कोरोना की आफत से उबरकर कैसे जमाया लाखों का कारोबार?
पांच वर्षों में कोविड जैसी कई चुनौतियों से उबरकर फीनिक्स इंडस्ट्रीज की आज दो यूनिट जो पैकेजिंग सॉल्यूशन तैयार कर रहीं

महाराष्ट्र के जालना जिले में किसान परिवार में जन्मे संदीप दभाडे का बचपन तंगी में बीता. उनके पिता की सालाना कमाई मुश्किल से एक से डेढ़ लाख रुपए होती थी. आर्थिक परेशानियों के बावजूद संदीप की जिंदगी में संगीत गहराई से जुड़ा रहा. उनके पिता बाबूराव दभाडे एक सम्मानित कीर्तनकार और बेहतरीन तबलावादक थे.
उन्होंने ही बेटे में सुर और ताल के लिए प्यार जगाया. बारहवीं की पढ़ाई बदनापुर गांव से पूरी करने के बाद संदीप पुणे चले गए. इकोनॉमिक्स में बीए किया और साथ ही म्यूजिक में डिप्लोमा और बाद में म्यूजिक में ही एमए किया.
उन दिनों दभाडे की जिंदगी में म्यूजिक का बड़ा रोल था क्योंकि ऐसे ही पार्ट टाइम जॉब से उनकी पढ़ाई चलती थी. उन्होंने महाराष्ट्र के कई शहरों में परफॉर्म किया. खासकर पुणे के एक सांस्कृतिक प्रोग्राम की रात जब वे स्टेज पर पालथी मारकर बैठे थे और तबले पर संगत कर रहे थे, पूरा हॉल उनकी थाप पर झूम रहा था. शहर-शहर घूमकर उन्हें एक शो के 2,000-3,000 रुपए मिलते थे लेकिन जिंदगी आसान न थी. उन्हीं के शब्दों में, ''ऐसे भी दिन आए जब दोनों वक्त का खाना मिल जाना बड़ी चीज लगती थी. कई बार तो बस पाव और चटनी खाकर गुजारा करना पड़ा.''
दभाडे अब बहुत आगे निकल चुके हैं. यह सफर 2013 में शुरू हुआ जब उन्होंने छत्रपति संभाजीनगर (पहले औरंगाबाद) के वालुज एमआइडीसी इंडस्ट्रियल जोन की एक पैकेजिंग कंपनी में काम शुरू किया. कुछ ही समय में वे ऑपरेशन्स, मार्केटिंग, अकाउंट्स और लॉजिस्टिक्स सब संभालने लगे. जनवरी, 2019 में अपनी बचत और परिवार के गहने गिरवी रखकर जुटाए पैसों से संदीप ने 3,500 वर्ग फुट के किराए की जगह में ईको पैक इंडस्ट्रीज की शुरुआत की. शुरू में उन्होंने पैकेजिंग मटीरियल की ट्रेडिंग की और फिर सेकंड-हैंड मशीन लेकर मैन्युफैक्चरिंग शुरू कर दी. कैश फ्लो की दिक्कतें और बढ़ते कर्ज के बावजूद दभाडे ने बीवाइएसटी (बिजनेस ऐंड यूथ स्टार्टिंग टुगेदर) नाम के नॉन-प्रॉफिट बिजनेस मेंटरिंग प्रोग्राम से 11 लाख रुपए का वर्किंग कैपिटल लोन हासिल किया.
संयोग देखिए कि कर्ज चुकाने के सिर्फ एक हफ्ते बाद ही देश में कोविड की वजह से लॉकडाउन लग गया पर दभाडे ने काम जारी रखा. ऑर्डर कम हो गए थे लेकिन अपने मेंटॉर मिलिंद पोहनेरकर की सलाह पर उन्होंने पांच लोगों की टीम को बनाए रखा, समय पर सैलरी दी और बाकी खर्च खुद उठाए. कोविड के बाद समय अच्छा आया और आखिरकार उन्हें हिंदुस्तान यूनीलीवर के सप्लायर फूड ऐंड इन्स लिमिटेड जैसा बड़ा क्लाइंट मिल गया. इसी दौरान उन्होंने अपनी यूनिट में गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) लागू की, आइएसओ सर्टिफिकेशन लिया और व्यवस्थित तरीके से योजना बनाई.
ईको पैक का नाम बदलकर अब फीनिक्स इंडस्ट्रीज रख दिया गया है. 2024-25 तक आते-आते यह दो यूनिट तक बढ़ चुकी थी और करीब 50 लोगों को नौकरी दे रही थी, जिनमें से लगभग आधी महिलाएं थीं. यहां 10 मशीनें दो-दो शिफ्ट में 12-12 घंटे चलती हैं और पुणे, चाकण, सोलापुर, नासिक, नांदेड और वालुज के क्लाइंट्स को सर्विस देती हैं. फीनिक्स पैकेजिंग ने अब फार्मा, फूड, इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटो सेक्टर में भी अपनी जगह बना ली है.
2024 में उन्होंने अपनी जड़ों की तरफ लौटने का विचार किया और अपने फार्म पर केमिकल फ्री गुड़ बनाने का नया काम शुरू किया. अब यहां रोजाना 500 किलो तक गुड़ तैयार हो रहा है. एक अमेरिकी बिजनेसमैन की दिलचस्पी के बाद दभाडे ने प्रोडक्ट को एक्सपोर्ट स्टैंडर्ड तक पहुंचाने का काम भी शुरू कर दिया है. उनका ड्रीम प्रोजेक्ट जालना को एक ऐसा एग्रो-प्रोसेसिंग हब बनाना है जहां किसानों को खेती से लेकर मार्केट तक की पूरी सुविधा मिले. वे चाहते हैं कि किसानों के एग्री प्रोड्यूस की न सिर्फ शेल्फ लाइफ बढ़े बल्कि बेहतर बाजार तक उनकी पहुंच भी हो.
- इसरार चिश्ती