सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के लिए कैसे खड़ा हुआ संकट?
आठवीं तक के शिक्षकों के लिए टीईटी परीक्षा दो साल में पास करने की अनिवार्यता वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने खासकर सरकारी स्कूलों के टीचर्स के लिए संकट खड़ा कर दिया है

बाराबंकी (उत्तर प्रदेश) जिले के एक प्राथमिक विद्यालय बरौली जौटा के हेडमास्टर सुशील पांडे ने 1990 में नौकरी जॉइन की थी. एमए, एलएलबी के साथ वे बीटीसी कर चुके हैं और अब नौकरी के सात साल बचे हैं.
उनके लिए यह वक्त था सुकून से रिटायरमेंट के बाद की योजनाएं बनाने का. बिहार की राजधानी पटना के नूरुद्दीन गंज में मध्य विद्यालय के प्रधानाध्यापक मनोज कुमार की बहाली 1999 में बीपीएससी के जरिए हुई थी.
उन्होंने इतिहास और गणित में एमए किया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 1 सितंबर को आए फैसले ने मनोज, सुशील और देश भर में उनके जैसे लाखों शिक्षकों की नींद ही उड़ाकर रख दी. अब उनके सामने शिक्षक पात्रता परीक्षा यानी टीईटी पास करने की चुनौती है. ये दोनों अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षक संघ के शीर्ष पदाधिकारी हैं. फैसले के बाद 4 सितंबर को वे सहयोगियों के साथ दिल्ली आ पहुंचे और दो दिनों तक वकीलों से मिलकर सलाह-मशविरा किया. साथी शिक्षकों को इस चुनौती से राहत दिलाने को वे एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं.
पहली सितंबर 2025 को दिए अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम लागू होने से पहले भर्ती हुए शिक्षकों के लिए टीईटी पास करना अनिवार्य कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन ने अपने फैसले में कहा, सिवाय अल्पसंख्यक स्कूलों (धार्मिक या भाषायी) के शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) सभी स्कूलों पर लागू होगा. लिहाजा सभी सेवारत शिक्षकों को नौकरी में बने रहने के लिए दो साल के भीतर टीईटी पास करनी होगी. मालूम हो कि आरटीई के प्रावधानों के तहत यह ऐक्ट सरकारी के अलावा सहायता प्राप्त और गैर सहायता प्राप्त स्कूलों पर भी लागू होता है.
कोर्ट ने थोड़ी नरमी दिखाते हुए कहा, ''हालांकि, हम जमीनी हकीकत के साथ व्यावहारिक चुनौतियों से वाकिफ हैं. ऐसे सेवारत शिक्षक हैं जो आरटीई ऐक्ट आने से बहुत पहले नौकरी मे आए. जिन्होंने दो या तीन दशकों से ज्यादा की सेवा दी और बिना किसी गंभीर शिकायत के छात्रों को अपनी क्षमता के अनुसार पढ़ा रहे हैं. ऐसा नहीं कि जिन छात्रों को गैर-टीईटी शिक्षकों ने शिक्षा दी, वे जीवन में चमक नहीं पाए.
ऐसे शिक्षकों को इस आधार पर सेवा से हटाना सख्त कदम होगा.'' शिक्षकों की मुश्किलों को ध्यान में रखते हुए कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए निर्देश दिया कि जिन शिक्षकों की आज की तारीख में पांच साल से कम की सेवा बची है, वे टीईटी पास किए बिना सेवा में बने रह सकते हैं. लेकिन प्रमोशन चाहने वाले शिक्षकों के लिए टीईटी पास करना अनिवार्य होगा. टीईटी एक कठिन परीक्षा है जिसे पास करना खासी मेहनत का काम है.
दरअसल, यह केस मुख्य रूप से अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में आरटीई लागू होने से जुड़े मद्रास हाइकोर्ट के एक फैसले का था. उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी. साथ ही रिटायरमेंट के करीब पहुंच रहे यूपी के प्राइमरी शिक्षकों के प्रमोशन का मामला भी था. इन सभी याचिकाओं को एक कर सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक नजरिया अपनाते हुए शिक्षकों के लिए क्वालिफाइंग एग्जाम यानी टीईटी की अनिवार्यता का फैसला सुना दिया. मद्रास हाइकोर्ट मान रहा था कि जो नियुक्त हैं, उन्हें टीईटी की जरूरत नहीं लेकिन प्रमोशन के लिए जरूरत है.
वहीं, तमिलनाडु सरकार कह रही थी कि टीईटी सिर्फ नियुक्ति में जरूरी है, प्रमोशन में नहीं. प्रमोशन राज्य सरकार का विषय है. वह सेवा शर्तों का हिस्सा है. उसमें एनसीईटी (नेशनल काउंसिल फॉर टीचर्स एजुकेशन) का दखल नहीं है. फिर यह मामला महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक संस्थानों में टीईटी लागू नहीं होने के केस से जुड़ गया और सभी अपीलों को मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के बाद यह फैसला सुना दिया.
इस फैसले का असर 2011 से पहले नियुक्त देशभर के 15 लाख से ज्यादा शिक्षकों पर पड़ने का अंदेशा है. यूपी और बिहार के करीब 2-2 लाख, मध्य प्रदेश के डेढ़ लाख, ओडिशा के 75,000 तथा झारखंड और गुजरात के 50,000-50,000 शिक्षक इस फैसले की जद में आ रहे हैं.
कोर्ट का मानना था कि शिक्षकों की क्वालिटी और टीचिंग स्टैंडर्ड बिला शक संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत मिले शिक्षा के अधिकार का हिस्सा हैं. अच्छी शिक्षा अच्छे ढंग से प्रशिक्षित शिक्षकों पर निर्भर है. कोर्ट ने एनसीईटी के तीन नोटिफिकेशन का जिक्र किया है. एनसीईटी एक वैधानिक निकाय है जो देशभर में शिक्षकों की शिक्षा का निर्देशन करता है. एनसीईटी ने 23 अगस्त, 2010 को नोटिफिकेशन जारी किया था जिसमें शैक्षिक योग्यता के साथ कक्षा 1 से 5 और 6 से 8 तक के शिक्षकों के लिए टीईटी को जरूरी बताया. इसमें यह छूट थी कि शिक्षक पांच साल के भीतर टीईटी कर लें. प्राइमरी और माध्यमिक कक्षाओं तक पढ़ाने के लिए शैक्षिक योग्यता ग्रेजुएशन के साथ बीएड भी है. अब टीईटी भी अनिवार्य है.
संशोधित नोटिफिकेशन 29 जुलाई, 2011 को आया. उसमें भी शिक्षकों के लिए टीईटी पास करने की बात कही गई. 17 अक्तूबर, 2017 को एक और नोटिफिकेशन आया इसमें कहा कि पांच साल की छूट जो पहले नोटिफिकेशन में दी गई थी वह 2015 में खत्म हो गई और इसे चार साल के लिए और बढ़ाया जा रहा है. 31 मार्च, 2019 को वह छूट भी खत्म हुई. मतलब यह कि आज यानी 2025 में जो टीईटी पास नहीं हैं उनका नौकरी पर कोई अधिकार नहीं रहा. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 142 का उपयोग करते हुए शिक्षकों को टीईटी योग्यता हासिल करने के लिए दो साल का और समय दिया.
लेकिन शिक्षकों को अब यह भी नाइंसाफी लगती है. उनका कहना है कि नियुक्ति के वक्त जो शर्तें थीं, उन्हीं पर रिटायरमेंट और प्रमोशन होना चाहिए. अखिल भारतीय प्राथमिक शिक्षक संघ (एआइपीटीएफ) के अध्यक्ष सुशील पांडे कहते हैं, ''वैसे तो टीईटी करने को सभी शिक्षक स्वतंत्र हैं. हमने वकील से राय ली है. संगठन मुकदमेबाजी में जाने की बजाय सरकार से राहत दिलाने की मांग करेगा. हम विधायकों, सांसदों, मंत्रियों को ज्ञापन देंगे. जिला, प्रदेश और फिर देशव्यापी स्तर पर आंदोलन करेंगे.''
शिक्षकों का कहना है कि केंद्र सरकार नियमों में संशोधन और राज्य सरकारें कोर्ट में अपील कर सकती हैं. पांडे कहते हैं, ''प्रमोशन के लिए टीईटी पास करना पड़ेगा. अगर कोर्ट अवधि बढ़ा दे तो पुराने अध्यापक रिटायर हो जाएंगे और टीईटी वाले प्रमोट हो जाएंगे. सरकार को अध्यापकों में भेद नहीं करना चाहिए, सरकार कोई ट्रेनिंग करा दे, इसके लिए हम तैयार हैं. ऐसे भी लोग हैं जो टीईटी पास कर लेंगे लेकिन जिस योग्यता पर नौकरी मिली उसी योग्यता पर प्रमोशन होना चाहिए. नियुक्ति के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए.''
शिक्षकों का आरोप है कि सरकार (केंद्र और राज्य दोनों) ने उनके बीच इस बात को ठीक से नहीं पहुंचाया कि टीईटी के बगैर प्रमोशन नहीं होगा. एआइपीटीएफ के बिहार के उप महासचिव मनोज कुमार कहते हैं, ''बिहार में शिक्षकों के लिए प्रोन्नति नियमावली 2018 में आई जो आरटीई आने के बाद लाई गई लेकिन कहीं भी टीईटी परीक्षा की अनिवार्यता का जिक्र नहीं है. राज्य में ऐसे बहुत-से शिक्षक हैं जो सेवाकालीन प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए हैं. वे टीईटी की परीक्षा देने की योग्यता नहीं रखते. साथ ही उनकी उम्र भी निकल गई है.''
2015 में और फिर 2017 में जब शासनादेश आया कि शिक्षकों के लिए टीईटी जरूरी है तो शिक्षकों ने इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया? यह पूछने पर मनोज कुमार कहते हैं कि सरकार ने सेवारत शिक्षकों को सीधे कोई नोटिस नहीं दिया कि टीईटी परीक्षा पास करना जरूरी है. इन शिक्षकों की सेवा शर्तें अलग थीं. शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद नियम बना कि अनट्रेंड टीचर की नियुक्ति नहीं होगी. ऑल इंडिया बीटीसी शिक्षक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिल यादव कहते हैं, ''हमारा संगठन प्रधानमंत्री को पत्र भेजकर कानून में संशोधन की मांग करेगा. हल न निकला तो अक्तूबर में धरना दिया जाएगा.''
पर कानूनी विकल्प भी हैं. एक केस में शिक्षकों की पैरवी करने वाले वकील राकेश मिश्र का कहना है, ''ऐसे कई तथ्य हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने नहीं देखा. हम कोर्ट में क्लैरिफिकेशन और मॉडीफिकेशन के साथ निर्देश देने की अर्जी डालेंगे. कुछ लोगों को न्यूनतम योग्यता में छूट दी गई है—जो लोग 3 सितंबर, 2001 से नियुक्त हुए हैं, डीएड (डिप्लोमा इन एजुकेशन), विशिष्ट बीटीसी कर चुके हैं. इसे स्पष्ट करने की गुहार लगाई जाएगी. विशिष्ट बीटीसी (बेसिक ट्रेनिंग सर्टिफिकेट) यानी—बीएड और छह महीने की ट्रेनिंग—को छूट मिली. विशिष्ट बीटीसी अब डी.एल.एड (डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन) हो चुका है. केंद्र सरकार ने कभी किसी को टीईटी से छूट नहीं दी. बीएड वालों को टीईटी करना है या नहीं, यह स्पष्ट होना चाहिए.'' वे कोर्ट से टीईटी पास करने की अवधि को पांच साल करने की मांग करेंगे.
जाहिर है, पांच साल की छूट मिलेगी तो दस मौके मिल जाएंगे. यूपी में साल में दो बार टीईटी होती है. पांच साल होने से आराम से परीक्षा पास की जा सकती है. 2011 में गाइडलाइन आई थी तो उसमें साल में दो बार टीईटी कराने की बात कही गई थी.
शिक्षाविद् और पूर्व आइएएस प्रेमपाल शर्मा का कहना है, ''जो भी शिक्षक इस फैसले की जद में आ रहे हैं, उन्होंने नौकरी में एक लंबा समय पूरा कर लिया है. वे लगातार पढ़ा कर रहे हैं. उन्हें कोर्ट ने जो समयावधि दी है वह नाकाफी है. शिक्षकों को और ज्यादा समय देने के लिए सरकार को अदालत से गुहार लगानी चाहिए.''
वैसे सरकार के पास भी कई विकल्प हैं. वह अपनी तरफ से भी लोगों को राहत दे सकती है; टीईटी पास करने के लिए कोचिंग करा सकती है; समयावधि बढ़वा सकती है लेकिन कोर्ट के आदेश की अवहेलना नहीं होनी चाहिए.
चूंकि आदेश पूरे देश पर लागू है इसलिए राज्य सरकारें भी हरकत में आ गई हैं. उत्तराखंड सरकार ने जिला शिक्षा अधिकारियों से टीईटी किए और न किए शिक्षकों का ब्योरा मांगा है. तमिलनाडु का स्कूल एजुकेशन विभाग दो साल में छह टीईटी परीक्षाएं कराने पर विचार कर रहा है ताकि टीईटी की अनिवार्यता से निबटा जा सके. वह शिक्षकों के लिए स्पेशल टीईटी कराने की संभावनाएं टटोल रहा है. केरल के शिक्षा मंत्री ने भी फैसले को चुनौती देने की बात कही है. केरल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का असर 50,000 शिक्षकों पर पड़ने की संभावना है.
वैसे कुछ शिक्षक नेता कह रहे हैं कि अगर परीक्षा हुई तो सत्तर फीसद शिक्षक फॉर्म जरूर भरेंगे फिर चाहे परीक्षा में बैठें या न बैठें. वैसे, अशर्फाबाद, नारायणपुर के स्कूल में तैनान आकाश उपाध्याय 1999 से नौकरी कर रहे हैं और वे 13 विषयों में एमए कर चुके हैं. उनके लिए टीईटी परीक्षा खास कठिन नहीं होगी. लेकिन शिक्षकों का कहना है कि बात परीक्षा पास करने की नहीं. यह सरकारों की कमजोरी रही है कि लगभग हरेक परीक्षा में अभ्यर्थियों को न्यायालय जाना पड़ता है.
क्या है सुप्रीम कोर्ट का आदेश
1 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला दिया. इसमें उसने शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से पूर्व यानी 2011 से पहले भर्ती सरकारी स्कूलों के कक्षा 1 से 8 तक के शिक्षकों के लिए दो साल में टीईटी परीक्षा पास करना अनिवार्य कर दिया. पास न करने वालों की नौकरी जाएगी. प्रमोशन के आकांक्षियों को भी यह नदी पार करनी होगी.
क्या है टीईटी
टीचर्स एलिजिबिलिटी टेस्ट (टीईटी) यानी शिक्षक अर्हता परीक्षा 2011 में लागू शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून के तहत की गई एक व्यवस्था है. जिसमें कक्षा 1 से 5 और 5 से 8 तक के बच्चों को पढ़ाने के लिए बुनियादी शैक्षिक योग्यताओं के अलावा टीईटी परीक्षा पास करनी होगी. यह परीक्षा राज्य सरकारें और केंद्र सरकार लेती है. केंद्र की टीईटी को सीटेट कहते हैं. सेंट्रल स्कूल, नवोदय विद्यालय, कैंट स्कूल, रेलवे स्कूल में शिक्षक की नौकरी के लिए इसे क्वालिफाइ करना अनिवार्य है.
शिक्षकों की दलील
नियुक्ति के समय टीईटी जैसी कोई शर्त न थी. अब नौकरी और प्रमोशन के लिए बीच में नई शर्तें लगाना अनुचित है. शिक्षकों के लिए फुलटाइम नौकरी करने के बाद टीईटी की तैयारी करना बहुत मुश्किल है. टीईटी की परीक्षा कठिन होती है.
कैसे मिलेगी राहत
शिक्षकों के वकील कह रहे हैं कि वे अदालत में रिव्यू पीटिशन दाखिल करेंगे साथ ही अदालत से दो साल की समयावधि को पांच साल करने की मांग करेंगे. इसके अलावा राज्य सरकारें भी चाहें तो प्रभावित शिक्षकों के लिए विशेष टीईटी परीक्षा करवा सकती हैं. वे शिक्षकों को टीईटी की कोचिंग करा सकती हैं.
पर अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान आरटीई से अलग क्यों
मजे की बात है कि सुप्रीम कोर्ट में मुख्य मामला अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में नियुक्त शिक्षकों के टीईटी पास करने की अनिवार्यता को लेकर ही था. महाराष्ट्र और तमिलनाडु से यह मुद्दा उठाने वाली याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट आई थीं. लेकिन इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अभी कोई व्यवस्था नहीं दी है. कोर्ट ने इस पर विचार के लिए मामला बड़ी पीठ को भेजने की पेशकश की है. वजह? 2014 में मैसूरू (कर्नाटक) के प्रमति एजुकेशनल ऐंड कल्चरल ट्रस्ट के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ का एक फैसला है जिसमें अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई कानून के दायरे से बाहर बताया गया है.
ताजा फैसले मे दो न्यायाधीशों की पीठ ने प्रमति मामले में आए पूर्व के फैसले पर सवाल उठाया है और अल्पसंख्यक संस्थानों के मामले में पुनर्विचार की जरूरत बताई है. कोर्ट ने बड़ी पीठ के विचार के लिए कानूनी सवाल तय करते हुए मामले को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के सामने पेश करने का आदेश दिया है ताकि वे मामले पर विचार के लिए उचित पीठ का गठन करें. सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक, इस पर 16 सितंबर को सुनवाई हो सकती है.
अल्पसंख्यक संस्थानों में आरटीई कानून के मुद्दे पर चर्चा के दौरान ताजा फैसले में कोर्ट ने नेशनल कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) या राष्ट्रीय बाल आयोग की एक रिपोर्ट का भी जिक्र किया है. एनसीपीसीआर ने 2021 के अपने एक अध्ययन में बताया कि अल्पसंख्यक स्कूलों में महज 8.76 प्रतिशत विद्यार्थी सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तबके से आते हैं.
इतना कम प्रतिनिधित्व यह बताता है कि ये वंचित लोग किस तरह सिस्टमेटिक ढंग से अलग-थलग किए जा रहे हैं. एनसीपीसीआर का अध्ययन बताता है कि माइनॉरिटी स्कूलों में 62.5 प्रतिशत बच्चे गैर अल्पसंख्यक समुदायों से आते हैं. आंध्र प्रदेश, झारखंड, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों में तो यह प्रतिशत और भी ज्यादा है. इससे पता चलता है कि माइनॉरिटी दर्जे वाले बहुत सारे संस्थान अपने समुदाय की सेवा करने की बजाए इस दर्जे से मिली छूट का फायदा ले रहे हैं.
शिक्षाविद् प्रेमपाल शर्मा का कहना है कि भले ही मामले को रिव्यू के लिए बड़ी बेंच को दिया जा रहा हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी जजमेंट में बार-बार कई जजमेंट और मजबूत तर्कों के साथ दोहराया है कि आरटीई ऐक्ट के अनुसार 25 फीसद गरीब बच्चों को दाखिला देने से उनके अल्पसंख्यक स्वरूप का उल्लंघन नहीं होता. अपनी ही कम्युनिटी के गरीब बच्चों के हित में वे ऐसा कर सकते हैं. शिक्षा अधिनियम को व्यापक रूप में इसी नजरिए से प्रभावी बनाया जा सकता है. बड़ी बेंच से इस ऐक्ट को अल्पसंख्यक संस्थानों में गरीब बच्चों के हित में लागू करने की अपेक्षा है.