति वायु रोग वाले रोगी को अर्थात मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र जन्य व्याधियों में दी जाती है.
नस्य कर्म
औषधियों को नासा मार्ग से प्रविष्ट करवाने को नस्यकर्म कहा जाता है. आयुर्वेद में नासा को शिर का द्वार कहा गया है तथा इस कर्म से शिर तथा गले में एकत्रित तथा प्रकुपित दोषों का निष्कासन किया जाता है.
नस्य में प्रयोग किए जाने वाले द्रव्यः अणु तेल बिन्दु तेल
नस्य के प्रकारः प्रधमन नस्य—औषधियों चूर्णों द्वारा अवपीढ़ नस्य—औषधियों के रस द्वारा धूम नस्यःऔषधीय धूम द्वारा
नस्य कर्म में रोगी को आराम से लिटाकर धीरे-धीरे सिर पर मालिश करते हैं. माथे पर, चेहरे तथा गर्दन पर भी मालिश की जाती है. इसके पश्चात हल्का स्वेदन किया जाता है. इसके बाद गुनगुना तेल मात्रानुसार प्रत्येक नासा द्वार में डाला जाता है. जब तैल रोगी के गले में आ जाता है तब उसे मुखद्वार से थूक दिया जाता है. नस्य कर्म के पश्चात रोगी को मुख द्वारा औषधीय धूम्रपान करवाया जाता है. नस्य कर्म 7-14 दिन तक करवाया जाता है.
नस्य कर्म के योग्य रोगीः शिरःशूल (सिरदर्द), नाक, कान तथा गले के रोगों में, अर्दित (फेशियल पैरालिसिस), अवबाहुक (सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस), तिमिर (मोतियाबिंद) तथा व्यंग (हाइपर पिग्मेंटेशन) आदि रोगों में नस कर्म करना चाहिए.
अभ्यंग
स्नेह द्रव्यों को शरीर पर हल्के दबाव से मालिश करने को अभ्यंग कहा जाता है. मालिश करना आयुर्वेद में सुखप्रद कहा गया है. इससे शरीर में बल वृद्धि होती है तथा वायु दोष का नाश होता है. अभ्यंग में उपयोगी द्रव्यः नारायण तेल क्षीरबला तेल धन्वंतरम तेल कर्पूरादि तेल आदि
अभ्यंग्य के योग्य रोगीः मस्तिष्क तथा तंत्रिका तंत्र जन्य रोग जैसे पक्षाघात, सर्वांगघात, पंगु, पोलियो, गृध्रसी (सायटिका), आमवात (रयूमैटॉयड आर्थराइटिस), कटिशूल (लंबर स्पांडिलाइटिस/स्लिप-डिस्क), वृद्धावस्था, शिरःशूल, अंगमर्द (मायाल्जिया), शारीरिक सुदृढ़ता के लिए अभ्यंग करना चाहिए.
कायसेक (पिझिचिल)
कायसेक परिसेक स्वेद का संशोधित कर्म है. इसमें गर्म तेल का पूरे शरीर पर परिसेक करके स्वेदन किया जाता है. कायसेक में स्नेहन तथा स्वेदन दोनों क्रियाओं का लाभ रोगी को एक ही क्रिया में मिल जाता है. इस क्रिया में सर्वप्रथम रोगी को द्रोणी में पांव सामने फैलाकर बैठाया जाता है. अब रुई का फाहा औषधीय तेल में भिगोकर रोगी के सिर पर रखा जाता है तथा कानों में भी तेल डाला जाता है. इसके पश्चात रोगी के दोनों तरफ दो परिचारक शरीर पर मालिश करते हैं तथा फिर सुखोष्ण औषधीय तैलों में सूती कपड़े को भिगोकर शरीर पर धारा करते हैं तथा हल्के दबाव से दूसरे हाथ से मालिश करते हैं. इसके पश्चात गंधर्वहस्त्यादि क्वाथ—60 मि.ली. रोगी को पिलाते हैं.
कायसेक के योग्य रोगीः पक्षाघात, सर्वांगघात, तंत्रिका तंत्र तथा मस्तिष्क जन्य व्याधियां, जीर्ण व्याधियां, मांसपेशियों तथा अस्थि-संधिगत रोग, आमवात (रयूमेटॉयड आर्थराइटिस), संधिवात (ऑस्टियो-आर्थराइटिस), संधिच्युति (डिसलोकेशन) आदि.
षष्टिक शालि पिंड स्वेद (नवराकिझी)
षष्टिक शालि पिंड स्वेद एक स्वेदन की विशेष क्रिया है जिसमें विशेष प्रकार के चावल को दूध में पकाकर उनके पिंड बनाकर मालिश की जाती है. 300-500 ग्राम षष्टिक शालि (60 दिन में उगे हुए विशेष चावल) को 1.5 लिटर दूध तथा बलामूल अथवा दशमूल के काढ़े में पकाया जाता है. पकने के बाद सूती कपड़े के चार चोकोर टुकड़े काटकर उनमें भरकर पोटली बना ली जाती है. अब रोगी को औषधीय गुनगुने तेल से मालिश करते हैं तथा आंवले का कल्क (चटनी) सिर पर लगा देते हैं. अब दो परिचारक दो-दो पोटलियां लेकर शरीर के दोनों तरफ हल्के दबाव से लगाते जाते हैं.
षष्टिक शालि के योग्य के रोगीः मस्तिष्क तथा तंत्रिका तंत्र जन्य व्याधियां जैसे पक्षाघात, सर्वांगघात, मांसपेशियों का क्षय, संधिवात, शारीरिक क्षय जन्य व्याधियां तथा शरीर को बलशाली तथा पुष्ट करने के लिए.
पत्र-पिंड स्वेदन
पत्र-पिंड स्वेदन भी एक विशेष प्रकार की स्वेदन क्रिया है जिसका सामान्यतः ताजे औषधीय पौधों के पत्तों को काटकर उनमें कुछ औषधीय तेल तथा चूर्ण मिलाकर कपड़े में पिंडस्वरूप बनाकर उपयोग किया जाता है. इस पिंड में व्याधि अनुसार सैंधव लवण तथा एरंड पत्र, निर्गुंडी पत्र, निम्ब पत्र, करंज पत्र, अर्कपत्र, आदि का प्रयोग किया जाता है. पत्तों को काटकर मिलाने के लिए गंधर्वहस्त्यादि तेल, नारायण तेल, आदि औषधीय तैलों का प्रयोग किया जाता है.
इस क्रिया में रोगी को लिटाकर औषधीय तैलों का अभ्यंग करते हैं और उसके पश्चात सुखोष्ण तैल में पत्र पिंड को गर्म करके शरीर पर दोनों तरफ से दो परिचारक एक समान हाथों को चलाते हुए अभ्यंग करते हैं.
पत्र-पिंड स्वेदन के योग्य रोगीः पक्षाघात, ग्रधृणी (सायटिका), आमवात (रयूमैटॉयड आर्थराइटिस), संधिवात (ऑस्टियो-आर्थराइटिस), कटिशूल (लम्बर-स्पांडिलाइटिस अथवा स्लिप-डिस्क), अवबाहुक (सर्वाइकल-स्पांडिलाइटिस). इससे पीड़ा तथा सूजन में विशेष लाभ होता है.
शिरोधारा
शिरोधारा सिर पर या माथे पर सम्यक रूप से लगातार औषधीय तैल, दूध, तर्फ अथवा औषधीय काढों को डालने को कहा जाता है.
शिरोधारा के योग्य रोगीः मस्तिष्क तथा तंत्रिका तंत्र जन्य व्याधियां जैसे पक्षाघात, अंगधात, अर्दित (फेशियल पैरालिसिस), शिरशूल, अनिद्रा, मनोद्वेग तथा अन्य मानसिक व्याधियां आदि.
शिरोबस्ति
शिरोबस्ति क्रिया भी सिर पर की जाने वाली क्रिया है. इसमें सिर पर टोपीनुमा यंत्र लगाकर उसमें सुखोष्ण औषधीय तेल भर दिया जाता है. शिरोबस्ति क्रिया तंत्रिका तंत्र जन्य व्याधियां, अनिद्रा, अक्षिरोग, जीर्ण शिरोरोगों के तथा असमय बालों का गिरना तथा पकने की अवस्था में की जाती है.
कटिबस्ति
कटिबस्ति कटिप्रदेश (लंबो-सेक्ल) में की जाने वाली विशेष क्रिया है. इसमें उड़द की दाल के आटे से एक विशेष गोल कटिबस्ति यंत्र रोगी के कमर के आकार के अनुसार बनाकर कटिप्रदेश पर रखकर उसमें सुखोष्ण औषधीय तेल भरा जाता है तथा तापमान को नियंत्रित रखने के लिए थोड़ा-थोड़ा तेल ठंडा होने पर निकालकर फिर से गर्म तेल डाला जाता है. कटिबस्ति विशेषतः कटिशूल (लंबर स्पांडिलाइटिस अथवा स्लिप डिस्क) तथा ग्रधृसी (सायटिका) आदि रोगों में की जाती है.
उरोबस्ति भी कटिबस्ति के समान क्रिया है तथा नाम के अनुरूप यह उर. प्रदेश या छाती पर की जाती है. इससे उरःशूल तथा पुरानी चोट में लाभ मिलता है.
अक्षितर्पण/नेत्रतर्पण
इस क्रिया में आंख के आसपास उड़द की दाल के आटे की पाली बनाकर उसे लगाया जाता है तथा उसमें सुखोष्ण औषधीय धृत अथवा तेल भरकर 15-20 मिनट तक रखते हैं. इस क्रिया में त्रिफलादि धृत, जीवंत्यादि धृत, पटोलादि धृत का उपयोग किया जाता है. इस क्रिया में रोगी को बीच-बीच में आंख को खोलने तथा बंद करने को कहा जाता है जो कि रोग के अनुसार होता है. अक्षितर्पण से नेत्र नाड़ी जन्य व्याधियों में लाभ होता है तथा अक्षितशुष्कता (ड्राई आइ) में भी लाभ होता है.
पश्चात कर्म
पंचकर्म के पश्चात जो आहार-विहार तथा दिनचर्या का सेवन रोगी से करवाया जाता है उसे पश्चात कर्म कहते हैं पश्चात कर्म का ठीक से पालन करने से रोग को पंचकर्म का संपूर्ण लाभ मिलता है तथा उनकी धातुओं की पुष्टि होती है.
पेया, यवागू आदि आहार का सेवन अर्थात सबसे पहले द्रव्य उसके बाद अर्धतरल तथा फिर ठोस और सामान्य आहार का सेवन क्रमबद्ध करवाया जाता है. ब्रह्मचर्य का पालन भी किया जाता है. तथा अंत में रसायन (बल तथा आयुष्य वर्धक) औषधियों का सेवन करवाया जाता है जैसे—च्यवनप्राश आमलकी रसायन ब्रह्मड् रसायन अगस्त्य हरीतकी रसायन.
इसके अतिरिक्त एकल द्रव्य रसायन औषधियों का प्रयोग भी कर सकते हैं, जैसे शिलाजीत अश्वगंधा शतावरी लशुन कल्प पिप्पली वर्धमान कल्प आदि
पंचकर्म क्रियाओं को करते हुए रोगी व्यक्ति के रोगों को दूर किया जाता है तथा स्वस्थ व्यक्तियों का स्वास्थ्यवर्धन किया जाता है.
डॉ. ऋतु सेठी, एमडी (आयुर्वेद) हैं और दिल्ली के होली फैमिली हॉस्पिटल में वरिष्ठ चिकित्सक हैं
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