हरित क्रांति में उपजा अखुआ

आमिर खान के सत्यमेव जयते में पेस्टीसाइड्स उत्पादकों को खलनायक दिखाया गया था. मेरी पोती सवाल करने लगी. मैंने गलत छवि सुधारने का फैसला किया और अमिताभ बच्चन को ब्रान्ड एंबेसडर बनाया.

आर.जी. अग्रवाल
आर.जी. अग्रवाल

आर.जी. अग्रवाल ने वक्त और मौका कभी व्यर्थ नहीं गंवाया. उनका दिन दूना बढ़ता कारोबार इसी की गवाही देता है. 50 साल का तजुर्बा रखने वाले अग्रवाल के पुरखे 150 साल पहले राजस्थान के शेखावाटी से निकलकर दिल्ली और मुंबई में बस गए. आजादी से पहले उनका कुनबा ब्रिटेन के मैनचेस्टर और लंकाशायर से कपड़ा आयात कर देश में बेचता था. पर ट्रेडिंग का यह पुश्तैनी काम उन्हें कभी रास नहीं आया. वे फैक्टरी लगाना चाहते थे. 68 साल के अग्रवाल ने 1968 में श्रीराम कॉलेज से बी. कॉम करने के बाद तय किया कि पुश्तैनी धंधा नहीं करूंगा.

उन दिनों हरित क्रांति चर्चा में थी और सबसे नई चीज थी. लोग अमेरिका से आए गेहूं के लिए लाइन में लगते, फिर भी न मिलने पर ब्लैक में खरीदते. पैदावार बढ़ाने की बातें चल रही थीं. परिवार को तजुर्बा सिर्फ कपड़े के कारोबार का था. अग्रवाल के पिता ने सुझाया कि जिस भी लाइन में जाना हो, उसमें ट्रेडिंग से एंट्री करें. उन्होंने 25,000 रु. की पूंजी से पहले खाद और फिर पेस्टीसाइड्स की ट्रेडिंग शुरू कर दी. तब भारतीय खाद्य निगम और भारतीय उर्वरक निगम ही खाद आयात करते थे. इसी बीच गेहूं की ज्यादा पैदावार वाली किस्म भारत आई. इस हरित क्रांति का सबसे ज्यादा असर पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान के कुछ इलाकों और हरियाणा में था.

फैक्टरी लगाने की इच्छा रखने वाले अग्रवाल के सामने अड़चन यह थी कि तब सरकार ने पेस्टीसाइड्स फैक्टरी के लिए लाइसेंस देने बंद कर दिए थे. सो 1980 में उन्होंने गुडग़ांव में बंदी के कगार पर खड़ी गुजराती मालिकान वाली कंपनी नॉर्दर्न मिनरल्स प्राइवेट लिमिटेड खरीदी जो उस वक्त इंपीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज (आइसीआइ) के लिए देश का पहला पेस्टीसाइड गैमेक्सीन बनाती थी.

यहां से कहानी शुरू हुई. अग्रवाल ने इसमें रिश्तेदारों को पार्टनर बनाया, लोगों से उधार लिया. उसकी शेयर कैपिटल तीन लाख रु. और उसका नुक्सान पौने तीन लाख रुपए था. बैंकों ने बैलेंस शीट देखते ही कर्ज देने से मना कर दिया. इस पर बाजार से पैसा उठाया. फैक्टरी को दक्ष कामगार मिल गए और काम चल निकला. गैमेक्सीन बनने लगी. प्रोडक्ट वजनी था पर फैक्टरी के गुडग़ांव में रेलवे स्टेशन के करीब होने से ढुलाई बच गई.

उस वक्त पेस्टीसाइड्स का लाइसेंस गिनी-चुनी मल्टीनेशनल कंपनियों के पास था. कच्चा माल भी उन्हीं के पास होता. मांगने पर देते भी तो कहने भर को. आयात के लाइसेंस भी उन्हीं के पास. अग्रवाल ने कोशिश करके 1983-84 में एक करोड़ रु. का आयात लाइसेंस लिया. इससे कच्चे माल की दिक्कत दूर हुई और सप्लाई बढ़ी. 12 साल का ट्रेडिंग का उनका तजुर्बा फैक्टरी की मार्केटिंग में काम आया.

1985 में उन्होंने सोहना में पेस्टीसाइड के कच्चे माल की फैक्टरी लगाई जहां साइपरमैथीन और फेनवरलेट बनने लगे. ये दरअसल फार्मा उद्योग की तरह नियंत्रित हैं. यहां हर प्रोडक्ट का अलग-अलग लाइसेंस और रजिस्ट्रेशन होता है, जिसमें कृषि मंत्रालय और राज्य सरकार की मंजूरी जरूरी होती है. 1985 में कंपनी का पब्लिक इश्यू आया. वह मुंबई, दिल्ली और लुधियाना में लिस्ट हुई. उसकी हैसियत बढ़ी और उसने निर्यात भी शुरू कर दिया.

बाजार में धाक जमी तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों से चुनौती मिलने लगी. 1992 में ड्यूपोंट से करार के बाद कंपनी की कहानी बदली. उसका नया उत्पाद ड्यूनेट बाजार में आया, जो इल्ली मारने में खासा कारगर साबित हुआ. यह थोड़ा विषैला था, लिहाजा इसके साथ, आयातित कपड़े से तैयार मास्क भी दिया जाता था. देश में पहली बार इसका प्रयोग हुआ. यह कंपनी का ब्रान्ड बन गया. बहुत-सी जगहों पर पुलिस की निगरानी में सैकड़ों लोग लाइन में लगकर इसे खरीदते. किसान तीन-तीन दिन मंडियों में इसका इंतजार करते. चार साल में 10 लाख लीटर केमिकल बिक गया.

लेकिन 1996 में ड्यूपोंट ने खुद भारत आने का फैसला किया. पर तब तक दुनिया भर में कंपनी की पहचान बन चुकी थी. जापानी कंपनियां भी भारत आना चाहती थीं. 1997 से धानुका के पास जापानी कंपनियों के प्रोडक्ट आने लगे. अभी वे छह जापानी कंपनियों के नए उत्पाद बेच रहे हैं. 2001 में उन्होंने कुछ अमेरिकी कंपनियों से साझा किया. ड्यूपोंट, केमट्यूरा (अब प्लेटफॉर्म), एफएमसी, डाओ एग्रीसाइंसेज, निसान केमिकल, होको, सूमिटोमो, सिनजेंटा और मित्सुई केमिकल्स से तकनीकी सहयोग का समझौता हुआ. कंपनी आज भी ड्यूपोंट के उत्पाद बेच रही है. कवर, टर्गा सुपर, सैप्रा आदि उसके अपने प्रोडक्ट अच्छे चल रहे हैं.

पर धानुका को 7-8 मल्टीनेशनल और दो दर्जन से ज्यादा देसी कंपनियों से चुनौती मिल रही है. भारत में एक प्रोडक्ट पंजीकृत कराने में 10 करोड़ रु. और पांच से सात साल लगते हैं. रिसर्च से शुरू करें तो एक नया पेस्टीसाइड विकसित करने में दस साल का वक्त और 2,500 करोड़ रु. तक लग जाते हैं. नए फॉर्मूलेशन की रिसर्च धानुका में भी होती है. उसकी लैब एनएएलबी से मान्यता प्राप्त है जिसे पूरी दुनिया में स्वीकार किया जाता है.

गुडग़ांव में फैक्टरी के मुख्यालय में एक रॉयल एनफील्ड बुलेट अक्सर आगंतुकों का ध्यान खींचती है. यह वही मोटरसाइकिल है, जो अग्रवाल ने 1968 में खरीदी थी. इसे वहां निशानी के तौर पर रखा गया है. ''परिवहन के साधन कम थे. उस मोटरसाइकिल से हम गांव-गांव जाया करते थे. एक दिन में 300-400 किलोमीटर तक नाप दिया करते थे." संघर्ष के उस दौर में पत्नी उर्मिला उनका गहरा संबल थीं. दो बेटियों और एक बेटे को वे ही सहेजतीं-संभालतीं और देर रात में कभी भी पहुंचने पर पति को हमेशा गरम खाना परोसतीं.

बहरहाल, अग्रवाल बताते हैं कि सबसे बड़ी मुश्किल बारिश न होने पर आती है. ''2009 में बारिश नहीं हुई तो हमारा काम भी ढीला ही रहा. 2010 में वृंदावन में चैत्र नवरात्र के दौरान हमने यज्ञ कराया. ऊपर वाले की कृपा से उस साल बहुत अच्छी बारिश हुई." 31 मार्च, 2017 तक धानुका का पेस्टीसाइड्स का बिजनेस 800 करोड़ रु. तक पहुंच गया. उनका कहना है कि ''किसानों को आज भी पेस्टीसाइड्स की जानकारी नहीं है, जबकि ये उनकी पैदावार बढ़ाने में कारगर हैं. देश में अनाज की पैदावार बढ़ाने की सख्त जरूरत है."

अग्रवाल कंपनी की इमेज से जुड़ा एक दिलचस्प वाकया सुनाते हैं. ''आमिर खान के टीवी कार्यक्रम सत्यमेव जयते में पेस्टीसाइड्स उत्पादकों को खलनायक के तौर पर बताया गया तो मेरी पोती ने मुझसे सवाल किया कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? इस पर मैंने ठान लिया कि जो गलत छवि बनाई जा रही है, उसका डटकर मुकाबला करूंगा. मैं छह बार मुंबई गया और आखिरकार सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को कंपनी का ब्रान्ड एंबेसडर बनाकर ही लौटा."

वे बताते हैं कि हरियाणा में सिरसा के पास एक गांव में वे अपने एक कीटनाशक का प्रदर्शन करने गए थे. दवा छिड़कते ही कपास की इल्लियां गिरने लगीं तो एक किसान जिद पर अड़ गया कि उसे तुरंत वह दवा चाहिए. उनका दावा है कि वह किसान दवा लेने उन्हीं के साथ दिल्ली चला आया. किसानों के बीच अपने उत्पादों की प्रतिष्ठा को ही वे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं.

उनके लिए वे बड़े यादगार पल थे, जब 1994 में वे मराठवाड़ा और आंध्र प्रदेश के दौरे पर गए. इस इलाके में 10 लाख हेक्टेयर में तुअर की खेती होती है. उस इलाके के लोगों को उनके कीटनाशकों और खर-पतवारनाशकों से जबरदस्त फायदा हुआ था. गांवों में पहुंचने पर लोगों ने शॉल और नारियल ओढ़ाकर उनका स्वागत किया. ''25-30 जगहों पर ऐसा स्वागत देखकर मन गर्व से भर गया. पैसे मिलने से कहीं ज्यादा खुशी इज्जत मिलने से होती है."

आज भारत की हर मंडी में धानुका के डीलर हैं. फील्ड में मौजूद कंपनी के 1,500 कर्मचारी उसके नए प्रोडक्ट किसानों तक ले जाते हैं और  उसके इस्तेमाल की ट्रेनिंग भी देते हैं. अग्रवाल का दावा है कि वे किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं. अभी कंपनी ने धान के साथ उगने वाला मोथा नाम का खरपतवार नष्ट करने के लिए सेंप्रा नाम का नया प्रोडक्ट उतारा है.

धानुका के तेजी से बढ़ते कदमों ने धीरे-धीरे दूसरे क्षेत्रों में भी संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं. 1998 में फार्मा क्षेत्र में कदम रखा और मानेसर में धानुका लैबोरेटरीज लि. बनाई, जहां ऐंटीबायोटिक्स के सॉल्ट तैयार होते हैं. 2006 में उसने जापानी कंपनी ओत्सुका के साथ नीमराणा के पास साझा उपक्रम लगाया. केसवाना में दो और एक्सपोर्ट ओरिएंटेड यूनिट लग रही हैं.

धानुका का मार्केट कैप 3,500 करोड़ रु. का है. पहले दिन से ही यह डिविडेंड पेइंग कंपनी रही है. आज कंपनी बीएसई-एनएसई में लिस्टेड है. धानुका टॉप-500 कंपनियों में शामिल है.

—मनीष दीक्षित

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