क्या है सबवेंशन स्कीम, जिसके सहारे बैंक और बिल्डर निगल गए हजारों घर?
बिल्डर बैंकों की मदद से सबवेंशन स्कीम लेकर आए, लेकिन बाद में उन्होंने घर देने से इनकार कर दिया. इस ठगी के शिकार हजारों खरीदारों की उम्मीदें अब CBI जांच पर टिकीं हैं

खास रपटः सबवेंशन घोटाला
चालीस वर्षीय कारोबारी सुमित गुप्ता ने 2015 में गुड़गांव के नजदीक सोहना में सुपरटेक के प्रोजेक्ट हिलटाउन में 1,200 वर्ग फुट का फ्लैट 66 लाख रुपए में लोन पर खरीदा. इंडियाबुल्स हाउसिंग ने बिल्डर को पूरी रकम का भुगतान कर दिया. फ्लैट 2018 में मिलना था, फ्लैट तो नहीं मिला पर इंडियाबुल्स ने 60,000 रु. की ईएमआइ जरूर शुरू कर दी.
सुमित ने सबवेंशन स्कीम में फ्लैट खरीदा था. उन्हें 16 प्रतिशत की दर से ब्याज देना पड़ रहा है. वे 60,000 रु. ईएमआइ और 25,000 रु. घर का किराया दे रहे हैं. सुमित बताते हैं कि 2015 से 2018 तक बिल्डर ने ईएमआइ भरी. 2019 में बैंक ने ईएमआइ शुरू करने के साथ पोस्ट डेटेड चेक से भी 3 लाख रुपए निकाल लिए.
बिल्डर ने 2018 के बाद एक ईंट नहीं लगाई, उनके फ्लैट वाले टावर में 19 मंजिल का सिर्फ ढांचा खड़ा है. प्रोजेक्ट के चार टावरों का तो निर्माण तक शुरू नहीं हुआ है. सुपरटेक के पीड़ित सौ से ज्यादा खरीदार उनके साथ 3 मई को नई दिल्ली के कनाट प्लेस में विरोध प्रदर्शन के लिए पहुंचे पर पुलिस ने उन्हें उठाकर बस में ठूंसा और थोड़ी देर बाद छोड़ दिया.
यह अकेले किसी एक बिल्डर प्रोजेक्ट के खरीदारों का दर्द नहीं है. सैकड़ों खरीदार बैंकों और बिल्डरों के गिरोह के खिलाफ न्याय मांगने सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैंं. हजारों खरीदार ऐसे भी हैं जो कोर्ट तो नहीं गए लेकिन घर मिलने का इंतजार वे भी कर रहे हैं.
यह सारा खेल बिल्डरों और बैंकों की मिलीभगत से चली सबवेंशन स्कीम के नाम पर हुआ. 2013 से 2015 के बीच बिल्डरों ने सबवेंशन स्कीम के तहत नो ईएमआइ टिल पजेशन यानी 'मकान का कब्जा मिलने तक होम लोन पर कोई किस्त नहीं देनी है’ या 'तीन साल तक होम लोन की किस्त नहीं’ जैसे लोकलुभावन स्लोगन देकर खरीदारों को आकर्षित किया.
बैंक को लोन देना था और बिल्डर को मकान बेचना था. तीसरा पक्ष था खरीदार. तीनों के बीच त्रिपक्षीय लोन एग्रीमेंट हुआ. मकान का कब्जा मिलने तक लोन पर आए ब्याज की किस्त बिल्डर को भरनी थी. देखते-देखते 2018 आ गया लेकिन बिल्डर ने घर तो बनाया नहीं, ऊपर से किस्तें भी भरना छोड़ दिया और डिफॉल्टर होते रहे.
नतीजा: किस्त का बोझ बैंकों ने खरीदारों पर डालना शुरू किया. किस्त न मिलने पर बैंकों ने खरीदारों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी. घबराए खरीदार हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दौड़े. अकेले सुपरटेक के 800 खरीदार सुप्रीम कोर्ट पहुंचे हैं. कोर्ट ने केस में सीबीआइ से आगे के रोडमैप पर एक रिपोर्ट भी मांगी.
इस केस में 1,200 से ज्यादा खरीदारों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में 170 से ज्यादा याचिकाएं दायर की गईं. इसमें वैधानिक और सरकारी संस्थाओं के जिम्मेदारी निभाने में साजिशन विफल रहने, बैंकों और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों (एचएफसी) की ओर से खरीदारों को दांव पर लगाकर नियमों की अवहेलना करते हुए बिल्डरों/डेवलपरों को फायदा पहुंचाने का मुद्दा उठाया गया.
सुप्रीम कोर्ट का आदेश
अभी 29 अप्रैल को आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि छह शहरों में सुपरटेक के 21 प्रोजेक्ट हैं. इस डेवलपर ने 19 विभिन्न बैंकों/हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों (एचएफसी) के साथ त्रिपक्षीय करार किया.
इसके ज्यादातर प्रोजेक्ट को आठ कंपनियों—इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस, पंजाब नेशनल बैंक हाउसिंग फाइनेंस, आइसीआइसीआइ बैंक, इंडिया इन्फोलाइन हाउसिंग फाइनेंस, एलऐंडटी हाउसिंग फाइनेंस, आदित्य बिरला हाउसिंग फाइनेंस, दीवान हाउसिंग फाइनेंस और एचडीएफसी हाउसिंग फाइनेंस ने फाइनेंस किया.
बाकी 11 बैंकों/एचएफसी ने दूसरे प्रोजेक्ट्स को फाइनेंस किया. इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) के डायरेक्टर रह चुके राजीव जैन इस केस में सुप्रीम कोर्ट के न्याय मित्र हैं. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि सुपरटेक और इन आठ बैंकों/एनबीएफसी के बीच साठगांठ की प्राथमिकता से जांच होनी चाहिए.
सीबीआइ के एसपी राम सिंह ने हलफनामा देकर कोर्ट को बताया है कि सबवेंशन के मामले में 40 बिल्डर/डेवलपर हैं लेकिन सबसे ज्यादा याचिकाएं सुपरटेक के खिलाफ आई हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को आदेश दिया कि वह कुछ इस तरह से प्राथमिक रिपोर्ट (पीई) दर्ज करे: सुपरटेक के प्रोजेक्ट्स के लिए एक; नोएडा, ग्रेटर नोएडा, यमुना एक्सप्रेसवे प्राधिकरण, गुड़गांव और गाजियाबाद के बिल्डरों के लिए एक-एक यानी कुल पांच.
इसके अलावा एक पीई एनसीआर के बाहर यानी मुंबई, बेंगलूरू, कोलकाता, मोहाली, इलाहाबाद (प्रयागराज) के बिल्डरों के खिलाफ दर्ज करे. कोर्ट ने सीबीआइ से अंतरिम स्टेटस रिपोर्ट 27 जुलाई को अगली सुनवाई पर दाखिल करने को कहा है.
इस बीच सीबीआइ ने जांच शुरू करते हुए नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना प्राधिकरण से जेपी एसोसिएट्स, सुपरटेक समेत चार प्रोजेक्ट के दस्तावेज मांगे हैं और कुछ जगहों पर छापे भी मारे. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही जांच के चलते बैंकों-बिल्डरों पर शिकंजा कसा जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट में 500 से ज्यादा खरीदारों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मारीश प्रवीर सहाय कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर सीबीआइ जांच का आदेश दिया है. खरीदारों ने सबवेंशन स्कीम को चुनौती दी है, यह कहते हुए कि योजना अवैध थी और बिल्डर के भुगतान न करने की जिम्मेदारी उन पर नहीं डाली जा सकती. कम से कम 15,000-20,000 खरीदार इससे प्रभावित हैं.’’ उनका कहना है कि मामला सिर्फ सुपरटेक के खरीदारों का नहीं है. सबवेंशन स्कीम मामले में डीसेंट राधा, लॉजिक्स ग्रुप वगैरह भी हैं.
सबसे अहम यह है कि इस घपले में कुछ प्रोजेक्ट रियल एस्टेट रेगुलेशन ऐक्ट (रेरा कानून) लागू होने के बाद के और कुछ पहले के हैं. सुपरटेक के कुछ प्रोजेक्ट तो 2010 तक के हैं. 2016 में रेरा लागू होने के बाद अधूरे प्रोजेक्ट इसके तहत पंजीकृत कराना अनिवार्य किया गया था. रेरा के तहत बिल्डर को प्रोजेक्ट के लिए एक अलग बैंक खाता खोलना होता है और उसमें से प्रोजेक्ट की प्रगति के मुताबिक ही पैसा निकाला जा सकता है.
जहां तक सबवेंशन का सवाल है, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) पहले ही इसे संदेह की नजर से देखता रहा है. सहाय बताते हैं, ''आरबीआइ और नेशनल हाउसिंग बोर्ड ने 2012-13 में सबवेंशन के खिलाफ एडवाइजरी जारी की थी.
इसे एक तरह की ब्रिज फंडिंग कहा गया था. चूंकि यह कोई कानून नहीं था इसलिए बैंकों ने सबवेंशन स्कीम जारी रखी. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने ग्राहकों के किस्त भुगतान पर कोई रोक तो नहीं लगाई है लेकिन बैंकों से कहा है कि अगर ग्राहक ईएमआइ भुगतान न करें तो उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई न की जाए.’’
अब आगे क्या?
यह स्कीम 2018-19 तक अंधाधुंध तरीके से चली. सहाय की मानें तो यह फंडिंग पैटर्न की जांच है इसलिए इसमें बिल्डरों के सभी प्रोजेक्ट आते हैं. 2021 से इस तरह के केस अदालत पहुंचने शुरू हुए. उनकी राय में, ''बिल्डर को बैंक से पैसे देने का कोई फिक्स पैटर्न नहीं है. रवैया मनमाना है. किसी को पूरा दिया, किसी को थोड़ा-बहुत दिया, किसी को तीन किस्तें दीं.
सीबीआइ इसकी भी जांच करेगी.’’ लेकिन इस जांच से खरीदारों को क्या फायदा? सोहना के हिलटाउन बायर्स वेल्फेयर एसोसिएशन की अगुआई करने वाले गुप्ता कहते हैं, ''हमारे पास कोई रास्ता नहीं. कुछ नहीं हो रहा तो सीबीआइ से ही उम्मीद है. हम पैसे वापस नहीं, घर चाहते हैं. आज तो फ्लैट 60 लाख में नहीं मिलेगा. बिल्डर चाहता है कि लोग पैसे वापस ले लें और फिर वही फ्लैट वह ऊंची कीमत पर बेच देगा.’’
लेकिन शहरी और आवास मंत्रालय की सेंट्रल एडवाइजरी काउंसिल की सदस्य संस्था फाइट फॉर रेरा के प्रेसिडेंट, कोलकाता निवासी अभय उपाध्याय कहते हैं, ''बिल्डर और बैंकों की मिलीभगत से हो रहे फ्रॉड की इस तरह की जांच होने पर ही डर बैठेगा. सीबीआइ के नाम से ही इनका पसीना छूटेगा. गड़बड़ तो इनके सिस्टम में है ही.
बैंक भी गड़बड़ कर रहे हैं जिन्होंने बिना बिल्डिंग बने ही पैसा बिल्डर को दे दिया. अब तो रेरा भी ठीक से प्रोजेक्ट नहीं देख रहा. रेरा में प्रोजेक्ट का तिमाही अपडेट दिया ही नहीं जा रहा और रेरा इस पर कुछ कर भी नहीं रहा.’’ वैसे सुप्रीम कोर्ट इससे पहले नोएडा-ग्रेटर नोएडा में आम्रपाली बिल्डर के फ्रॉड के मामले में सीबीआइ जांच कराने के साथ खरीदारों को राहत दे चुका है और उसके कर्ताधर्ताओं को जेल भेज चुका है.
सीबीआइ जांच से बैंक-बिल्डरों की साठगांठ विस्तार से सामने आएगी और दोनों की जिम्मेदारी तय होगी. अगर घोटाला सिद्ध हो गया तो कोर्ट के लिए खरीदारों के पक्ष में फैसला देना आसान हो जाएगा.