अक्षरधाम हमला से मालेगांव ब्लास्ट तक, सभी आरोपी बरी तो फिर दोषी कौन?

कई सनसनीखेज मामलों में अभियुक्तों के बरी होने से आपराधिक न्याय प्रणाली की ढांचागत विफलताएं उजागर हो गई है

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मालेगांव ब्लास्ट (2008) मामले में NIA कोर्ट ने सातो संदिग्धों को जुलाई 2025 में बरी कर दिया.

नवंबर की एक अंधेरी शाम दुबला-पतला और पकते बालों वाले आदमी ने ग्रेटर नोएडा की लुक्सर जेल से बाहर कदम रखा. चेहरे पर मास्क लगाए और हाथ में कपड़े की छोटी-सी थैली दबाए वह उस दुनिया में चला आया जिसने कभी उसकी मौत की मांग की थी. यह सुरेंद्र कोली था, जिसे लंबे वक्त से 'राक्षस’ और 'आदमखोर’ के सांचे में ढाला गया.

करीब दो दशक वह सलाखों के पीछे रहा, 2006 के उस निठारी हत्याकांड के लिए जिसमें उसके मालिक और कारोबारी मोनिंदर सिंह पंढेर के नोएडा स्थित कोठी के पीछे नाले में बच्चों और महिलाओं के बचे-खुचे कंकाल सामने आने के बाद देश दहल गया था. सिलसिलेवार हत्याओं, शवों के साथ दुष्कर्म और इंसानी मांस खाने के आरोपों ने सनसनी फैला दी थी. पुलिस ने दोनों पर कम से कम 16 पीड़ितों को फुसलाने, बलात्कार करने, हत्या और अंग भंग करने की धाराएं लगाईं.

कोली को 2009 और 2017 के बीच 13 अलग-अलग मुकदमों में दोषी ठहराया गया और हर बार मौत की सजा सुनाई गई. पंढेर को उनके खिलाफ चल रहे दोनों केसों में मौत की सजा मिली. मगर मामले की बुनियाद धीरे-धीरे दरकती चली गई. अक्तूबर 2023 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने जांच को 'ढिलाई से बिगाड़ा गया’, 'लापरवाह’ और 'उथला’ बताते हुए कोली 12 मामलों में और पंढेर को दोनों मामलों में बरी कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 11 नवंबर को कोली की आखिरी बची हुई सजा को भी रद्द कर दिया, यह दोहराते हुए कि ''शक चाहे जितना गंभीर क्यों न हो, सबूत का विकल्प नहीं हो सकता.’’ इसके साथ ही निठारी कांड भरभरा कर धराशायी हो गया.

कोली की रिहाई ने एक बेचैन करने वाला सच फिर उघाड़कर रख दिया कि भारत के सबसे सनसनीखेज आपराधिक मामले न्याय की कसौटी पर टिक नहीं पा रहे हैं. बॉम्बे हाइकोर्ट ने 21 जुलाई को मुंबई सीरियल ट्रेन धमाकों में 12 लोगों पर दोष सिद्धि का फैसला उलट दिया.

इसमें पांच को मौत की सजा सुनाई गई थी. कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष मामले को साबित करने में 'सरासर नाकाम’ रहा. दस दिन बाद एक विशेष अदालत ने 2008 के मालेगांव बम धमाके के केस में भाजपा की पूर्व सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित सहित सभी सातों अभियुक्तों को बरी कर दिया. रमजान के दौरान मस्जिद के पास हुए और छह लोगों की जान लेने वाले इस हमले के 17 साल बाद जज इस नतीजे पर पहुंचे कि केवल 'मजबूत शक’ था, कोई सबूत नहीं. 

इन सभी मामलों में एक बात साफ और अचूक है. वह यह कि असली अपराधी अज्ञात ही बने रहते हैं, इसलिए नहीं कि वे कानून की पकड़ से बच निकले, बल्कि इसलिए कि जांच में चूक और गड़बड़ियों, सबूतों से छेड़छाड़ और प्रक्रियागत नाकामियों के चलते उन्हें पकड़ने के लिए बनाई गई व्यवस्था ही लड़खड़ा जाती है.

पुलिस जांच की गिरती गुणवत्ता और आपराधिक मामलों में दोषसिद्धि की कम दर से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2023 में राष्ट्रीय 'जांच संहिता’ बनाने की वकालत की. तकरीबन दो साल बाद इस साल 5 अगस्त को अदालत असामान्य रूप से तीखी आलोचना करने को मजबूर हो गई. उसने कहा कि व्यवस्था संदिग्धों को गिरफ्तार करने और जेल में डालने के 'दिखावे’ पर निर्भर होकर रह गई है, जबकि वैज्ञानिक जांच, सांस्थानिक सुधार और गवाहों की सुरक्षा को नजरअंदाज कर दिया जाता है.

आंकड़ों से मसले की गहराई का पता चलता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 'भारत में अपराध 2023’ रिपोर्ट बताती है कि राज्यों में 7,21686 मामले 'सत्य’ लगे लेकिन सबूत या सुरागों के अभाव में बंद कर दिए गए, जो उस साल दर्ज अपराधों के करीब 19 फीसद थे. आरोपपत्र दाखिल करने की राष्ट्रीय दर 2014 के 79.6 फीसद से गिरकर 72.7 फीसद पर और प्रमुख मेट्रो शहरों में 51.7 फीसद पर आ गई है.

यहां तक कि गंभीर अपराधों में भी नतीजे कमजोर ही हैं. हत्या के मामलों में आरोपपत्र दाखिल करने की दर 85.7 फीसद होने के बावजूद दोषसिद्धि की दर महज 37.7 फीसद है. महाराष्ट्र में, जहां मालेगांव और मुंबई दोनों आतंकी धमाके हुए थे, दोषसिद्धि की दर 49.1 फीसद है, जो 54 फीसद के राष्ट्रीय औसत से भी कम है. उत्तर प्रदेश 75 फीसद की दोषसिद्धि दर के साथ ज्यादा मजबूत आपराधिक न्याय रिकॉर्ड के बावजूद निठारी मामले में बुरी तरह नाकाम रहा.

केंद्रीय एजेंसियों में भी ऐसा ही भेड़िया धसान है. केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) ने 2024 में सबूतों के अभाव में 174 मामलों को बंद करने की रिपोर्ट दाखिल की, जो तमाम सालों में सबसे ज्यादा थे. पिछले दो साल में कुल मिलाकर उसने महज 94 क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कीं.

पुलिस की भारी कमी

बहुत कुछ परेशानी अंकगणित की एक बुनियादी नाकामी से शुरू होती है. भारत में प्रति 1,00,000 लोगों पर 155 पुलिस अधिकारी हैं, जो संयुक्त राष्ट्र की तरफ से सिफारिश किए गए 222 और यहां तक कि देश की अपनी स्वीकृत संख्या 197 से भी काफी कम हैं. कुछ राज्यों में तो हालात और भी बदतर हैं. मसलन, बिहार महज 81 पुलिस अफसरों के साथ काम कर रहा है. नतीजे का अंदाज लगाया जा सकता है.

जांच अधिकारी वीआइपी लोगों की आवाजाही संभालने, भीड़ नियंत्रण और दंगों से निबटते हुए गंभीर अपराधों की जांच करते रहते हैं. इसमें कागजी कार्रवाइयों को और जोड़ लें तो उनके पास अच्छी तरह सबूत जुटाने और गवाहों की तलाश करने के लिए बहुत कम वक्त बचता है. ग्रामीण इलाकों में, जहां एक पुलिस थाने का दायरा 300 वर्ग किमी से ज्यादा तक फैला हो सकता है, अधिकारियों को अक्सर वारदात की जगह पर समय से पहुंचने भर के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है.

नाम उजागर न करने की शर्त पर इंडिया टुडे से बातचीत करते हुए दिल्ली के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इसे समझाया: ''अच्छी तरह जांच करने के लिए अपराध स्थल पर जाना होता है, भौतिक सबूत इकट्ठे करने होते हैं, गवाहों से पूछताछ करनी होती है, बयान दर्ज करने होते हैं, फॉरेंसिक विशेषज्ञों से तालमेल बिठाना पड़ता है, और सबूतों की रखवाली की शृंखला को बनाए रखना पड़ता है. इसके बाद अब महीने में मिलने वाले काम के घंटों को कई सौ मामलों में बांट लीजिए...’’

समर्पित जासूसी काडर के न होने से स्थिति और पेचीदा हो जाती है. कई विकसित देशों के विपरीत भारत छोटी-मोटी चोरी से लेकर संगठित अपराध तक हर चीज की जांच के लिए सामान्य कामकाज के लिए प्रशिक्षित पुलिसकर्मियों के भरोसे है. सीबीआइ के पूर्व विशेष निदेशक और दिल्ली पुलिस आयुक्त भी रह चुके राकेश अस्थाना का कहना है कि काम बांटना बेहद जरूरी है.

अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दिल्ली पुलिस के भीतर समर्पित मानवबल के साथ एक अलग जांच शाखा का गठन किया, जिसे वे 'दुनिया का सबसे बड़ा महानगरीय बल’ कहते थे. मगर हर कोई कायल नहीं था. पश्चिम बंगाल के एक आइपीएस अफसर आगाह करते हैं कि इस तरह के विभाजन से मनोबल कमजोर हो सकता है. वे कहते हैं, ''जब सड़क ड्यूटी पर तैनात अधिकारी जांच करने वाले अफसरों को थाने में ही बैठे रहते देखेंगे, तो अपनी ही भूमिका पर सवाल उठाने लग सकते हैं.’’
 
लापरवाह और घटिया जांच

फॉरेंसिक जांचकर्ताओं का कहना है कि ज्यादातर मामले कोर्ट में नहीं बल्कि अपराध स्थल पर ही हार जाते हैं. सबूत आम तौर पर मिनटों के भीतर रौंद दिए, बिगाड़ दिए या नजरअंदाज कर दिए जाते हैं. नोएडा में हुआ 2008 का दोहरा हत्याकांड इसका पक्का उदाहरण है. खराब ढंग से प्रशिक्षित पुलिस अफसरों ने मीडियाकॢमयों सहित 15 लोगों को उस पूरे अपार्टमेंट में बेरोकटोक खुलकर घूमने दिया जहां 14 वर्षीया आरुषि तलवार हत्या के बाद पाई गई थी. उंगलियों की छाप के 28 नमूने दाग-धब्बे लगने के कारण बेकार हो गए.

भारत अपने पुलिस बजट का 1.25 फीसद से भी कम प्रशिक्षण के लिए रखता है. केवल चार राज्य ही 2 फीसद के पार हैं. जांच को सहारा देने वाला बुनियादी ढांचा भी इतना ही कमजोर है. 'इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025’ के मुताबिक, राज्यों में फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं के करीब 10,000 स्वीकृत पदों में से आधे खाली पड़े हैं. कई राज्यों में तो पुलिस वाहनों के लिए ईंधन या स्टेशनरी सरीखे बुनियादी संसाधन भी अक्सर कम पड़ जाते हैं.

सबसे बड़ी खामी शायद हिरासत में लिए गए और अक्सर हिंसा के बूते लिए गए इकबालिया बयानों पर ऐतिहासिक तौर पर बहुत ज्यादा निर्भरता है. साल 1997 में संयुक्त राष्ट्र यातना विरोधी संधिपत्र पर दस्तखत करने के बावजूद भारत में अब भी कोई यातना-विरोधी स्वतंत्र कानून नहीं है. यह तब है जब देश में 2011 और 2022 के बीच हिरासत में हुई 1,169 हत्याएं दर्ज की गईं. एक भी पुलिस अफसर को सजा नहीं मिली.

यहां तक कि मुंबई ट्रेन धमाकों के मामले में भी बॉम्बे हाइकोर्ट ने इकबालिया बयानों को 'बर्बर और अमानवीय’ तरीकों से लिए गए करार दिया. निठारी केस में पुलिस तकरीबन पूरी तरह मजिस्ट्रेट के सामने हुए कोली के इकबालिया बयान के भरोसे थी. यह बयान कानूनी सहायता मुहैया कराए बिना करीब 60 दिनों की पुलिस हिरासत के बाद दर्ज किया गया. चिकित्सा जांच नहीं हुई, ब्रेन मैपिंग जांच में निगरानी की कमी थी, और इकबालिया बयान में ही पट्टी पढ़ाने और जोर-जबरदस्ती के निशान थे.

अदालतों की सुस्त रफ्तार

जब पुलिस ठोस सबूत जुटाने में कामयाब हो भी जाती है, भारत की सुस्त रक्रतार से चलती अदालतें फैसला आने से बहुत पहले उनका मुरझाना तय कर देती हैं. न्यायपालिका भी काम के भारी बोझ से दबी है. पूरे 5.3 करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और नीति आयोग का अनुमान है कि मामलों को निबटाने की मौजूदा दर से इन घिसटते आ रहे केसों के फैसले में ही 324 साल लगेंगे. इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत में प्रति दस लाख लोगों पर करीब 21 जज हैं, जो अमेरिका के 150 जजों के औसत के मुकाबले बहुत कम हैं.

अस्थाना का कहना है कि ज्यादातर मामलों में अपराधियों के बरी होने का घटिया जांच से कोई लेना-देना नहीं है. उनका कहना है कि मामले अक्सर इसलिए धराशायी हो जाते हैं क्योंकि जज कठोर प्रक्रियागत सबूतों की मांग करते हैं, यहां तक कि तब भी जब दोष साफ दिखाई दे रहा हो. बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि गवाह सालों बाद छोटे-छोटे ब्योरे याद कर पाते हैं या नहीं.

मसलन, पीड़ित के कपड़ों का रंग, घटनाओं का क्रम, जो ऐसी खामियां हैं जिनका बचाव पक्ष के वकील ऊंचे दांव वाले मुकदमों में अचूक फायदा उठाते हैं. वे कहते हैं, ''ज्यादातर केसों में जांच ऊंचे मानदंडों को पूरा करती हैं. केस का नतीजा दोष सिद्ध होने में होता है या नहीं, यह इस पर निर्भर है कि कोर्ट सबूतों का मूल्यांकन कैसे करता है. कोर्ट के लिए सबूत अक्सर नाकाफी ही होते हैं. कई बार निचली अदालतों के दोषमुक्ति के फैसले हाइकोर्ट में उलट दिए जाते हैं.’’

मगर अदालतें बिल्कुल बंद माहौल में काम नहीं करतीं. मुकदमे अक्सर इसलिए पटरी से उतर जाते हैं क्योंकि गवाह बयानों से मुकर जाते हैं या उन्हें बदल देते हैं. मुकदमों में करीब 57 फीसद देरी पक्षों और गवाहों की गैरहाजिरी के कारण होती है. गुजरात दंगों के दौरान बेस्ट बेकरी मामले में प्रमुख गवाह जाहिरा शेख कथित डराए-धमकाए जाने के बाद गवाही से मुकर गईं.

कुल मिलाकर 37 गवाह पलट गए. कलकत्ता हाइकोर्ट के वकील सौम्यजीत राहा कहते हैं, ''जजों और अदालती बुनियादी ढांचे की घोर कमी को देखते हुए देरी तो होनी ही है. मामला जितना लंबा खिंचता है, गवाहों को डराने-धमकाने के अवसर उतने ही बढ़ जाते हैं.’’ हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश को इसलिए फटकार लगाई कि उसने 2021 में लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के मामले में प्रमुख गवाह की धमकी दिए जाने की शिकायत पर कार्रवाई नहीं की. तब केंद्रीय मंत्री अजय कुमार मिश्रा 'टेनी’ का बेटा आशीष मिश्रा इस मामले में लिप्त था.

कानूनी नुमाइंदगी में घोर गैरबराबरी इस असंतुलन को और बढ़ा देती है. दौलतमंद प्रतिवादी ऊंचे वकीलों की सेवाएं ले सकते हैं जबकि सरकारी अभियोजकों या वकीलों को कम पैसा मिलता है, वे बहुत ज्यादा काम करते हैं, और अक्सर पेचीदा मुकदमों में नातुजर्बेकार होते हैं. कोलकाता के पूर्व पुलिस आयुक्त सोमेन मित्रा कहते हैं, ''बचाव पक्ष बेहतरीन वकील लेता है. सरकार अक्सर ऐसे शक्चस को भेज देती है जो न तो प्रशिक्षित होता है और न प्रेरित.’’ जांचकर्ताओं और अभियोजकों के बीच कमजोर तालमेल भी चिंता की बात है. मित्रा यह भी कहते हैं, ''केस तैयार करने वाला अधिकारी बिरले ही उसे अंजाम पर पहुंचते देखता है.’’ सबूत नैरेटिव की निरंतरता के बिना पेश किए जाते हैं, और केस फाइल के भीतर महीन लेकिन अहम कड़ियां खो जाती हैं.

सुधार का रास्ता

यही वह क्षेत्र है जहां नए आपराधिक कानून यानी भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) बदलाव की कोशिश करते हैं. दोनों ने मिलकर आजादी के बाद पहली बार पुलिस व्यवस्था और आपराधिक प्रक्रिया का सबसे व्यापक परिवर्तन किया है. सबसे फलदायी बदलावों में से एक बीएनएसएस की धारा 105 के तहत तलाशी और जब्ती की ऑडियो-विजुअल रिकॉर्डिंग को अनिवार्य बनाना है. दिल्ली पुलिस ने बॉडीकैम यानी शरीर पर पहनने वाले वीडियो कैमरे लगा भी दिए हैं. देश भर में इसे अपनाया जाता है तो ऐसी रिकॉर्डिंग पुलिस के दावों की तस्दीक करने और सबूतों से छेड़छाड़ के आरोप लगाने से रोकने में मदद करेगी. 

बीएनएसएस में सात साल या उससे ज्यादा की सजा वाले अपराधों से जुड़े सभी मामलों में फॉरेंसिक विशेषज्ञों को शामिल करना अनिवार्य किया गया है. कई राज्यों ने राष्ट्रीय पुलिस अकादमी से प्रशिक्षित अपराधस्थल अधिकारियों को जिला स्तर पर नियुक्त करना शुरू कर दिया है. हरियाणा और ओडिशा ने और एक कदम आगे जाकर जमीन पर काम कर रहे अधिकारियों की सहायता के लिए मोबाइल फॉरेंसिक इकाइयों और साइबर उपकरणों की शुरुआत कर दी है.

बीएनएसएस की धारा 193पुलिस को आरोपपत्र और केस फाइल इलेक्ट्रॉनिक ढंग से भेजने की इजाजत देती है. इस उपाय के पीछे इरादा लॉजिस्टिक की वजह से होने वाली देरी को कम करना और जांचकर्ताओं तथा अभियोजकों को एक सीध में लाना है. यहां तक कि सीसीटीवी क्लिप से लेकर व्हॉट्सऐप चैट तक कई इलेक्ट्रॉनिक सबूत अदालत में मान्य हैं. 

प्रशिक्षण और देखरेख पर नए सिरे से ध्यान दिया गया है. जांच करने वाले अधिकारियों को अब सबूत इकट्ठा करने, डिजिटल टूल्स का प्रयोग करने और पीड़ित के प्रति संवेदनशीलता के बारे में सुव्यवस्थित मॉड्यूल से गुजारा जा रहा है. वरिष्ठ अफसरों को गंभीर अपराधों की जांच की निगरानी निजी तौर पर करनी होगी और जिला मजिस्ट्रेट व निगरानी बोर्ड को मासिक समीक्षा रिपोर्ट देनी होंगी. नए कानूनों में सक्चत समय सीमाएं भी तय की गई हैं. मसलन, फैसला दलीलें खत्म होने के 30 दिनों के भीतर दे दिया जाना चाहिए, जिसे वैध कारण दर्ज करने पर 45 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है.

इस बीच बड़े पैमाने पर टेक्नोलॉजी से संचालित बुनियादी ढांचे पर जोर दिया जा रहा है. अपराध के अभिलेखों को डिजिटल और सुव्यवस्थित बनाने के लिए अपराध और अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क और प्रणाली (सीसीटीएनएस) की शुरुआत की गई है. वहीं अंतरसंचालनीय आपराधिक न्याय प्रणाली 2.0 (आइसीजेएस 2.0) पुलिस, अदालतों, अभियोजन विभागों, जेलों और फॉरेंसिक इकाइयों को आइटी के जरिए एक सूत्र में बांधने को मजबूत करती है.

केंद्र की तरफ से 3,375 करोड़ रुपए की फंडिंग के साथ यह पहल 'एक डेटा एक एंट्री’ मॉडल का अनुसरण करती है, जो यह पक्का   करता है कि घटनास्थल पर जुटाए गए सबूत अभियोजकों और अदालतों को सहजता से सुलभ हों. असम में शिवसागर के एडिशनल एसपी (हेडक्वार्टर्स) प्रकाश मेधी कहते हैं, ''पहले हमें जब्ती के दस्तावेजों पर दस्तखत के लिए गवाहों के आसरे रहना पड़ता था, जिनमें से कुछ बाद में पलट जाते या अनमेल हो जाते थे. अब (छेड़छाड़ रहित साक्ष्य संग्रह के लिए) हर ब्योरा ई-साक्ष्य पर अपलोड किया जाता है और अदालतों को तुरंत उपलब्ध हो जाता है.’’

केंद्र ने फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं को आधुनिक बनाने के लिए 2,000 करोड़ रुपए का निवेश किया है और देश भर की लैबों को जोड़ने के लिए ई-फॉरेंसिक्स की शुरुआत भी की है. इस पहल से राज्यों को सुविधाओं को उन्नत बनाने, मोबाइल फॉरेंसिक वैन खरीदने और योग्य विशेषज्ञों को प्रशिक्षित करने के लिए शैक्षणिक बुनियादी ढांचे का विस्तार करने में मदद मिलेगी.

इन सुधारों का भविष्य एक कठोर सच्चाई पर टिका है, और वह कि सार्थक बदलाव के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति जरूरी होती है. सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में प्रकाश सिंह मामले में फैसला देते हुए उन्हें सात सूत्री निर्देश में बांधने का जतन किया था, जिनमें स्वतंत्र पुलिस शिकायत प्राधिकरणों का गठन और बहुत ज्यादा अपराध वाले जिलों में जांच को कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारियों से अलग करना शामिल था.

करीब 20 साल गुजर चुके हैं, पालन या तो आधा-अधूरा या कमजोर है. राजनैतिक नेतृत्व की सच्ची प्रतिबद्धता के बिना भारत में इंसाफ इसी तरह धीमी रफ्तार से रेंगता रहेगा—और नाटकीय गिरफ्तारियों के बाद तकलीफदेह रिहाई के जाने-पहचाने तमाशों से परिभाषित होता रहेगा. 

व्यवस्था की खामियां उजागर  करते बेगुनाही के कुछ मामले-

मालेगांव ब्लास्ट (2008) रमजान के दौरान हुए विस्फोट में छह लोग मारे गए और 100 से ज्यादा जख्मी हो गए. एनआइए कोर्ट ने ठोस सबूत के अभाव में सभी सातों संदिग्धों को जुलाई 2025 में बरी कर दिया. इनमें प्रज्ञा ठाकुर (ऊपर) और ले. कर्नल प्रसाद पुरोहित भी थे, जिनके कथित तौर पर हिंदू अतिवादी संगठनों से संबंध थे

नोएडा डबल मर्डर केस (2008) 14 वर्ष की आरुषि तलवार की हत्या उसके बेडरूम में हुई; घरेलू सहायक का शव छत से बरामद हुआ. आरुषि के माता-पिता को दोषी ठहराया गया और फिर 2017 में बरी कर दिया गया क्योंकि सीबीआइ ने ऑनर किलिंग की थ्योरी को बेतुका बताया. अपीलें सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.

मुंबई के सीरियल ट्रेन ब्लास्ट (2006) सात सुनियोजित विस्फोटों में 189 लोगों की जान गई और 800 से ज्यादा लोग घायल हुए; बॉम्बे हाइकोर्ट ने सभी 12 अभियुक्तों को जुलाई 2025 में बरी कर दिया (नीचे) और संदिग्ध शिनाख्त परेड व गवाहों के बयान का हवाला देकर कहा कि अभियोजन पक्ष पूरी तरह विफल रहा. सुप्रीम कोर्ट ने बरी करने के फैसले पर स्टे कर दिया लेकिन 12 लोगों को जाने दिया; अपीलें अभी लंबित हैं

मक्का मस्जिद ब्लास्ट (2007) हैदराबाद की मस्जिद में हुए विस्फोट में 11 लोग मारे गए. स्वामी असीमानंद सहित सभी पांचों अभियुक्तों को 226 में से 64 गवाहों के मुकर जाने के बाद बरी कर दिया गया. सुबूतों के अभाव में एनआइए ने अपील नहीं की

निठारी नरसंहार (2005-06) नोएडा के इस इलाके में 16 बच्चियों और महिलाओं का यौन उत्पीड़न कर उनकी हत्या कर दी गई. इनके अवशेष कारोबारी एम.एस. पंढेर के घर के पास मिले. उनके घरेलू नौकर सुरेंद्र कोली के इकबालिया बयान के चलते दोनों को जुर्म का दोषी पाया गया और अनेक केसों में मृत्युदंड की सजा सुनाई गई. लेकिन वर्ष 2023 में पंढेर बरी हो गए और नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट के फैसला पलट देने से कोली भी बरी हो गया 

अक्षरधाम हमला (2002) गांधीनगर में हुए इस आतंकी हमले में 33 लोगों की जान चली गई. छह लोगों को पोटा में दोषी ठहराया गया लेकिन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. कोर्ट ने कहा कि गुजरात पुलिस ने जबरिया स्वीकारोक्ति पर भरोसा किया और हर पायदान पर मामला कमजोर होता गया

बेस्ट बेकरी केस (2002) गुजरात दंगों के दौरान वडोदरा में भीड़ के हमले में 14 लोग जिंदा जला दिए गए. 2003 में 37 गवाहों के मुकर जाने से सभी 21 अभियुक्त बरी हो गए. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मामले की दोबारा जांच के मिले-जुले नतीजे आए. बॉम्बे हाइकोर्ट ने आजीवन कारावास की चार सजाओं को बरकरार रखा.

— स्टोरी इनपुट अर्कमय दत्ता मजूमदार, धवल एस. कुलकर्णी और जुमाना शाह

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