मोदी, पुतिन और जिनपिंग की मुलाकात से क्या कोई निर्णायक सफलता हाथ लगी?

चीन में मोदी, पुतिन और जिनपिंग की मुलाकात ने पश्चिम में भले ही भूचाल ला दिया हो पर इससे फिलहाल संबंधों में सुधार की उम्मीद करना बेमानी है

पीएम मोदी, पुतिन और जिनपिंग  (File Photo: AP)
पीएम मोदी, पुतिन और जिनपिंग (File Photo: AP)

चीन के तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के हालिया शिखर सम्मेलन का एक दृश्य खासा वायरल रहा. इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग बेहद सुकून के साथ गपशप करते दिखाई दे रहे हैं. कुछ लोगों ने इसे एक उभरते रणनीतिक पुनर्गठन के संकेत के तौर पर देखा जो भारत-रूस-चीन को करीब ला रहा है.

एससीओ शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए सात साल बाद चीन जाने का मोदी का फैसला और रूस-चीन के शीर्ष नेताओं से द्विपक्षीय मुलाकातें भू-राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में भारत की विदेश नीति में चल रहे बदलावों को दर्शाती हैं. लेकिन अमेरिका के साथ मौजूदा तनाव से निबटने के लिए भारत और चीन—चाहे द्विपक्षीय स्तर पर या रूस के साथ मिलकर—कोई साझा मोर्चा बनाएंगे, इसे भारत की कूटनीति की गलत व्याख्या ही कहा जाएगा. चीन और रूस के साथ भारत के संबंध मुख्यत: द्विपक्षीय मुद्दों पर ही केंद्रित रहेंगे, हालांकि वे वैश्विक परिदृश्य के दबावों और खींचतान से प्रभावित भी होंगे.

मोदी की मौजूदगी एक ऐसे मंच के साथ व्यावहारिक जुड़ाव का प्रतीक थी जो नई दिल्ली की रणनीतिक स्वायत्तता संतुलित करता है. इसमें कोई दो-राय नहीं कि तियानजिन ने चीन को अपनी संयोजकीय शक्ति दिखाने का मंच दिया, जहां 20 देशों के नेताओं की मौजूदगी में, वह खुद को स्थिर और अमेरिकी नेतृत्व वाली संस्थाओं के विकल्प के तौर पर पेश कर सके. यहां भारत ने किसी खेमे में खड़े होने की बजाए खुद को ब्रिज बिल्डर के तौर पर स्थापित किया. भारत एससीओ के निष्कर्ष वाले दस्तावेजों में पहलगाम आतंकी हमले की निंदा करवाने में कामयाब रहा पर उसके साथ ही पाकिस्तान में हुई हिंसक घटनाओं पर भी लगभग वैसी ही भाषा इस्तेमाल की गई ताकि संतुलन बना रहे.

जिनपिंग-मोदी की मुलाकात ने द्विपक्षीय संबंध बहाल करने की उस प्रक्रिया को फिर से मजबूत किया है, जिसकी शुरुआत पिछले अक्तूबर में कजान में हुई दोनों नेताओं की मुलाकात के साथ शुरू हुई थी. भारत ने साफ संकेत दिए कि चीन के प्रति उसका यह रुख अमेरिका के साथ मौजूदा तनाव की त्वरित प्रतिक्रिया नहीं है. मोदी ने चीनी नेता से कहा कि द्विपक्षीय संबंधों को ''किसी तीसरे देश के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए.'' चीन की नजर में भारत संवेदनशील दौर से गुजर रहा है और इसका इस्तेमाल वह ताइवान जैसे मुद्दों पर अपने रुख में नरमी लाकर और अमेरिका की 'एकतरफा दादागीरी' के खिलाफ साझा मोर्चा बनाकर करना चाहेगा लेकिन भारत ने ऐसे दबाव को दरकिनार कर दिया है.

कजान के बाद से ध्यान लोगों से जुड़ी संपर्क बहाली पर रहा है, जिसमें आर्थिक सहयोग भी शामिल है. लेकिन भारत और चीन को 'प्रतिद्वंद्वी नहीं, विकास के साझेदार' मानने वाली अवधारणा को फिर से मजबूती उस समय असहज लगती है जब दोनों के रणनीतिक दृष्टिकोण अलग हों और चीन उभरती शक्ति के बजाए सामरिक दिखावे तक सीमित करने का रवैया अपनाए. जैसे, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जिस तरह चीन ने पाकिस्तान की मदद की, अगर भारत वैसा करता तो चीन शायद ही उसे स्वीकार करता.

सीमा के मुद्दे पर दोनों देशों के मतभेद यहां भी नजर आए. मोदी ने 'द्विपक्षीय संबंधों के विकास के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और सौहार्द के महत्व' को रेखांकित किया पर शी ने कहा कि दोनों देशों को ''संपूर्ण चीन-भारत संबंधों को सीमा मुद्दे से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए.'' भारत ने सीमा वार्ता में पहले खारिज किए गए 'अर्ली हारवेस्ट' प्रस्ताव पर फिर से सहमति जताई है. लेकिन भारतीय वार्ताकारों को बनावटी प्रगति दिखाने के झांसे में न आकर ठोस नतीजों पर ध्यान देना होगा. तनाव घटाने की वार्ता में भौगोलिक स्थिति, सीमावर्ती बुनियादी ढांचे और सैनिकों की तैनाती में लगने वाले समय जैसी कमजोरियों को ध्यान में रखना होगा. रूस के साथ तियानजिन में हुई बातचीत ने स्पष्ट संकेत दिया कि पश्चिमी दबावों के बावजूद द्विपक्षीय रणनीतिक संबंधों या रक्षा और ऊर्जा क्षेत्रों में खरीद पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

तियानजिन के दृश्यों और संकेतों की गूंज अमेरिका और पश्चिम में सुनी गई और एससीओ को पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती के तौर पर देखा गया. लेकिन हकीकत इससे बहुत सामान्य है और यह न तो मल्टीपोलर होने के बड़े बदलाव का संकेत देती है, और न ही 'रिवर्स निक्सन' की उस रणनीति का जहां गैर-पश्चिमी ताकतें एकजुट होती हैं. कुल मिलाकर चीन के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में कुछ तेजी जरूर दिखी पर कोई निर्णायक सफलता हाथ नहीं लगी. 

- अशोक के. कांत, (लेखक चीन में भारत के राजदूत रह चुके हैं.)

 

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