महाराष्ट्र में फलते-फूलते गणेश प्रतिमा कारोबार का क्यों हो रहा विरोध?
मुंबई के आसपास फलते-फूलते गणेश प्रतिमा कारोबार को प्रदूषणकारी प्लास्टर ऑफ पेरिस के इस्तेमाल के चलते विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से करीब 60 किलोमीटर दूर हमरापुर गांव में एक छोटी-सी वर्कशॉप में नितेश दौर झक सफेद रंग की गणेश प्रतिमाओं की करीने से सजाई कतार के बीच चुपचाप खड़े हैं. ये मूर्तियां प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से बनी हैं, जो जल्दी जम जाता है और जिसमें पूरी बनावट तथा उसके बारीक ब्यौरे साफ-साफ उभर आते हैं.
दो बच्चों के पिता 35 वर्षीय नितेश बोझिल आवाज में कहते हैं, ''मैं 2005 से ये मूर्तियां बना रहा हूं. यह पेशा छोड़ दूं तो मैं आखिर करूंगा क्या? मेरे पास कोई और हुनर नहीं है.’’उनकी यह ताजा फिक्र बॉम्बे हाइकोर्ट में चल रहे एक मामले को लेकर है.
अदालत ने 30 जनवरी को अंतरिम आदेश में बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) और राज्य के दूसरे स्थानीय निकायों को माघी गणेशोत्सव (जनवरी-फरवरी) के दौरान कृत्रिम पोखरों में भी पीओपी की मूर्तियों के विसर्जन के खिलाफ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के 2020 के दिशा-निर्देशों पर सख्ती से अमल करने का निर्देश दिया.
दलील: पीओपी से जल प्रदूषण बढ़ता है और जलीय जीवों को नुक्सान होता है. नतीजा यह हुआ कि नगर निकायों और मुंबई पुलिस ने मूर्तियां बनाने की इजाजत देने से मना कर दिया. फिर, 9 जून को अदालत ने संशोधित आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि पीओपी की मूर्तियां बनाने और बिक्री की इजाजत है, बशर्ते विसर्जन प्राकृतिक जल स्रोतों में न किया जाए. उसके बाद सीपीसीबी के विशेषज्ञ पैनल ने स्पष्ट किया कि 2020 के दिशा-निर्देश दरअसल सलाह थे, बाध्यकारी नहीं.
इस आंशिक राहत से नितेश सरीखे मूर्तिकारों ने अगस्त के अंत में शुरू होने वाले मुख्य गणेशोत्सव से पहले थोड़ी चैन की सांस ली है. गणेशोत्सव महाराष्ट्र का सबसे लोकप्रिय त्योहार है. इस बीच 24 जुलाई को कुछ और स्पष्टता आई. अदालत ने 6 फुट से छोटी गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन कृत्रिम तालाबों/टैंकों में अनिवार्य किया और इससे ऊंची मूर्तियों को प्राकृतिक जल स्रोतों में विसर्जित करने की बात कही.
कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार यह पक्का करे कि स्थानीय निकाय इन संशोधित नियमों का सख्ती से पालन करें और विसर्जन के लिए पर्याप्त टैंक मुहैया कराएं. इसके अलावा पीओपी की रीसाइक्लिंग और दोबारा उपयोग तथा इसके तेजी से पर्यावरण अनुकूल निष्पादन के तरीके खोजने को राज्य सरकार दो महीने के भीतर विशेष वैज्ञानिक समिति का गठन करे. ये आदेश मार्च 2026 तक विसर्जन आधारित सभी त्योहारों पर लागू होंगे. इसी हिसाब से राज्य सरकार ने पीओपी प्रतिमाओं के विसर्जन की गाइडलाइंस जारी की हैं.
फिर भी, मामला शांत नहीं हुआ. बृहन्मुंबई सार्वजनिक गणेशोत्सव समन्वय समिति के अध्यक्ष नरेश दहीबावकर ने फौरी राहत का स्वागत किया लेकिन आगे की अनिश्चितता पर चेताया भी है. वे कहते हैं, ''यह केवल अंतरिम आदेश है. अगले साल फिर मामला कोर्ट में चला जाएगा.’’ वे मुंबई में ही 3,000 से ज्यादा गणेश मंडलों में स्थापित बड़ी मूर्तियों के विसर्जन का ''स्थायी समाधान’’ चाहते हैं. मामले में याचिकाकर्ता पर्यावरणविद् हर्षद धागे राहत को अस्थायी मान रहे हैं. वे कहते हैं कि आस्था और सस्टेनेबिलिटी में संतुलन होना चाहिए. उन्हीं के शब्दों में, ''यह लड़ाई त्योहारों के खिलाफ नहीं, प्रदूषण के खिलाफ है.’’
गढ़ में शोरगुल
मूर्ति निर्माण दशकों से रायगढ़ जिले के पेण तालुका में हमरापुर और आसपास के कलावे, जोहे, तांबडशेत और दादर सरीखे गांवों की जीवनरेखा रहा है. 2023 में इसी के लिए इस तालुके को जियोग्राफिकल आइडेंटिफिकेशन या जीआइ टैग मिला. यह महाराष्ट्र के गणेश मूर्ति उद्योग का केंद्र है. बताया जाता है कि पूरे तालुके में करीब 2,50,000 लोग 200 करोड़ रु. के इस उद्योग में काम करते हैं. ये गांव सामूहिक रूप से हर साल मिट्टी और पीओपी की लाखों मूर्तियां न सिर्फ देश में बल्कि अमेरिका तक के प्रवासी समुदायों तक भी भेजते हैं. सिर्फ मुंबई में करीब 12,000 गणपति पंडाल और करीब 2,00,000 घरों में गणपति विराजते हैं. इनमें से ज्यादातर पीओपी के और स्थानीय स्तर पर बने होते हैं.
बहुत पहले महाराष्ट्र में गणपति पूजा हर घर का निजी-सा अनुष्ठान हुआ करती थी और स्थानीय मिट्टी से बनी छोटी, हाथ से बनाई मूर्तियों की पूजा-अर्चना होती थी. लेकिन 1894 में स्वाधीनता आंदोलन के नेता बाल गंगाधर तिलक ने इस त्योहार को अंग्रेजी राज के खिलाफ एकजुटता के औजार के रूप में सार्वजनिक महोत्सव का रूप दे दिया. 1950 के दशक में मुंबई और पुणे के बीच स्थित होने के कारण पेण मूर्ति निर्माण का केंद्र बनने लगा.
इसमें अहम मोड़ आया स्थानीय मूर्तिकार एन.जी. 'राजाभाऊ’ देवधर के पीओपी से मूर्तियां बनाने के प्रयोग से. पीओपी से बनावट के बारीक ब्यौरे एकदम साफ उभरते हैं. सांस्कृतिक प्रयोगों से भी इसे बल मिला. वी. शांताराम की 1959 की फिल्म नवरंग में 11 फुट ऊंची विशालकाय गणेश प्रतिमा का उपयोग किया गया था, जो देवों की विशाल मूर्तियों के बढ़ते प्रयोग का ही संकेत थी. हल्का होने के कारण इन्हें ढालने और ढुलाई में आसानी के साथ बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव होता है. राजाभाऊ के भतीजे और चौथी पीढ़ी के मूर्तिकार श्रीकांत देवधर के मुताबिक, 1980 के दशक तक पेण में मिट्टी और पीओपी दोनों से मूर्तियां बनाने वाली 500 से ज्यादा वर्कशॉप थीं.
नब्बे के दशक में सस्ती जमीन और मजदूरी के साथ दूरदराज के गांव भी इस काम में जुट गए. हमरापुर में खारे पानी की आमद की वजह से लंबे समय से नष्ट हो रही कृषि भूमि की जगह अब चमचमाते बंगले बन गए हैं. ये मूर्ति व्यापार से आई समृद्धि के गवाह हैं. इस इलाके में कारीगरों को बचपन से ही यह शिल्प सिखाया जाता है.
जनवरी के अदालती आदेश ने पेण में भूचाल-सा ला दिया. कई वर्कशॉप में काम पूरी तरह से रोक दिया गया है. हमरापुर में लगभग 600 वर्कशॉप के प्रतिनिधि, श्री गणेश मूर्तिकार उत्कर्ष मंडल के अध्यक्ष जगदीश पाटील कहते हैं, ''हमने तीन अहम महीने खो दिए. हम आम तौर पर हर साल करीब दस लाख मूर्तियां बनाते हैं. इस बार यह संक्चया घटकर 8,00,000 पर ही अटक सकती है.’’
पीओपी बनाम क्ले की बहस
अर्थशास्त्र तो बेरहम ही होता है. अधिकांश निर्माता कच्चा माल खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं क्योंकि थोक खरीदार त्योहार के बाद भुगतान करते हैं जबकि पीओपी, रंग-रोगन और कॉयर आपूर्ति करने वाले अग्रिम भुगतान पर जोर देते हैं. हमरापुर में मूर्ति निर्माता नीरज नाइक कहते हैं, ''इस साल ग्राहक कम हैं. भ्रम और डर का माहौल है.’’ बगल की वर्कशॉप में मूर्तिकार कुणाल पाटील एक आधी-अधूरी मूर्ति की ओर इशारा करते हैं. वे कहते हैं, ''एक आदमी प्रति शिफ्ट पीओपी की 10 से 15 मूर्तियां बना सकता है. लेकिन मिट्टी से? शायद दो या तीन ही बना सकता है.’’
कीमत एक अहम पहलू है. मिट्टी और पीओपी की मूर्तियों की कीमतें बाजार और जगह के मुताबिक भिन्न होती हैं. मिट्टी की डेढ़ फुट की मूर्ति करीब 3,000 रुपए की है जबकि इसी साइज की पीओपी की मूर्ति 2,000 रुपए में पड़ती है.
पाटील और दूसरे लोगों का मानना है कि पीओपी की मूर्तियां न सिर्फ ज्यादा टिकाऊ और किफायती हैं, बल्कि सुंदर भी हैं. मुंबई के उपनगर डोंबिवली में हमरापुर में बनी मूर्तियों के वितरक महेंद्र कांबले कहते हैं, ''मिट्टी की मूर्तियां नाजुक होती हैं, यहां तक कि गीली माला भी उसका रंग-रूप बिगाड़ सकती है, जिसे कई लोग अशुभ मानते हैं. अगर मैं 1,000 मूर्तियां बेचता हूं, तो बमुश्किल 150 ही मिट्टी की होती हैं. यानी लोग पीओपी को अहमियत देते हैं.’’
परंपरावादी और पर्यावरणविद् इस दलील का विरोध करते हैं. मिट्टी से मूर्ति बनाने वाले मुंबई के वसंत राजे कहते हैं, ''पीओपी घुलता नहीं है और मूर्तियों के टूटे हिस्से बहकर तट पर आ जाते हैं. यह धर्म का अपमान है.’’ राजे मुंबई के गिरगांव इलाके में हर साल स्थापित होने वाले प्रतिष्ठित 20 फुट के मिट्टी के 'गिरगांवचा राजा’ की ओर इशारा करते हैं, जो इस बात का सबूत है कि आकार कोई मसला ही नहीं है.
विवाद की जड़ दरअसल पीओपी है जो कि जिप्सम को गर्म कर उसका पानी निकालकर पाउडर के रूप में बनाया जाता है. यह पाउडर पानी मिलाने पर सख्त हो जाता है. महाराष्ट्र के उत्तरी छोर से होकर बहने वाली तापी नदी पर 2023 में किए गए एक अध्ययन में पीओपी मूर्तियों के विसर्जन और जल प्रदूषण के बीच सीधा संबंध पाया गया. पेंट में सीसा और कैडमियम जैसी जहरीली धातुएं होती हैं.
पीओपी को घुलने में महीनों या कई साल लग सकते हैं, जिससे पानी का खारापन बढ़ जाता है और जल जीवन को नुक्सान पहुंचता है. वन्यजीव जीवविज्ञानी आनंद पेंढारकर कहते हैं कि यह पदार्थ मछलियों और केकड़ों के बिलों को बंद कर देता है और मैंग्रोव की जड़ों को नुक्सान पहुंचाता है. वे कहते हैं, ''इससे बॉम्बे डक, स्पंज और अन्य समुद्री जीवों के प्रजनन पर असर पड़ा है.’’ 2023 के एक अध्ययन के अनुसार, पीओपी का राज्य में सालाना इस्तेमाल 4,500 टन है और सिर्फ मुंबई में यह 675 टन है. धीरे-धीरे गोवा जैसे अन्य राज्य भी पीओपी गणेश मूर्तियों के आयात और बिक्री पर रोक लगा रहे हैं.
फिर भी संदेह बना हुआ है कि मिट्टी से बड़े पैमाने पर बनी मूर्तियां कितनी व्यावहारिक होंगी. आज पेण तालुका में बनने वाली मूर्तियों में से 20 फीसद से भी कम मिट्टी से बनी हैं. पीओपी इंडस्ट्री से जुड़े लोग कहते हैं कि सप्लाइ चेन तैयार नहीं है और न ही इसमें लगे लोग पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित हैं.
लेकिन कुछ लोग मध्यमार्ग तलाश रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद तथा पेण से पूर्व विधायक धैर्यशील पाटील कहते हैं, ''इस मुद्दे को रोजगार के नजरिए से देखा जाना चाहिए. प्रदूषण तो रासायनिक उद्योग भी फैलाते हैं. फिर भी हम उन्हें बंद करने की नहीं बल्कि नियमित-नियंत्रित करने की मांग करते हैं.’’ फिलहाल हमरापुर और आसपास के गांवों के मूर्तिकार अनिश्चितता के बीच सूखते प्लास्टर पर दिव्य आकृतियां बना रहे हैं, और उन्हें नहीं पता कि उनका भविष्य क्या आकार लेगा.