प्रधान संपादक की कलम से
देश जिन आर्थिक और भू-राजनीतिक चुनौतियों से इस वक्त जूझ रहा है, उसे देखते हुए यही सबसे सही समय है कि मोदी अगली पीढ़ी के उन सुधारों को आगे बढ़ाएं जिनकी देश को सख्त जरूरत है

- अरुण पुरी
जनता का मूड भांपना आज जैसे मुश्किल दौर में वाकई दिलचस्प काम है. भू-राजनीति से लेकर राष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था तक, भारत के समग्र जीवन का हर पहलू अब एक-दूसरे से टकराता दिख रहा है. हर जगह एक ऐसा संकट महसूस हो रहा है, जो हमारे पिछले देश का मिज़ाज जनमत सर्वेक्षण (फरवरी) में नहीं था.
तब से अब तक हमने पाकिस्तान के साथ चार दिन की जंग देखी, एक हैरान करने वाला डिप्लोमैटिक झटका झेला जिसके तहत इस हफ्ते से अमेरिका की 50 फीसद टैरिफ दर लागू हो रही है. इसके अलावा मतदाता सूची को लेकर विपक्ष के जोरदार अभियान ने सियासी माहौल को और गरमा दिया है. सीधे शब्दों में कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विशाल कद अब सख्त परीक्षा से गुजर रहा है. लेकिन उनकी खासियत यह रही है कि हर बार मुश्किलें उन्हें और ताकतवर बनाती आई हैं.
क्रिकेट की भाषा में कहें तो मोदी सिर्फ फ्लैट-पिच के धुआंधार बल्लेबाज नहीं बल्कि मुश्किल हालात में भी टिककर खेल सकते हैं और स्कोरबोर्ड पर पकड़ बनाए रखते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर 11 साल में बार-बार यह साबित किया है. आंकड़े भी उनकी इसी मजबूती को दिखाते हैं. इस बार 58 फीसद लोगों ने मोदी के कामकाज को 'अच्छा' से लेकर 'शानदार' बताया है, हालांकि यह फरवरी से 3.84 फीसद की हल्की गिरावट है. उन्हें अगले प्रधानमंत्री के तौर पर भी 51.5 फीसद लोगों का समर्थन मिला है. उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी की रेटिंग अब भी 24.7 फीसद पर ही टिकी है. ये नतीजे साफ बताते हैं कि लोगों को अब भी प्रधानमंत्री पर जबरदस्त भरोसा है और वे मुश्किल वक्त में देश को आगे ले जाने में सबसे सक्षम नेता माने जाते हैं.
सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास राहत की वजह है. अगर लोकसभा चुनाव अभी हों तो देश का मिज़ाज सर्वे उसके खाते में 324 सीटें देता है. मतलब फरवरी के मुकाबले 19 सीटें कम लेकिन फिर भी साधारण बहुमत से 52 सीटें ज्यादा और 2024 की गर्मियों में मिली 293 सीटों से बेहतर स्थिति. उसका अनुमानित वोट शेयर 46.7 फीसद है, जो 2024 के चुनाव से चार फीसद ज्यादा है. इसी तरह 52.4 फीसद लोग कहते हैं कि वे एनडीए के कामकाज से 'संतुष्ट' या 'बहुत संतुष्ट' हैं.
हालांकि यह फरवरी से 10 अंक की गिरावट है, इसलिए कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर यह 'आरामदायक लेकिन थोड़ा चौकन्ना रहने' वाली स्थिति है. यही तस्वीर भाजपा पर भी लागू होती है. भाजपा का अपना वोट शेयर 40.6 फीसद पर स्थिर है लेकिन सीटें अब फरवरी की 281 से घटकर 260 रह गई हैं. यह साधारण बहुमत से 12 सीट कम है, फिर भी 2024 के लोकसभा चुनाव की 240 सीटों के मुकाबले सुधार है.
पर थोड़ा ठहरिए. पिछले साल हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनावी जीत से भाजपा को जो उत्साह मिला था, वह अब कुछ फीका पड़ा है. विपक्ष ने थोड़ा आधार जरूर बनाया है लेकिन अब भी निर्णायक ताकत से दूर है. सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस को मिला है, 47 फीसद लोग विपक्षी दल के तौर पर उसके कामकाज को 'शानदार' या 'अच्छा' मानते हैं. फरवरी में यह आंकड़ा सिर्फ 40 फीसद था.
यहां एक्स-फैक्टर राहुल गांधी हैं, जो 28.2 फीसद के साथ विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए सबसे पसंदीदा चेहरा बनकर उभरे हैं. दूसरे भाजपा विरोधी नेता भी फिलहाल उन्हें स्पेस देने में सहज दिख रहे हैं. राहुल ने 'वोट चोरी' के आरोप को संसद से लेकर बिहार की धूल भरी पगडंडियों तक और ज्यादा जोर से उठाया है. हमारे लगभग एक-तिहाई उत्तरदाता मानते हैं कि उनकी बातों में दम है.
लगता है कि राहुल गांधी उस वक्त ज्यादा असर डालते हैं जब वे भाजपा पर नीतिगत मुद्दों पर हमला करते हैं, न कि जब व्यक्तिगत हमले कर रहे होते हैं, खासतौर से पीएम मोदी पर. लेकिन नैरेटिव की लड़ाई से हटकर देखें तो दोनों पक्षों के बीच असली फर्क अब भी संगठनात्मक मशीनरी की ताकत का है.
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर तस्वीर और धुंधली नजर आती है. मोदी सरकार के इसे अच्छे से संभालने को मंजूरी देने वालों की संख्या फरवरी से 4.5 अंक घटकर 47.8 फीसद रह गई है जबकि नापसंद करने वालों की हिस्सेदारी बढ़कर 30 फीसद हो गई है. मायूसी बढ़ रही है: 55 फीसद लोगों को लगता है कि अगले छह महीने में अर्थव्यवस्था या तो ठप हो जाएगी या बिगड़ेगी.
आधे उत्तरदाता कहते हैं कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना बस एक दिखावटी उपलब्धि है, जिसका आम लोगों को खास फायदा नहीं, असली प्रगति का पैमाना नहीं. और भी चिंता की बात, 33.7 फीसद लोगों का मानना है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद से उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ी है. यह फरवरी के 30.9 फीसद से ज्यादा है. यह धारणा भी मजबूत बनी हुई है कि भारत की ग्रोथ बड़े उद्योगपतियों को ही फायदा पहुंचा रही है. 55.8 फीसद लोगों को लगता है कि मोदी सरकार सिर्फ बड़े बिजनेस को तरजीह देती है. वहीं 46.2 फीसद का मानना है कि सरकार ने छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप्स को पर्याप्त सहारा नहीं दिया.
सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में और भी कई संकेत हैं जिन पर मोदी सरकार को ध्यान देना चाहिए. चिंताजनक रूप से बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है. मोदी की भ्रष्टाचार विरोधी बयानबाजी और केंद्रीय जांच एजेंसियों के राजनैतिक इस्तेमाल को लेकर भी अब कम लोग आश्वस्त दिखते हैं. राज्यपालों को भी बढ़ते हुए पक्षपाती किरदार के रूप में देखा जा रहा है. इन सबमें सबसे अहम आर्थिक रेटिंग्स हैं, जहां मोदी सरकार की छवि पर सीधा असर पड़ रहा है. ये असंतोष के साफ संकेत हैं, जिन्हें ट्रंप का टैरिफ झटका और बढ़ा देगा.
लेकिन इन तमाम चिंताओं के बीच भी मोदी के नेतृत्व की धारणा जस की तस बनी हुई है. यही सबसे चौंकाने वाला विरोधाभास है और मोदी को एक दुर्लभ राजनैतिक बढ़त देता है. राजनैतिक समीकरण उनके पक्ष में है. देश जिन आर्थिक और भू-राजनीतिक चुनौतियों से इस वक्त जूझ रहा है, उसे देखते हुए यही सबसे सही समय है कि मोदी अगली पीढ़ी के उन सुधारों को आगे बढ़ाएं जिनकी देश को सख्त जरूरत है. ताजा इतिहास बताता है कि भारत अक्सर संकट की घड़ी में ही सबसे असरदार ढंग से काम करता है.