सरकार के किस फैसले से जूट फिर बन गया सोना?
अच्छे मौसम और केंद्र सरकार की समझदारी भरी नीति ने जूट की फसल को फिर से जीवन दे दिया है

आम तौर पर सुनहरे दौर बीते वक्त की बातें माने जाते हैं. बंगाल की जूट की कहानी भी ऐसी ही लगती थी. बंटवारे में बुरी तरह बंट जाने के बाद भारतीय हिस्से की जूट लंबे समय से घटती कमाई, किसानों की बदहाली, बंद मिलों और छंटनी का शिकार रही. लेकिन कई सालों बाद, किस्मत और नीतियों का मेल ऐसा बैठा है कि किसानों को अब असली मुनाफे का मौसम मिल रहा है.
निर्णायक मोड़ तब आया जब जून से अगस्त के बीच केंद्र सरकार ने दो चरणों में बांग्लादेश से जूट आयात पर पाबंदी लगा दी. इससे जो अतिरिक्त मांग बनी, वह ठीक उसी समय आई जब घरेलू सप्लाइ भी बढ़ी. इस बार ज्यादा बारिश हुई, जिसने बाकी फसलों को नुक्सान पहुंचाया, लेकिन जूट के लिए वरदान बन गई. यह फसल पानी में खूब फलती है. नतीजा यह हुआ कि उपज भी बेहतर मिली और रेशा भी पहले से ज्यादा उम्दा निकला. और उसकी कीमतें पिछले कई सालों से कहीं ज्यादा मिल रही हैं.
जूट की खेती और उससे जुड़ा कारोबार बंगाल में करीब 40 लाख लोगों की रोजी-रोटी का सहारा है. इस बार की भरपूर फसल ने गांव-गांव में काम भी बढ़ा दिया है. श्रमसाध्य प्रक्रिया जैसे 'रेटिंग'—जिसमें डंठलों को पानी में डुबोकर रेशा लकड़ी से अलग किया जाता है—फिर उनका सुखाना और गट्ठर बनाना, इन सबसे खेत मजदूरों की मजदूरी बढ़ी है. गांवों में लंबे वक्त बाद ऐसा माहौल दिख रहा है कि काम भी मिल रहा है और मेहनताना भी समय पर मिल रहा है.
कीमत का ग्राफ अपने आप कहानी कह देता है. 8 सितंबर को जूट 8,800 रुपए प्रति क्विंटल बिक रहा था, जो 8 जनवरी की कीमत से सीधे 3,000 रुपए ज्यादा है. इंडियन जूट मिल्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष संजय काजारिया के मुताबिक, ''किसानों को इस बार पिछले साल के मुकाबले लगभग दोगुनी कीमत मिल रही है.''
दूसरा बंगाल
भारत को हर साल करीब 75 लाख गांठ जूट की जरूरत होती है. इसमें से अकेला पश्चिम बंगाल लगभग 58 लाख गांठ देता है और असम सात से आठ लाख. बाकी कमी बांग्लादेश से आयात करके पूरी की जाती थी. पिछले साल तो बांग्लादेश का उत्पादन भारत से भी आगे निकल गया था.
यही वजह थी कि यहां के किसानों का भरोसा टूटने लगा था और कई ने जूट छोड़कर दूसरी फसलें बोना शुरू कर दिया था. लेकिन अब आयात पर रोक ने हालात बदल दिए हैं. जूट बेलर्स एसोसिएशन के जय बागरा कहते हैं, ''अगर यही रुझान रहा तो बहुत से किसान फिर से जूट की खेती की तरफ लौट सकते हैं.'' यही उम्मीद की चमक आज बंगाल की नदी किनारे की धरती पर दिख रही है, जहां नए-नए सूखे रेशों के गट्ठर फिर से बिचौलियों और व्यापारियों को खींच रहे हैं.