लोक नायक
जिस व्यक्ति ने भारतीय राजनीति में 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान किया, जिसके जवाब में इंदिरा गांधी ने आपातकाल का काला युग शुरू कर दिया.

परिवर्तन का जयप्रकाश नारायण का विचार राजनैतिक बदलाव तक सीमित नहीं था. उनकी संपूर्ण क्रांति का लक्ष्य तंत्र को बदलना था. वे लोकतांत्रिक तरीकों और मौलिक अधिकारों के सबसे प्रबल समर्थक थे. जननायक जेपी के नेतृत्व में भारत दिग्भ्रमित व्यक्तिवाद से दूर लोकतांत्रिक मूल्यों की सचाइयों पर गया. वे सार्वजनिक मंच के सबसे कुशल भाषणकर्ताओं में से नहीं थे.
जेपी एक बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने अपने भाषणों में कभी नाटकीयता का सहारा नहीं लिया, और कभी भी सार्वजनिक सभाओं में अपने भाषणों के दौरान नीतियों पर चर्चा करने से संकोच नहीं किया. इस तरह के भाषण और भाषणकला ने भीड़ को भले ही परे कर दिया हो, लेकिन क्या कभी किसी और ने अपनी आवाज में उन मुद्दों को छुआ था जिसकी आवाज दूसरों की तुलना में दो सुर मद्धिम थी?
लेकिन नितांत निस्वार्थी, अहंहीन, सार्वजनिक भावना, और सबसे बढ़कर जनता के सशक्तिकरण की इच्छा वाले जेपी की विश्वसनीयता ही थी जो लोगों की भीड़ को उन तक खींच लाती थी. लोग पूरी तन्मयता से उनकी बात सुनते थे. उनका मुंह खुलते ही सभी को एहसास होता था कि वे एक असाधारण मनुष्य के सामने हैं. राजनीति के दायरे का विस्तार चुनावी मूल्य से परे करने के उनके संकल्प ने हमारी कल्पना को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए प्रेरित किया, और उनकी विश्वसनीयता ने आम लोगों के बीच आंदोलन से जुड़ाव की भावना को उस तरह से पैदा किया, जिस तरह मैंने न पहले कभी अनुभव किया था, न उसके बाद.
वे कभी सत्ता की लूट के पीछे नहीं थे, उन्होंने कभी चुनाव नहीं लड़ा था, और कभी भी सरकारी पद की कोशिश नहीं की थी. हर व्यक्ति जानता था कि जेपी जिस बदलाव का प्रयास कर रहे थे, वह सबकी भलाई के लिए था. यह उनकी असाधारण विश्वसनीयता थी जिसने उन्हें अनुयायियों का नेता बनाया. यह वह युग था जब राजनेताओं की विश्वसनीयता सबसे निचले स्तर पर थी, लोगों का उनके प्रति मोहभंग हो गया था. लेकिन जैसे ही जेपी मैदान में आए, यह स्थिति रातोरात बदल गई.
(लेखक बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं)