मधुमक्खी पालन के जरिए कैसे 80 हजार परिवारों की लाइफलाइन बने गजानन भालेराव?
एक जुनूनी मधुमक्खीपालक गजानन भालेराव किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल घटाने और मधुमक्खियों की आबादी बढ़ाने का संदेश दे रहे हैं

यहां लोग मधुमक्खियों की भनभनाहट सुनते ही दूर भागते हैं, वहीं गजानन भालेराव उनकी ओर दौड़ते हैं. इन नन्हें प्राणियों से उनका दोस्ताना बचपने से ही रहा है. महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के सावना गांव में बड़े होते हुए वे पेड़ों पर चढ़कर मधुमक्खी के छत्ते ढूंढ़ते और उनसे शहद निकालकर चाटते थे. मधुमक्खियां कभी डंक मार भी देतीं तो भालेराव को दर्द महसूस नहीं होता था. उनका ध्यान तो हमेशा उस कोशिश के मीठे इनाम पर टिका होता था.
यही भालेराव 16 की वय में एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम के दौरान राजस्थान के झालावाड़ और कोटा के गांवों-गलियों से गुजरते वक्त मधुमक्खी के बक्सों से रू-ब-रू न हुए होते तो वह तजुर्बा बस बचपन की याद बनकर रह जाता. वे बताते हैं, ''पहली बार जब मैंने वहां ये बक्से देखे और लोगों से इनके बारे में पूछा तब मुझे समझ आया कि खेती-बाड़ी में इस कीट की कितनी अहमियत है.’’
हालांकि मधुमक्खी पालन के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित करने में थोड़ा वक्त लगा लेकिन मधुमक्खियां उनके जेहन में तभी से अटक गई थीं. इस दौरान उन्होंने खादी और ग्रामोद्योग आयोग और पुणे के सेंट्रल बी रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में प्रशिक्षण लिया. 2007 में उन्होंने मधुमक्खी पालन का अपना व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया.
इस बात को 18 साल हो चुके. आज उनकी जीवनसंगिनी माधुरी उनकी व्यावसायिक साथी भी हैं. वे शहद निकालने, उसे प्रोसेस करने और अपने ब्रांड 'किसान मधुमक्षिका फार्म’ के नाम से बेचने का काम संभालती हैं. दोनों अपने ट्रक में एक तंबू, कुछ जरूरी बर्तन-भांडे और मधुमक्खी के 500 बक्से लेकर बदलते मौसम और फसलचक्र का पीछा करते हुए एक से दूसरे खेत की यात्रा करते रहते हैं.
बरसात में अपने इलाके नासिक की तेज बारिश से बचने के लिए मालेगांव के ज्वार-बाजरे के खेतों में डेरा डालते हैं. उसके बाद महाराष्ट्र के अनार और अमरूद के बागों में और फिर चित्तौड़गढ़ में अजवाइन के खेतों में जा पहुंचते हैं. वे सर्दियों में करौली के श्री महावीरजी से लेकर इटावा और मथुरा के सरसों के खेतों में जमते हैं.
भालेराव के शब्दों में, ''हम फसल के हिसाब से चलते हैं.’’ एक बार 30 दिन का परागण चक्र पूरा होते ही यह दंपती अपने बक्सों के साथ अगले खेत की ओर बढ़ जाता है. वे बताते हैं, ''मधुमक्खियों के परागण से खेत की पैदावार लगभग 50 फीसद तक बढ़ जाती है. वे सबसे बेहतरीन परागणकर्ता हैं और हमारी भोजन शृंखला के लिए बेहद महत्वपूर्ण.’’
मधुमक्खियां अब भालेराव के लिए ही नहीं, उन 80,000 से ज्यादा किसानों के लिए भी जीवनरेखा बन चुकी हैं, जिनके साथ उन्होंने पिछले 18 साल में काम किया है. किसानों से वे कीटनाशकों से दूर रहने की अपील करते हैं क्योंकि ये मधुमक्खियों को मार देते हैं.
उनकी माने तो ''पिछले 20 साल में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल ने मधुमक्खियों की आबादी 70 फीसद तक घटा दी है.’’ मधुमक्खियों की प्राकृतिक आबादी में गिरावट ने एपिकल्चर यानी व्यावसायिक मधुमक्खी पालन की जरूरत को बढ़ा दिया है.
भालेराव कहते हैं, ''मधुमक्खियां न रहीं तो धरती नहीं बचेगी. अगर मधुमक्खियां मर जाएं तो इंसान को भी मिटते देर न लगेगी.’’
भालेराव को एपिस मेलिफेरा मधुमक्खी की कार्य-निष्ठा भी बेहद प्रेरित करती है. वे बताते हैं, ''ये मधुमक्खियां रोज 11.53 घंटे काम में व्यस्त रहती हैं और अधिकतम 2.5 किलोमीटर तक उड़ती हैं.
वे 36 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान में जिंदा नहीं रह पातीं. हर बॉक्स में एक ही क्वीन बी रह सकती है, जिसकी उम्र यही कोई तीन साल होती है.’’ नए बॉक्स तैयार करना भी बेहद बारीक काम है. लार्वा को ध्यान से नए बॉक्स में ट्रांसप्लांट किया जाता है ताकि वह पनपे और फिर उसमें एक क्वीन बी डाली जाती है. वे गर्व से कहते हैं, ''हमने मधुमक्खी पालन से कमाए पैसों से चार बेटियों की शादी की है. अगर आप सचमुच मधुमक्खियों से प्यार करते हैं, तो यह खासा अच्छा कारोबार है.’’
मधुमक्खियों से उनका प्यार साफ दिखता है. भालेराव जब बी बॉक्स संभालते हैं तो चेहरे पर बस एक जाली होती है. वे हाथों पर लगे डंक को हंसते हुए ''काम का जोखिम’’ बताते हैं. उनके लिए भिनभिनाती मधुमक्खी खतरे की चेतावनी नहीं बल्कि संगीत है, जो उनके कानों को सुकून देता है.
गजानन भालेराव ने कहा कि मधुमक्खियां अगर न रहीं तो धरती पर जीवन ही नहीं बचेगा. उनसे अच्छा पॉलीनेटर यानी परागणकर्ता कोई नहीं. हमारी खाद्य शृंखला के लिए वे बेहद मूल्यवान हैं.