अरिंदम दासगुप्ता ने टूटे पत्तों को कैसे बनाया हजारों लोगों के रोजगार का जरिया?
पेड़ से टूटकर गिरे सुपारी के पत्तों से प्लेट-कटोरी बनाकर अरिंदम दासगुप्ता देशभर में बेचते हैं. इससे असम के करीब 500 गांवों में रोजगार पैदा होने के साथ-साथ महिलाएं सशक्त हो रही हैं

असम के दूरदराज के एक इलाके में, जहां सुपारी (तामुल) के झड़ते पत्तों की आवाज पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता था, अरिंदम दासगुप्ता ने उसमें कुछ अलग देखा. जिसे लोग कचरा समझते आ रहे थे, उन्होंने उसमें संभावना देखी. उनकी उसी नजर ने 2010 में तामुल प्लेट्स मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड को जन्म दिया.
यह सामाजिक उद्यम बड़े शहरों के बोर्डरूम में नहीं, ग्रामीण भारत के दिल में खड़ा हुआ. बस एक साधारण विचार और तीन दोस्तों का हौसला, जिन्होंने सुरक्षित भविष्य के बजाए उद्देश्य को चुना.अरिंदम का सफर जमशेदपुर से दिल्ली और फिर गुजरात के इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आणंद तक पहुंचा.
वहां उन्हें एक बड़ा विरोधाभास चुभा—सीमित प्राकृतिक संसाधनों वाला पश्चिम भारत ज्यादा समृद्ध नजर आता था जबकि ऐसे संसाधनों की बहुतायत वाला पूरब पिछड़ा हुआ था. यही सवाल उनके भीतर गूंजता रहा और आखिरकार उन्होंने बदलाव की ठानी.
वे गुवाहाटी चले आए और आंत्रप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में अफसर बन गए. 2005 में कुछ हमख्याल दोस्तों के साथ अरिंदम ने वृति नाम का एक गैर-लाभकारी संगठन शुरू किया, जिसका मकसद ग्रामीण इलाकों में टिकाऊ रोजगार पैदा करना था. लेकिन एक बड़ा विचार उनके दिमाग में कौंधा जब उन्होंने देखा कि आसपास तामुल के पत्ते बड़ी तादाद में बिखरे पड़े रहते हैं मगर उनका कोई इस्तेमाल नहीं होता. यहीं से एक नए सफर की शुरुआत हुई.
दक्षिण भारत में सुपारी के पत्तों से बनी पत्तलें मजबूत होने और सड़कर नष्ट हो जाने की खूबियों की वजह से पहले से ही लोकप्रिय थीं. लेकिन इस तरह के भरपूर कच्चे माल वाले असम में उसे प्रोसेस करने का कोई तंत्र न था. अरिंदम और उनकी टीम ने तामुल प्लेट्स से इस कमी को पूरा करने का फैसला किया. अरिंदम कहते हैं, ''सुपारी के पत्ते यूं ही गिरकर बेकार हो रहे थे. अगर हम इनमें यहीं वैल्यू-ऐड करें तो रोजगार पैदा होगा, प्लास्टिक का इस्तेमाल घटेगा और धरती को बचाया जा सकेगा.’’
स्थानीय संसाधनों के इस्तेमाल, विकेंद्रीकृत उत्पादन और सामुदायिक स्वामित्व को मिलाकर इस उद्यम का संचालन दो पूरक मॉडलों पर चलता है. पहला, तिहू में 2,000 वर्ग मीटर का केंद्रीकृत कारखाना, जहां हर महीने लाखों प्लेटें बनती हैं. दूसरा, क्लस्टर मॉडल, जिसमें असम के बक्सा, कामरूप, गोलाघाट, तामुलपुर और मेघालय के कुछ हिस्सों में 1,500 से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं अपने घरों पर मशीनें चलाती हैं.
तामुल प्लेट्स की चीफ इम्पैक्ट ऑफिसर देबलीना रे कहती हैं, ''हम ट्रेनिंग, टेक्नोलॉजी और मार्केटिंग में सहयोग देते हैं ताकि महिलाएं हर महीने 10,000 से 15,000 रुपए तक कमा सकें.’’ यह मॉडल 500 से ज्यादा गांवों में फैला हुआ है, 6,000 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहा है और 20 से ज्यादा आदिवासी समुदायों को जोड़ चुका है.
कर्मचारियों में 60 फीसद और कच्चा माल इकट्ठा करने वालों में तो 80 फीसद महिलाएं हैं. सप्लाइ चेन में दिव्यांग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. बांस की झोंपड़ी से शुरू हुआ काम अब हर महीने 10 लाख प्लेटें बनाने वाली कंपनी की शक्ल ले चुका है और वित्त वर्ष 2024-25 में तीन करोड़ रुपए का राजस्व दर्ज कर चुका है.
तामुल का मॉडल देखने में साधारण-सा लगता है लेकिन उसका असर गहरा है. सुपारी के पत्ते, जिन्हें अक्सर बेकार समझकर सड़ने को छोड़ दिया जाता था, अब इकट्ठे करके साफ किए जाते हैं और सिर्फ ताप और पानी की मदद से, बिना किसी केमिकल के, मजबूत और आकर्षक प्लेटों में बदल दिए जाते हैं.
ये प्लेटें 60-90 दिनों में अपने आप गलकर मिट्टी में मिल जाती हैं और प्लास्टिक तथा पॉलीस्टायरिन का प्राकृतिक, साफ विकल्प देती हैं. यह उद्यम अब ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, कोलंबिया, इंग्लैंड, अमेरिका और श्रीलंका को निर्यात करने लगा है. पहले इनकी कीमत प्लास्टिक की तुलना में दोगुनी होती थी पर अब थोड़ी ही ज्यादा है. सह-संस्थापक मानवेंद्र पाठक कहते हैं, ''हमारे उत्पाद सिर्फ 20-30 फीसद महंगे लेकिन धरती के लिए अनगिनत गुना बेहतर हैं.’’
तामुल प्लेट्स कचरे से रोजगार और समृद्धि पैदा करके ग्रामीण उद्यम को नई परिभाषा दे रहा है. जरूरत थी गिरे पत्तों को उठाकर शानदार सोच में ढालने की.
अरिंदम दासगुप्ता ने कहा कि सुपारी के पत्ते जैसी उपयोगी चीज जमीन पर यूं ही गिर-बिखर रही थी. इसी से हम स्थानीय स्तर पर कोई उपयोगी चीज बनाएं तो रोजगार पैदा करने के अलावा प्लास्टिक का इस्तेमाल घटा सकते हैं और धरती की रक्षा कर सकते हैं.
- पूजा महंत