प्रधान संपादक की कलम से

बिहार हमेशा से देश की राजनीति की दिशा दिखाने वाला रहा है. इस बार वह भविष्य की राजनीति की प्रयोगशाला भी बन गया है

ITH cover issue 22 Oct. 2025
सत्ता का महासंग्राम

लगभग एक साल की राजनैतिक शांति के बाद अब देश में एक बड़ा विधानसभा चुनाव होने जा रहा है. इस बार मैदान है बिहार और बाजी सिर्फ 243 सीटों की सत्ता तक सीमित नहीं है, बल्कि असर कहीं ज्यादा बड़ा होगा. मुकाबला दिलचस्प हो गया है क्योंकि इसमें तीन चेहरे आमने-सामने हैं: पुराने और अनुभवी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उनको चुनौती देने वाले तेजस्वी यादव और समीकरण बदलने में जुटे प्रशांत किशोर.

तीनों की टक्कर ने चुनावी राजनीति को त्रिकोणीय अनिश्चित लड़ाई में बदल दिया है, जिसका असर देश की राजनीति तक जा सकता है. नीतीश कुमार की पार्टी जद (यू) केंद्र में भाजपा की अहम सहयोगी है. अगर बिहार में नीतीश की लोकप्रियता गिरती दिखी, तो उसका असर पूरे देश में एनडीए के 'मजबूत गठबंधन’ के दावे पर पड़ेगा. अगर इंडिया गठबंधन को बढ़त मिलती है, तो वह अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल और असम के महत्वपूर्ण चुनावों से पहले हवा का रुख बदल सकता है.

हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव का नतीजा सीधे तौर पर जद (यू) के 12 लोकसभा सांसदों के समर्थन पर असर नहीं डालेगा, लेकिन भाजपा के लिए यह जोखिम भरा हो सकता है कि वह खुद को चंद्रबाबू नायडू जैसे दूसरे सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर पाए. इसके अलावा, अपनी महत्वाकांक्षाओं के बावजूद भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो पूरे बिहार में स्वीकार्य हो, इसलिए उसके लिए शायद यही बेहतर होगा कि वह नीतीश की नाव को अपने दम पर चलने दे.

लेकिन नीतीश की छवि एक पूंजी और परेशानी, दोनों है. बढ़ती उम्र और गिरती सेहत की खबरों के बीच अब बदलाव लाने वाले नेता की छवि काफी हद तक पीछे छूट चुकी है. करीब 20 साल से सत्ता में रहने के बाद मतदाताओं में उनके प्रति उदासीनता का भाव दिखने लगा है. बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के बाद करीब 7.42 करोड़ वोटर हैं, जिनमें से करीब एक चौथाई 18 से 29 साल की उम्र के हैं.

यह नया वोटर युवा, महत्वाकांक्षी और डिजिटल रूप से जुड़ा हुआ है. उनमें से ज्यादातर को 2005 की वह तस्वीर याद भी नहीं होगी, जब नीतीश का दौर शुरू हुआ था. नीतीश के पास अब भी एक मजबूत वफादार वोट बैंक है: गैर-यादव ओबीसी वर्ग, अति पिछड़े और महिलाएं. इनमें से महिला वोटर सबसे अहम हैं. बिहार में महिलाएं एक दशक से पुरुषों से करीब 6-7 फीसद ज्यादा वोट डालती हैं.

यही वजह है कि एनडीए उन्हें लुभाने के लिए कल्याणकारी योजनाओं की बौछार कर रहा है: अब तक 1.2 करोड़ से ज्यादा महिलाओं के खाते में 10,000 रुपए डाले जा चुके हैं, जो स्वरोजगार योजना में आरंभिक पूंजी के तौर पर दिए गए हैं. एनडीए में अस्थिरता की एक बड़ी वजह अब थमती दिख रही है. 2020 के विधानसभा चुनाव में जद (यू) की सीटें 71 से घटकर 43 रह गई थीं, जो उसके इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन था. इसकी बड़ी वजह बनी चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा), जिसने अकेले चुनाव लड़कर 135 सीटों पर करीब 10 फीसद वोट हासिल किए.

लोजपा को भले ही सिर्फ एक सीट मिली, लेकिन उसने करीब 34 सीटों पर जद (यू) की जीत रोक दी. इस बार तस्वीर अलग है. चिराग एनडीए के साथ हैं और अपने करीब 5 फीसद पासवान वोट बैंक के साथ लौटे हैं. इसे अगर नीतीश के महादलित समर्थन से जोड़ा जाए, तो एनडीए के पास फिर से पूरा वोटों का इंद्रधनुष तैयार हो सकता है. हालांकि एक सस्पेंस बना हुआ है; भाजपा ने नीतीश को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित नहीं किया है. इससे लगता है कि पार्टी चुनाव के बाद हालात के मुताबिक पत्ते खेलने का विकल्प खुला रखना चाहती है.

विपक्षी गठबंधन के सामने भी अनिश्चितताएं हैं. दो बार उपमुख्यमंत्री रह चुके तेजस्वी यादव खुद को मुख्यमंत्री की कुर्सी का स्वाभाविक दावेदार मानते हैं. 2024 में 22 फीसद वोट शेयर के साथ वे सभी दलों में सबसे आगे रहे. उनके साथ कांग्रेस भी है, जो राहुल गांधी के 'वोट चोरी’ अभियान से उत्साहित है, जिसने कुछ वक्त के लिए चुनावी माहौल को गर्म कर दिया. लेकिन इसे सीटों में बदलना आसान नहीं होगा.

तेजस्वी को पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैंक से आगे बढ़ना होगा और वह अविश्वास घटाना होगा जो अब भी बहुत से लोगों के मन में राजद के लिए है. कांग्रेस को भी अपने ऊपर लगे गठबंधन की कमजोर कड़ी होने के टैग से बाहर निकलना होगा. 2020 में वह 70 में से सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी. अब सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की बदली हुई छवि राजद और कांग्रेस दोनों को नई जातियों और तबकों से वोट दिला पाएगी, खासकर 19.65 फीसद दलितों और 36 फीसद अति पिछड़ों से? विपक्ष इस बार 'मंडल 2.0’ की नई रणनीति के साथ उतर रहा है, जिसमें वह रोजगार सृजन के वादे को आरक्षण के विस्तार, यहां तक कि प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण से भी जोड़ रहा है.

फिर एक वाइल्ड कार्ड भी है जो दोनों तरफ के सारे समीकरण बिगाड़ सकता है: मीडिया साधने में माहिर प्रशांत किशोर (पीके). चुनावी रणनीतिकार के तौर पर वे मोदी, नीतीश और राहुल तीनों के साथ काम कर चुके हैं, अब जब वे अपनी राजनीति की इबारत खुद लिख रहे हैं, तो तीनों के खिलाफ खड़े हैं. पीके एनडीए के बड़े नेताओं पर गंभीर आरोप लगाते हुए और राजद को पिछड़ी सोच वाला परिवारवादी बताकर बिहार की राजनीति को रीसेट करने की बात कर रहे हैं.

तीसरी ताकत के रूप में उनकी पार्टी जन सुराज युवाओं और सिस्टम से नाराज लोगों को टारगेट कर रही है. उनकी जाति से परे अपील दोनों तरफ असर डाल सकती है: एक ओर वे उन राजद समर्थकों को खींच सकते हैं जो विपक्ष में नई आवाज तलाश रहे हैं, और दूसरी ओर, ब्राह्मण होने के नाते भाजपा के 15 फीसद सवर्ण वोट बैंक में सेंध भी लगा सकते हैं. ऐसा चुनाव जिसमें जीत-हार मामूली अंतर से तय हो सकती है, वोटों में थोड़ा-सा झुकाव भी अप्रत्याशित नतीजे ला सकता है, और असर सिर्फ पीके तक सीमित नहीं रहेगा. पीके के शब्दों में, यह चुनाव 'अर्श या फर्श’ जैसा है.

इस हफ्ते की कवर स्टोरी में सीनियर एडिटर अमिताभ श्रीवास्तव ने इस त्रिकोणीय जंग के हर खिलाड़ी की 'ताकत, कमजोरी, अवसर, खतरे’ का विश्लेषण किया है. बिहार हमेशा से देश की राजनीति की दिशा दिखाने वाला रहा है. इस बार वह भविष्य की राजनीति की प्रयोगशाला भी बन गया है. जब सारा धूल-धुआं बैठ जाएगा, उम्मीद है तब इस त्रिकोण का सिर्फ एक कोना खड़ा रह जाएगा.

- अरुण पुरी

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