प्रधान संपादक की कलम से
जब चुनावी खुशी ठंडी पड़ेगी, फिर बिहार फिर उन्हीं पुरानी समस्याओं के सामने खड़ा होगा. वादों से चुनाव जीते जाते हैं. लेकिन असली परीक्षा काम कर दिखाने की होती है

- अरुण पुरी
राजनैतिक महत्व को आंकना हमेशा मुश्किल होता है, लेकिन बिहार का नतीजा हाल के वक्त में नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) की सबसे अहम जीतों में गिना जाएगा. एनडीए ने 243 सदस्यीय विधानसभा में 202 सीटें जीतकर 83 फीसद हिस्सेदारी बना ली, जो पिछली बार महाराष्ट्र में मिली सफलता से भी ज्यादा है.
एनडीए ने इतनी बड़ी जीत कैसे हासिल की? इस हफ्ते की कवर स्टोरी में सीनियर एडिटर अमिताभ श्रीवास्तव वॉर रूम के अंदर की पूरी कहानी बता रहे हैं. यह एक ऐसी तस्वीर है जो चुनाव प्रबंधन के बारीक और शानदार काम को दिखाती है, मानो कोई विशाल इंडस्ट्रियल प्लांट बेहद फुर्ती से चल रहा हो या फिर कोई सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा हो, जिसमें हजारों हिस्से एकदम तालमेल से काम कर रहे हों.
इस पूरी लड़ाई की कमान खुद मोदी ने संभाली हुई थी. वे टर्बो मोड में थे. उन्होंने बिहार में 14 रैलियां कीं, जबकि 2025 में इससे पहले वे सात बार राज्य का दौरा कर चुके थे. फिर थे न थकने वाले अमित शाह. गृह मंत्री ने बिहार में डेरा डाल लिया था. वे भाजपा वॉर रूम के असली कंट्रोल सेंटर थे, जहां उनका एल्गोरिगद्म जैसा काम करने वाला दिमाग 243 विधानसभा सीटों में छिपी बड़ी तस्वीर को अनगिनत छोटी-छोटी बारीकियों से जोड़ रहा था.
पटना के होटल मौर्य से लेकर पूर्णिया जैसे दूर-दराज जिलों के कैंपों तक, उन्होंने सुनिश्चित किया कि जमीनी इनपुट और डेटा, दोनों एक साथ चलते रहें. उनके साथ थे केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, जो बिहार के प्रभारी हैं, और भाजपा के राष्ट्रीय सचिव विनोद तावड़े. ये टीम जद (यू) के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा के साथ मिलकर बिल्कुल सटीक तालमेल बनाए हुए थी और हर खुरदुरे किनारे को समतल कर रही थी.
इस तिकड़ी के 'नो गैप' माइक्रो-मैनेजमेंट में हर बूथ की अहमियत थी. भाजपा ने बिहार को पांच जोन में बांटा था, जिनकी निगरानी बाहर से आए वरिष्ठ नेताओं को दी गई थी. वे आरएसएस और उसकी शाखाओं के बूथ-स्तर के नेटवर्क पर निर्भर थे, जिसने महीनों से जमीन तैयार कर रखी थी. इसी नेटवर्क ने जुलाई में ही बढ़ती नाराजगी की चेतावनी दे दी थी. एनडीए वॉर रूम ने तुरंत वेलफेयर खर्च बढ़ाने की सलाह दी.
यहीं से फैसला हुआ कि महिलाओं की रोजगार योजना के तहत 1.51 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपए सीधे खाते में दिए जाएं. यह डीबीटी मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ: महिलाओं को खाता देखते ही भरोसा हो गया कि वादा पूरा हुआ है, और यही महिला वोटों में भारी बढ़त की वजह बना. फिर आया सीटों का बंटवारा: भाजपा और जद(यू) को समझदारी से 101-101 सीटें मिलीं, एनडीए में लौटे चिराग पासवान की एलजेपी को 29 सीटें दी गईं. उम्मीदवारों का चयन भी पूरी तरह डेटा से संचालित था. जिस सीट पर जिस उपजाति का गणित फिट बैठता था, वहां उसी प्रोफाइल के उम्मीदवार को टिकट दिया गया. यह सब किसी सर्जन के काम की तरह सटीक था और उस पर अमल में कोई गलती नहीं रहने दी गई.
इधर, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी खराब सेहत की अफवाहों को झुठलाते हुए साबित कर दिया कि उनकी पकड़ अभी भी बेहद मजबूत है. भाजपा जानती थी कि जद (यू) ही केंद्र में उसकी स्थिरता की गारंटी है. इसलिए जरूरी था कि इस स्थिरता के स्तंभ को और मजबूत किया जाए. इसी वजह से, थोड़ी झिझक के बाद भी, भाजपा ने अपनी महत्वाकांक्षा को ताक पर रखकर नीतीश को दसवीं बार सीएम बनाने का समर्थन किया. नीतीश ने भी, जो जितने अनुभवी नेता हैं, उतनी ही चालाकी से अपनी अनिवार्यता को खेला. वॉर रूम ने जमीन से उठते संकेतों को सबसे पहले पढ़ लिया था. नीतीश की लोकप्रियता फिर बढ़ रही थी.
चुनाव में बदलाव की जरा-सी संभावना और युवा तेजस्वी यादव के चुनौती देने की स्थिति ने उल्टा वोटरों को फिर नीतीश की तरफ मोड़ दिया. तब भाजपा ने भी सीएम चेहरे को लेकर अपनी शुरुआती उलझन दूर कर दी. शाह ने साफ कह दिया कि ''देश के पीएम और बिहार के सीएम के पद पर कोई वैकेंसी नहीं है.'' इससे मामले पर मुहर लग गई और नतीजा एक ऐसी जीत में बदला जिसकी अहमियत बिहार की सीमाओं से आगे जाती ज्यादा है. एनडीए ने अब लगातार चार विधानसभा चुनाव जीत लिए हैं, जबकि 2024 के आम चुनाव में उसे बहुमत नहीं मिला था. इससे भाजपा को जबरदस्त रफ्तार मिल गई है, खासकर जब उसके सामने बंगाल, तमिलनाडु, असम और केरल जैसे बेहद अहम चुनाव आने वाले हैं.
अब एनडीए के सामने असली जिम्मेदारी है. वादों का बोझ इंतजार कर रहा है. सबसे बड़ा वादा है महिलाओं को मिले शुरुआती 10,000 रुपए की मदद को बढ़ाकर 2 लाख रुपए तक देना, ताकि वे छोटे बिजनेस शुरू कर सकें. विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ वित्त वर्ष '26 में ही इन योजनाओं पर करीब 40,000 करोड़ रुपए तक का अतिरिक्त खर्च हो सकता है, जो बिहार के जीएसडीपी का लगभग 4 फीसद होगा.
इसके बाद है एक करोड़ नौकरियां देने का वादा. इसे पूरा करने के लिए बिहार को पूरी तरह नई शुरुआत चाहिए. गरीबी की लंबी विरासत के चलते यह बात अक्सर छुप जाती है कि बिहार देश की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में रहा है. फिर भी, इसकी प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 69,321 रुपए है, जो राष्ट्रीय औसत का सिर्फ एक-तिहाई है. 34 फीसद से ज्यादा परिवार महीने में 6,000 रुपए या उससे कम कमाते हैं और आधे से ज्यादा घरों में कम से कम एक प्रवासी मजदूर है. इन सबका एक ही हल है: ठप पड़ी इंडस्ट्री को फिर से जिंदा करना. यही राज्य में नौकरियां पैदा करेगा, पलायन रोकेगा, विकास की सीमा तोड़ेगा और सरकार का फोकस अस्थाई राहत से हटाकर सम्मानजनक रोजगार पर ले जाएगा.
जब चुनावी खुशी ठंडी पड़ेगी, बिहार फिर उन्हीं पुरानी समस्याओं के सामने खड़ा होगा. चुनाव वादों से जीते जाते हैं. लेकिन असली परीक्षा काम कर दिखाने की होती है. एनडीए को बड़ी जीत मिली है. जनादेश जितना बड़ा, जिम्मेदारी उतनी बड़ी. अब इस भरोसे पर खरा उतरना होगा. बहानों का वक्त नहीं है. सिर्फ हल और काम का वक्त है.