प्रधान संपादक की कलम से
भारत ने 2023 में चंद्रयान-3 की सफल मून लैंडिंग के जरिए युवाओं के मन में अंतरिक्ष को लेकर जो उत्साह जगाया. वह अब और भी बड़े सपनों की ओर बढ़ रहा है.

- अरुण पुरी
भले ही ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल विंग कमांडर राकेश शर्मा की 1984 की उपलब्धि के 41 साल बाद अंतरिक्ष में जाने वाले दूसरे भारतीय बने लेकिन अमेरिकी अंतरिक्ष उड़ान एक्सियोम मिशन 4 में सवार होकर उनकी यात्रा एक ऐतिहासिक पहल को भी चिह्नित करती है. वे अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) पर जाने वाले पहले भारतीय बन गए हैं और उन्होंने धरती की परिक्रमा कर रहे इस स्टेशन की 28,000 किमी प्रति घंटे की रफ्तार को अनुभव किया है.
लेकिन यह उपलब्धि केवल यहीं तक सीमित नहीं. माना जा रहा है कि उनकी इस उड़ान की कीमत 500 करोड़ रुपए तक हो सकती है. फिर भी आइएसएस पर शुक्ल की दो हफ्ते की नियोजित 'वर्केशन’ (काम और अवकाश) अमूल्य प्राथमिक डेटा मुहैया कराएगी क्योंकि वे गगनयान मिशन-भारत के महत्वाकांक्षी मानव अंतरिक्ष कार्यक्रम—के लिए चुने गए चार अंतरिक्ष यात्रियों में से एक हैं. वे अपनी इस आकाशगंगा यात्रा से जो अनुभव लेकर लौटेंगे, उसे भारतीय अंतरिक्ष उड़ान मैनुअल में दर्ज किया जाएगा.
उनकी उपलब्धि भविष्य के लिहाज से बेहद अहम है: यहां उठाया गया हर कदम अगली उड़ान के लिए लॉन्च पैड बनेगा. यह देश के लिए एक नई 'स्पेस ओडिसी’ की शुरुआत है, जो अब मानव अंतरिक्ष अन्वेषण के दिग्गज देशों की कतार में खड़ा हो रहा है.
अब, सबसे पहले इस उपलब्धि के असली नायक—भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो)—को सलाम. इस उत्कृष्ट संस्था ने अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम लागत पर कई अग्रणी पहलकदमियां की हैं. इसरो ने पिछले दशकों में भारत की विकास संबंधी जरूरतों के लिए लॉन्च वहिकल और सैटेलाइट्स में आत्मनिर्भरता हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया.
लेकिन अब वह अपने दायरे को वैज्ञानिक अन्वेषण की ओर बढ़ा रहा है. इसरो की आगामी योजनाओं में अगला कदम 2027 में गगनयान मिशन के तहत तीन सदस्यीय मानवयुक्त उड़ान है, जो भारत में बने रॉकेट से होगी. इससे पहले तीन मानवरहित उड़ानों के जरिए इसके लॉजिस्टिक्स और सुरक्षा मापदंडों को अंतिम रूप दिया जाएगा. मानवयुक्त उड़ान के जरिए परीक्षण, प्रयोग और अनुभव हासिल कर भविष्य के लिए तैयारियां की जाएंगी.
अंतरिक्ष में रहने वाले इंसानों को अपना शारीरिक और मानसिक वजूद 'रीबूट’ करना पड़ता है. ऑक्सीजन, दबाव और तापमान जैसी बुनियादी जरूरतों से लेकर जटिल शारीरिक क्रियाओं तक, जिंदगी के हर पहलू को नए ढंग से ढालने की जरूरत होती है. हमारा संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव), चयापचय (मेटाबोलिक) और गतिशील (मोटर) तंत्र सामान्य गुरुत्वाकर्षण के लिए बना है.
ऐसे में लगभग शून्य गुरुत्व वाले अंतरिक्ष में खुद को कैसे ढालना है, यह अंतरिक्ष जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. जैसा कि शुक्ल ने अंतरिक्ष पहुंचने के बाद कहा, यहां तक कि खाना खाने जैसी बुनियादी मानवीय क्रियाएं भी दोबारा सीखनी पड़ती हैं. सिर्फ सैद्धांतिक ज्ञान काफी नहीं होता; बिना अभ्यास के कोई तैयारी पूरी नहीं होती. 'अनुभव’ को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता. शुक्ल की साझा की गई जानकारियों की अहमियत यहीं से जाहिर हो जाती है.
गगनयान मिशन का अगला चरण और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी है. यह है भारत का खुद का अंतरिक्ष ठौर बनाने का सपना—भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (बीएएस). यह आइएसएस की तरह एक निम्न-कक्षा (लो-ऑर्बिट) वाला प्लेटफॉर्म होगा. यह काम कई चरणों में बंटा होगा और बेहद पेचीदा है. कोई अंतरिक्ष स्टेशन विभिन्न मॉड्यूल्स से मिलकर बनता है, जिन्हें बरसों में अलग-अलग भेजा जाता है और बाद में रेल के डिब्बे की तरह एक-दूसरे से जोड़ा जाता है.
आइएसएस को पूरी तरह से जोड़ने में 1998 से 2011 तक का समय लगा था. इसरो का पहला बीएएस मॉड्यूल 2028 में लॉन्च किया जाएगा, और इसका अंतिम हिस्सा 2035 तक स्थापित होगा. इस छोटे-से अंतरिक्ष प्लेटफॉर्म पर जो भी भारतीय अपना डेरा जमाएंगे, वे प्योर साइंस की दिशा में एक नई यात्रा शुरू करेंगे. वे उन्हीं प्रयोगों को आगे बढ़ाएंगे, जो वर्तमान में शुक्ल यह परीक्षण करते हुए कर रहे हैं कि माइक्रोग्रैविटी में रहना मानव शरीर को किस तरह प्रभावित करता है: जैसे मांसपेशियों की शिथिलता, हड्डियों की डेंसिटी में कमी, सहनशक्ति में बदलाव वगैरह.
भारत ने 2023 में चंद्रयान-3 की सफल मून लैंडिंग के जरिए युवाओं के मन में अंतरिक्ष को लेकर जो उत्साह जगाया. वह अब और भी बड़े सपनों की ओर बढ़ रहा है. चंद्रयान-4, जिसकी लॉचिंग 2027-28 के लिए निर्धारित है, सिर्फ चंद्रमा पर उतरने तक सीमित नहीं रहेगा, यह अंतरिक्ष यान चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों के नमूने भी वापस लाएगा, जिन पर भारतीय वैज्ञानिक शोध करेंगे. भारत अब सबसे बड़ी चुनौती के लिए भी खुद को तैयार कर रहा है.
1972 के बाद से कोई इंसान चांद पर नहीं गया है. अब नासा इस खालीपन को 2027 तक भरने की योजना बना रहा है. रूस फिर से इस दौड़ में लौट आया है और चीन भी बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा है. भारत को जो अनुभव आने वाले वर्षों में अंतरिक्ष अभियानों से मिलेगा, वह अनमोल साबित होगा क्योंकि उसका लक्ष्य है—2040 तक मानवयुक्त चंद्र अभियान को अंजाम देना.
अनुभव ही वह चीज है जो ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा इस विषय में रख रहे हैं. एक युवा पत्रकार के रूप में उन्होंने 1984 में राकेश शर्मा की ऐतिहासिक अंतरिक्ष यात्रा को इंडिया टुडे के लिए कवर किया था. इस सप्ताह वे भारत की लंबी अंतरिक्ष यात्रा—उसके अतीत और उज्ज्वल भविष्य—को एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ पेश कर रहे हैं.
हमारी ऊंची उड़ान वाली अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाएं उस समय आकार ले रही हैं जब पूरी दुनिया में अंतरिक्ष को लेकर एक नई हलचल दिख रही है. मानव बस्तियां बसाने की योजनाएं, मंगल अभियानों की तैयारी, ये सभी अब चर्चा के केंद्र में हैं. निजी निवेश अपने चरम पर है: शुक्ल की यात्रा नासा और स्पेसएक्स के संयुक्त उपक्रम का हिस्सा थी. जहां इसरो एक ऐसा सार्वजनिक उपक्रम है जो वास्तव में बेहद कुशलता से काम करता है, वहीं भारत का निजी अंतरिक्ष क्षेत्र भी अब गति पकड़ रहा है.
सौभाग्यवश, अंतरिक्ष वह क्षेत्र है जहां अंतरराष्ट्रीय सहयोग धरती की तुलना में कहीं ज्यादा दिखाई देता है. इसकी सबसे अच्छी मिसाल है आइएसएस, जो अमेरिका, रूस, यूरोप, कनाडा और जापान के बीच पांच-पक्षीय साझेदारी में संचालित होता है. आइएसएस से, जो धरती से 400 किमी ऊपर स्थित है, शुक्ल हर रोज 16 बार सूर्योदय और सूर्यास्त देख रहे हैं. भारत को ऐसे और भी कई 'सूर्योदयों’ की शुभकामनाएं.