प्रधान संपादक की कलम से
पाकिस्तान को समझना होगा कि आतंकवाद संवाद को खत्म करता है. अमेरिका और दूसरे देशों को पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए कि वह आतंकवादियों को पोसना बंद करे, वह अपनी अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को मजबूत करने पर ध्यान दे

- अरुण पुरी
इसे अकल्पनीय भले माना जाए लेकिन दो परमाणुसंपन्न देशों के कारण उपमहाद्वीप पर एटमी जंग का खतरा मंडरा रहा है. उपमहाद्वीप के मध्य क्षेत्र में एटमी मसला एक अनसुलझी पहेली बना हुआ है. भारत-पाकिस्तान के बीच छठा युद्ध चार दिनों तक भीषण गोलीबारी के बाद अचानक क्यों और कैसे रुक गया? इसका उत्तर कुछ आधे-अधूरे खुलासों और परिस्थितिजन्य आख्यानों की आड़ में छिपा है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 10 मई को अपनी चिर-परिचित शैली में एकाएक युद्ध विराम का 'ऐलान' करके भारत को हैरानी में डाल दिया. ऐसा सिर्फ एक बार नहीं हुआ. वे सिलसिलेवार ढंग से यही दावा करते आ रहे हैं कि उन्होंने एटमी विभीषिका से लाखों लोगों की जान बचा ली. भारत संघर्ष विराम में किसी भी तरह की अमेरिकी मध्यस्थता से साफ इन्कार करता है. यही नहीं, लड़ाई में बात एटमी हथियारों तक पहुंचने से भी उसने इन्कार किया है.
लेकिन कहने भर से रहस्य की परतें पूरी तरह खुल नहीं जातीं. तमाम अप्रत्याशित तत्वों पर गौर करें तो लगता है हम कभी पूरी तरह यह सच नहीं जान पाएंगे कि क्या एकदम अप्रत्याशित ढंग से बढ़ी दुश्मनी से हालात नियंत्रण से बाहर होने के कगार पर पहुंच गए थे. खतरे की घंटी इससे ज्यादा और क्या स्पष्ट हो सकती है! आपके पास दो जंगजू पड़ोसी हैं और सब मिलाकर उनके एटमी शस्त्रागार लगभग 345 हथियारों से सुसज्जित हैं: भारत 172, पाकिस्तान 170.
ये तो उपमहाद्वीप को पूरी तरह तबाह करने और पूरी दुनिया पर घातक पर्यावरणीय प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त हैं. दोनों देशों के रिश्तों में तनाव अक्सर चरम पर पहुंच जाता है फिर भी वे मतभेदों के असैन्य समाधान के लिए वार्ता की किसी औपचारिक प्रक्रिया के लिए तैयार नहीं.
भारत एटमी हथियारों का पहले इस्तेमाल न करने यानी कोई एटमी हमला होने पर ही ऐसा कदम उठाने की नीति पर कायम है. लेकिन पाकिस्तान के लिए ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं. वह 'फुल स्पेक्ट्रम डिटरेंस' वाली नीति में भरोसा करता है जिसमें पहले इस्तेमाल की अनुमति है. ऐसे में चार परिस्थितियां एटमी जंग भड़का सकती हैं: इसकी क्षेत्रीय अखंडता को खतरा, सैन्य हार, राजनैतिक अस्थिरता और आर्थिक अराजकता.
सीधे शब्दों में कहें तो ऐसा कुछ भी जो इसके अस्तित्व के लिए खतरा हो. भारत के विपरीत पाकिस्तान के शस्त्रागार में सामरिक एटमी हथियार भी हैं. सीमित युद्धक्षेत्र में इस्तेमाल लायक इन छोटे एटमी हथियारों का मकसद भूमि कब्जाने के इरादे से भारत के किसी संभावित हमले का मुकाबला करना है. यह विकेंद्रीकृत कमान संरचना पर केंद्रित है, जिसमें युद्ध के दौरान निर्णय लेने का अधिकार खतरनाक ढंग से स्थानीय कमांडरों के स्तर पर छोड़ दिया जाता है. ऐसे में मामूली बात पर एटमी हथियार दागे जाने की घटना पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं.
छोटा या बड़ा, पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ एक भी एटम बम दागा तो दिल्ली की तरफ से बड़े पैमाने पर जवाबी एटमी हमला तय है. फिर शहर इसकी जद में आएंगे. कराची या मुंबई जैसे शहरों पर हिरोशिमा जितना बम गिरे तो दस लाख से ज्यादा मौतें मुमकिन हैं. इसके बाद सीमाएं कोई बाध्यता नहीं रहेंगी, यह सब उनसे परे भी फैलेगा.
ऐसा न सोचें कि यह सिर्फ अटकलबाजी है. यह निरोधक सिद्धांत का सीधा-सा गणित है और इसे एक गंभीर चेतावनी के तौर पर देखा जाना चाहिए. बात बिगड़ी तो उसे सुलझाने का कोई सिरा भी न मिलेगा. स्थितियां कितनी भयावह करवट ले सकती हैं, इस अकल्पनीय परिदृश्य का ख्याल करना ही उपमहाद्वीप के नेताओं और उनके सशस्त्र बलों को इससे दूर रखने को पर्याप्त होना चाहिए.
भारत के साथ संघर्ष पाकिस्तान के लिए हमेशा अस्तित्व का सवाल रहा है, और हमारे हर शत्रुतापूर्ण टकराव में एटमी हथियार चिंता का सबब बनते रहे हैं. अफसोस की बात यह है कि दोनों पड़ोसी शायद ही कभी तीसरे पक्ष, खासकर अमेरिकी हस्तक्षेप के बिना इसे सुलझा पाए हैं. पिछले 35 साल में पांचवां मौका है जब भारत-पाकिस्तान के बीच टकराव में बात एटमी मसले तक पहुंची.
हर बार अमेरिका ने बीच-बचाव के लिए कदम बढ़ाया. शुरुआत 1990 के गेट्स मिशन से हुई, जब दोनों राष्ट्र घोषित तौर पर परमाणुसंपन्न न थे. 1999 में करगिल जंग, 2001-02 में संसद पर हमले के बाद सैन्य तैयारी और 2019 में पुलवामा-बालाकोट के दौरान यही पैटर्न दिखा.
मई 2025 की चार दिनी जंग में फिर वही स्थिति दिखी. 9-10 मई की दरम्यानी रात कुछ तो हुआ या होने का खतरा था. अधिकांश अनुमान कहते हैं कि रावलपिंडी स्थित नूर खान एयरबेस पर भारत के हमले ने दहशत बढ़ा दी थी. दरअसल, यह परिचालन के लिहाज से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ स्ट्रैटेजिक प्लान डिविजन के मुख्यालय के बेहद नजदीक है. पाकिस्तान के एटमी शस्त्रागार की देखरेख का जिम्मा इसी डिविजन के पास है. शायद वाशिंगटन की चिंता बढ़ने की वजह यही थी क्योंकि क्षेत्रीय एटमी संघर्ष उसके ही नहीं पूरी दुनिया के हितों को नुक्सान पहुंचा सकता है.
ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा के रूप में हमारे पास इन मामलों के एक विशेषज्ञ मौजूद हैं. दुनियाभर के शीर्ष एटमी विशेषज्ञों और ताजा जंग से करीब से जुड़े रहे अधिकारियों से बातचीत के बाद उन्होंने जो तस्वीर सामने रखी, वह काफी चिंताजनक है. आतंकवाद समेत कोई ऐसा मसला सुलझा नहीं है जो युद्ध का कारण बन सकता है. ऐसे में मौजूदा शांति को बहुत टिकाऊ नहीं माना जा सकता. खुद नई दिल्ली के शब्दों में, यह केवल एक 'विराम' है.
हम भले एक बड़े संकट के मुहाने पर पहुंचकर लौट आए हों, हमेशा ऐसे संयोग की उम्मीद करना बेमानी है. एक गलत अनुमान कभी भी आसन्न संकट को न्यौता दे सकता है. दोनों देश हमेशा एटमी घुड़की तक तो सीमित नहीं रह सकते. इसलिए जरूरी है, सार्थक बातचीत की दिशा में बढ़ें और गिले-शिकवे दूर करने का एक ढांचा तैयार करें. पाकिस्तान को समझना होगा कि आतंकवाद संवाद को खत्म करता है.
अमेरिका और दूसरे देशों को पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए कि वह आतंकवादियों को पोसना बंद करे, वह अपनी अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र को मजबूत करने पर ध्यान दे. इसकी फौज के हर समय बाहें चढ़ाए रखने से उपमहाद्वीप में अनिश्चितता बढ़ती है. दुनिया को पाकिस्तान की करतूतें बताने के लिए 32 देशों में प्रतिनिधिमंडल भेजने का मोदी सरकार का फैसला स्वागत योग्य है क्योंकि एटमी जंग में हार-जीत किसी की नहीं होती. वह स्थिति आई तो अंत में सिर्फ पछतावा बचेगा.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).