प्रधान संपादक की कलम से
इनकी कहानियां उम्मीद से भरी हुई हैं. इस अंक में शामिल हर उद्योग यह दिखाता है कि कैसे जमीनी स्तर की समझदारी भारत की आर्थिक पिरामिड की नींव पर असर और मुनाफा दोनों पैदा कर रही है

- अरुण पुरी
भारत ने 1947 में राजनैतिक आजादी हासिल की लेकिन आर्थिक आजादी यानी आम लोगों की समृद्धि अब भी अधूरी है. अर्थव्यवस्था में असली रफ्तार बड़ी कंपनियों से ज्यादा उन 6.67 करोड़ सूक्ष्म उद्यमों (माइक्रो एंटरप्राइजेज) से आएगी जो पूरे देश में फैले हुए हैं. ये 22.2 करोड़ लोगों को रोजगार देते हैं, यानी भारत की 56.5 करोड़ की वर्कफोर्स का 39 फीसद.
यह इन्हें कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता बनाता है, जिसमें 25.4 करोड़ या 45 फीसद लोग काम करते हैं. लिहाजा, ये अनसुनी और कम आंकी गई इकाइयां भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं. आजादी की 78वीं सालगिरह पर हम इसी अहम उद्यमिता के दायरे पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. ये न तो बीएसई100 और न ही निफ्टी 50 कंपनियों में शुमार हैं.
ये 25 अद्भुत उद्यमी हैं. यह अनोखा और रचनात्मक समूह है, जो उन लाखों अनसुने उद्यमियों का प्रतिनिधित्व करता है और हमें छोटे आर्थिक ढांचे में छिपे बड़े बदलाव की उम्मीद दिखाता है.
इनकी कहानियां उम्मीद से भरी हुई हैं. इस अंक में शामिल हर उद्योग यह दिखाता है कि कैसे जमीनी स्तर की समझदारी भारत की आर्थिक पिरामिड की नींव पर असर और मुनाफा दोनों पैदा कर रही है. जैसे गजानन भालेराव, घूम-घूमकर मधुमक्खी पालने वाले, जो अपने शौक का पीछा करते हुए 80,000 से ज्यादा खेतों को नई जान दे रहे हैं, उन्हें पारिस्थितिक रूप से स्वस्थ बना रहे हैं. या फिर दिल्ली के मोहम्मद सुहैल कारखानों से निकलने वाले प्लास्टिक कचरे को ऐसे उत्पादों में तब्दील कर रहे हैं, जिन्हें बार-बार इस्तेमाल किया जा सकता है.
इस तरह वे कार्बन उत्सर्जन कम करने के साथ कमाई भी कर रहे हैं. गुजरात के अर्जित सोनी नौ करोड़ रुपए का साइकिल रेंटल बिजनेस चला रहे हैं, जो भारत की चरमराती पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था के लिए एक खाका तैयार कर रहा है. उत्तर प्रदेश में बस्ती के सुजीत कुमार चौधरी पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और अमेरिका में काम कर रहे थे लेकिन बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहने के लिए लखनऊ आ गए और पड़ोस के जिले रायबरेली में समुद्री झींगा मछली का पालन शुरू कर दिया. वैज्ञानिक ढंग से मछलीपालन का उनका तरीका अब स्थानीय लोग भी अपना रहे हैं.
इन उद्यमों में एक गहरी समानता है. ये एनजीओ नहीं हैं, बल्कि मुनाफा कमाने वाले बिजनेस हैं. फिर भी, लगभग सभी अपने सामाजिक और पर्यावरणीय संदर्भ से गहराई से जुड़े हैं और जिस भारत में ये काम कर रहे हैं, उसकी हकीकत को पूरी जागरूकता के साथ समझते हैं. जैसे पटना की ऋचा वात्स्यायन ने केले के तने से रेशा निकाला और फिर उससे एन्वायरनमेंट फ्रेंड्ली सैनिटरी पैड बना दिया.
वे इसकी सप्लाइ स्कूलों और सरकारी दफ्तरों में कर रही हैं और उनका कारोबार लगातार बढ़ रहा है. या फिर मेघालय के कडोंगहुलू गांव की तलाकशुदा, चार बच्चों की मां 48 साल की आयशा रिंबाई को देखिए. उनका 30 लाख रुपए का एरीवीव उद्यम स्थानीय रेशम परंपरा को जिंदा कर रहा है, डिजिटल बाजारों के दरवाजे खोल रहा है और 200 से ज्यादा महिलाओं को सम्मानजनक कमाई का साधन दे रहा है. ये आंकड़े भले छोटे लगें लेकिन इनसे आए जिंदगी में असली बदलाव अनमोल हैं.
भारत के 6.71 करोड़ एमएसएमई देश की जीडीपी में 30 फीसद, मैन्युफैक्चरिंग में 36 फीसद और एक्सपोर्ट में 45 फीसद योगदान देते हैं. इनमें माइक्रो उद्यम कुल संख्या का 99 फीसद हैं और बड़ी रोजगार क्षमता रखते हैं. लेकिन यह अहम सेक्टर पिछले कुछ बरसों में नोटबंदी से लेकर महामारी तक झटकों से बुरी तरह प्रभावित हुआ है.
इसको दोबारा मजबूत करने के लिए सरकार ने सपोर्ट मैकेनिज्म बढ़ाया है. क्रेडिट गारंटी स्कीम को अप्रैल में सुधारा गया, जिसमें टर्नओवर लिमिट दोगुनी की गई और 1 करोड़ रुपए तक का कोलैटरल-फ्री लोन उपलब्ध कराया गया. 2014 से अब तक इस स्कीम के तहत गारंटी की संख्या करीब 10 गुना बढ़ी है. साथ ही मुद्रा योजना और क्रेडिट-लिंक्ड टेक्नोलॉजी सब्सिडी जैसी योजनाएं भी पूंजी तक पहुंच आसान बना रही हैं.
इन पहलकदमियों के बावजूद उद्यमियों की पुरानी झुंझलाहट खत्म नहीं हुई है, जो उन्हें एक पुराने और जटिल सिस्टम से जूझते वक्त होती है. 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' के वादों के बावजूद, बहुत-से लोग अब भी राज्य, जिला और तालुका स्तर पर जटिल नियम-कायदों में उलझे रहते हैं. हमारी कहानियों में शामिल कई उद्यमियों ने इन मुश्किलों से लड़कर जीत हासिल की है. लेकिन अब भी सिस्टमेटिक सुधार की सख्त जरूरत है.
प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में जिन 'नेक्स्ट जेन' रिफॉर्म्स की बात की थी, उन्हें जल्द से जल्द हकीकत बनना होगा. यही एक तरीका है जिससे लाखों और लोग अपनी स्थिति बेहतर कर पाएंगे, ठीक वैसे ही जैसे ग्रीनसोल फाउंडेशन ने हमारी एक स्टोरी में किया है: वह भारत के लिए नए जूते बना रहा है ताकि देश एक उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम बढ़ा सके.