सऊदी-पाक समझौते पर भारत के सामने क्या है रास्ता?

भारत के लिए सऊदी अरब एक अहम ऊर्जा साझेदार के अलावा भारत से वहां जाने वाले प्रवासी समुदाय के लोगों का मेजबान भी है. ऐसे में जरूरी है कि हमारी प्रतिक्रिया संबंधों को बनाए रखने वाली हो

बीते दिनों सऊदी-पाकिस्तान के बीच रक्षा समझौता हुआ  (फाइल फोटो)
बीते दिनों सऊदी-पाकिस्तान के बीच रक्षा समझौता हुआ (फाइल फोटो)

सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच 17 सितंबर को रणनीतिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर होते ही दो महासागरों और एक उपमहाद्वीप में कई तरह की अटकलें हिलोर मारने लगीं. इसकी वजह बनी समझौते की एक लाइन—एक पर हमला दोनों पर हमला माना जाएगा.

इसने खाड़ी से लेकर हिमालय तक सामरिक रणनीति को नए सिरे से परिभाषित करने पर बहस छेड़ दी. भारत के लिए जरूरी है कि इससे कतराने या फिर बेचैनी भरी प्रतिक्रिया देने के बजाए पूरी स्पष्टता के साथ आगे अपनाए जाने वाले रुख पर गौर करे.

यह अभी क्यों? दोहा से ही शुरू करते हैं. 9 सितंबर को इज्राएली जेट विमानों ने कतर की राजधानी में एक सेफ हाउस पर हमला किया, जहां हमास नेता एक युद्धविराम प्रस्ताव पर माथापच्ची करने में जुटे थे. धमाके की आवाज ने खाड़ी की राजधानियों को हिलाकर रख दिया. इज्राएल की इस साल सात मोर्चों पर कार्रवाई को देखते हुए इसमें कुछ अस्वाभाविक भी न था. उसने गाजा, लेबनान, सीरिया, ईरान, यमन, ट्यूनीशिया के बाद अब कतर को निशाना बनाया था. स्थितियों पर वाशिंगटन का कोई नियंत्रण न देख क्षेत्रीय भरोसा डगमगाने लगा. अटकलों को हवा मिली कि अगला निशाना कौन.

इसीलिए, बहुस्तरीय रक्षा उपाय अब सिद्धांत बनने लगा है. 2019 में सऊदी अरब के अबकैक और खुरैस क्षेत्रों पर यमन से हूतियों का हमला कड़ा सबक सिखा चुका था. खाड़ी देश अब अपनी नीतियां अचूक, बुनियादी ढांचा मजबूत बना रहे और आपूर्ति शृंखलाओं में विविधता ला रहे हैं. महाशक्तियों के संरक्षण से मोहभंग अब सैद्धांतिक नहीं, वास्तविकता बन चुका है.

भारत क्या करे? पहले तो एक गहरी सांस ले. यह समझौता 1960 के दशक से कायम संबंधों को औपचारिक रूप देने की एक कोशिश है. बगदाद संधि और सीईएनटीओ में पाकिस्तान की भूमिका दर्शाती है कि गठबंधन अपने सदस्यों को जबरन युद्ध में नहीं घसीटते. 2015 में पाकिस्तानी संसद ने यमन में जंग लडऩे से इन्कार कर दिया था. इस्लामाबाद की प्रतिबद्धताएं सीमित करने में घरेलू राजनीति की अहम भूमिका है. नया समझौता बचाव की एक योजनाबद्ध रणनीति है, न कि स्वत: जंग में उतरने की गारंटी.

भारत की पहली प्रतिक्रिया उचित थी—सतर्क और शांत. अब थोड़े कठिन हिस्से की बारी है—बिना किसी दबाव में आए अपनी बात रखना. सऊदी अरब भारत का महत्वपूर्ण ऊर्जा साझेदार है और एक बड़े भारतीय प्रवासी समुदाय का मेजबान भी. द्विपक्षीय रिश्ते खासे मजबूत हैं. रियाद को शांति के साथ संदेश पहुंचाया जाना चाहिए. भविष्य में भारत-पाकिस्तान के बीच किसी संकट की स्थिति में रियाद को तटस्थ रहने के लिए प्रोत्साहित करना मुफीद रहेगा.

ऊर्जा, निवेश, तकनीक और बढ़ता भारतीय बाजार उसके लिए काफी मायने रखता है. निरंतर जुड़ाव के साथ इन प्रोत्साहनों पर निर्भरता बढ़ाना, किसी मंच पर आक्रोश जताने की तुलना में कहीं ज्यादा असरदार होगा. ऐसे संदेश सार्वजनिक तौर पर नहीं, बल्कि निजी स्तर पर दिए जाने से ज्यादा प्रभावशाली साबित होते हैं.

भारत ने पश्चिम एशिया में एक ऐसी सॉफ्ट पावर वाली साख अर्जित की है जो दूरियों को घटाने में भरोसा रखता है. खाड़ी देश खुद अपनी सक्षमता बढ़ा रहे हैं तो भारत को भी अपनी ढाल मजबूत करनी होगी. यही पाकिस्तान की खुशफहमी दूर करने और उसे किसी तरह का दुस्साहस करने से रोकने में मददगार होगा. भारत को एकीकृत वायु और मिसाइल सुरक्षा मजबूत करनी चाहिए. ड्रोन-रोधी प्रणालियों का विस्तार करना भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा.

घरेलू राजनैतिक मोर्चे पर हल्ला-गुल्ला चलता रहेगा. कुछ लोग कूटनीति धराशायी होने की बात कहेंगे तो कुछ नाटक बताकर हंसी उड़ाएंगे. दोनों ही असल तस्वीर न देख पाएंगे. समझौता न तो पश्चिम एशिया में एटमी युद्ध का अंदेशा बढ़ाता है, न ही यह मौजूं है. इसने रियाद की एक ही गारंटर पर दांव लगाने की अनिच्छा को सामने रखा है.

ये व्यवस्था सऊदी-पाकिस्तान संबंधों के साथ-साथ खासे रणनीतिक मायने भी रखती है. इस्लामाबाद इस ढांचे के भीतर अपनी स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश करेगा. चीन भी पाकिस्तान के जरिए रियाद के साथ अपने सैन्य संबंधों को प्रगाढ़ करने की कोशिश कर सकता है. भारत को इन संकेतों को उनके वास्तविक रूप में समझना होगा. भविष्य में भारत का मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि उसने कितनी तीखी प्रतिक्रिया दी, बल्कि इस पर निर्भर करेगा कि उसने व्यापक संबंधों के जरिए इस समझौते को कितने प्रभावी ढंग से अप्रासंगिक बना दिया.

- सैयद अकबरुद्दीन (लेखक संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि रहे हैं.)

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