प्रधान संपादक की कलम से

भारत के पास करने के लिए और भी बहुत कुछ है. यह सिर्फ पाकिस्तान के मोर्चे पर उलझा नहीं रह सकता, न ही हर समय जंग के मैदान में उतरने की प्रतिबद्धता में ही बंध सकता है

इंडिया टुडे कवर : खतरे की नई रेखा
इंडिया टुडे कवर : खतरे की नई रेखा

- अरुण पुरी

भारत-पाकिस्तान के बीच छठा युद्ध जिस एकाएक अंदाज में शुरू हुआ था, उसी ढंग से समाप्त भी हो गया. जंग उफान पर पहुंचने को थी कि तभी एक असहज तरीके से रोकी गई—हालांकि, भारत के शब्दों में यह सीजफायर नहीं एक 'समझौता' है. यह शांति कुछ अजीब किस्म की थी, जिसमें दोनों पक्षों ने जीत के दावे किए.

हालांकि, अतीत में भी हमने ऐसे मौकों पर दोनों देशों को ऐसे ही दावे करते देखा है. भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष 88 घंटों के भीतर काफी आगे पहुंच चुका था. और पूरी दुनिया की बेचैन नजरें इस पर टिकी थीं. कोई नहीं चाहता था कि जंग उस मुकाम तक पहुंचे, जहां से पीछे हटना मुश्किल हो.

एटम बम से लैस दो आक्रामक पड़ोसी किसी मायने में किसी के लिए अच्छा संकेत नहीं हो सकते. परदे के पीछे बढ़ी सक्रियता में अमेरिका ने मुख्य भूमिका निभाई और कुछ कठिन कूटनीतिक प्रयासों के साथ इमरजेंसी ब्रेक लगाने में सफल रहा. हालांकि, इस पर अमल का जो तरीका अपनाया गया, उसने शांति कायम होने के साथ ही गड्ड-मड्ड कर दिया.

अति उत्साही और आत्ममुग्ध राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रति नई दिल्ली की प्रतिक्रिया खासी तीखी रही. भारत ने उनका आभार तो जताया, साथ ही स्पष्ट कर दिया कि उनके दखल की जरूरत नहीं. ट्रंप ने अपने चिर-परिचित अंदाज में दावा किया कि उन्होंने एटमी संघर्ष रोक दिया है. जाहिर है, ट्रंप का रवैया दोनों देशों के प्रति एक जैसा दुलार बरसाने वाला था जबकि एक आतंकवाद का पोषक है और दूसरा उसका सबसे बड़ा शिकार.

उन्होंने जिस तरह से नैतिक स्तर पर भारत और पाकिस्तान को बराबरी पर खड़ा करने की कोशिश की, उससे नई दिल्ली का झुंझलाना स्वाभाविक था. ट्रंप ने सीजफायर की सूचना देने में जल्दबाजी दिखाई तो उनके विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने तटस्थ स्थान पर भारत-पाक वार्ता की बात कहकर स्थिति और बिगाड़ी. भारत उस समय गुस्से से एकदम भड़क उठा जब ट्रंप ने इतिहास के प्रति अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए ''1,000 साल पुराना विवाद'' सुलझाने की पेशकश कर कश्मीर मसले में अपनी टांग अड़ाने की कोशिश की. आखिरकार 12 मई को जाकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आक्रामक भाषण में सारे तथ्य शीशे की तरह साफ हो गए.

उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि पाकिस्तान संघर्ष विराम के लिए गिड़गिड़ा रहा था. साथ ही स्पष्ट कर दिया कि ऑपरेशन सिंदूर खत्म नहीं हुआ है. इसे बस स्थगित किया गया है और आतंकवाद की कोई वारदात हुई तो और भी कड़ा जवाब दिया जाएगा. उन्होंने आगाह किया कि भारत आतंक फैलाने वालों को उनके घर में घुसकर मारेगा. मोदी ने दोहराया कि आतंकवाद और वार्ता एक साथ नहीं चल सकती, आतंकवाद और व्यापार एक साथ नहीं चल सकता. और, खून और पानी भी एक साथ नहीं बह सकते.

यह स्पष्ट संकेत है कि जब तक पाकिस्तान अपना रवैया नहीं सुधारता, भारत सिंधु जल संधि स्थगित रखेगा. कश्मीर अब बातचीत का मुद्दा नहीं रहा और अगर कभी इस पर चर्चा हुई भी तो ''यह सिर्फ पीओके के बारे में होगी.'' मोदी ने साफ कर दिया कि पाकिस्तान की एटमी हमले की खोखली धमकियों और ब्लैकमेल के आगे भारत झुकने वाला नहीं. इस आक्रामक संबोधन के साथ उन्होंने ऐसी लक्ष्मण रेखाएं खींच दी हैं, जिन्हें पार करने पर पाकिस्तान को सख्त अंजाम भुगतने होंगे.

मोदी ने 2025 की इस सैन्य कार्रवाई के जरिए साफ कर दिया कि पाकिस्तान के सैन्य-जिहादी गठजोड़ के कृत्यों को चुपचाप बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी है. भारत ने दंडात्मक सबक सिखाने के सिद्धांत को पत्थर की लकीर बना लिया है. अगली बार पाकिस्तान सरकार को ऐसी साजिश रचने से पहले दो नहीं बल्कि तीन बार सोचना पड़ेगा. बहरहाल, अभी अनिश्चितता भरी शांति है. पाकिस्तान कश्मीर पर अपना दावा छोड़ना नहीं चाहता और अपनी धरती पर दहशतगर्दों को पाल-पोसकर भारत के खिलाफ छद्म युद्ध चलाता रहता है.

भारत के लिए अब कश्मीर चर्चा से बाहर का मुद्दा है, सिवाय उस स्थिति में, जैसा प्रधानमंत्री ने कहा, जब सवाल दोनों कश्मीर के एकीकरण का हो. सफलता की गुंजाइश न होने पर भी पाकिस्तानी फौज सत्ता पर अपनी पकड़ को सही ठहराने के लिए इस मुद्दे को हवा देती रहती है. वैसे यह काफी हास्यास्पद है कि अपनी धरती पर आतंकी प्रशिक्षण शिविरों के अस्तित्व के हजारों ठोस प्रमाणों के बावजूद पाकिस्तान इससे इनकार करता रहता है.

हमारी इस कवर स्टोरी में ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा ने जंग के बाद के जटिल परिदृश्य को अपनी पैनी नजर से खंगाला और पूरी शिद्दत से ऐसे सिरे तलाशने की कोशिश भी की जो आगे की तस्वीर का संकेत दे सकें. बेहतरीन ग्राफिक वाली प्रस्तुति के सहारे डिजिटल युग में दोनों देशों के बीच इस सीधी जंग को दो एटमी शक्तिसंपन्न राष्ट्रों के सफेद-स्याह पहलुओं के साथ दर्शाने की कोशिश की गई है. लेकिन जो अहम सवाल हमें सबसे ज्यादा परेशान कर रहा है, वह है इसकी भू-रणनीतिक प्रकृति. इसमें कोई भी विकल्प आसान नहीं.

नफे-नुक्सान के विश्लेषण में अर्थशास्त्र पर गौर न करना नासमझी होगी. भारत के पास करने के लिए और भी बहुत कुछ है. यह सिर्फ पाकिस्तान के मोर्चे पर उलझा नहीं रह सकता, न ही हर समय जंग के मैदान में उतरने की प्रतिबद्धता में ही बंध सकता है. अमेरिका ने इस बार दखल दिया लेकिन हर व्यापक कार्रवाई या स्थायी युद्ध की स्थिति में यह मुमकिन नहीं. इससे किसी का हित नहीं सधता.

वैश्विक निवेशक भी मिसाइल हमलों की होड़ से घिरे परिदृश्य को लेकर उत्साहित नहीं होंगे. और फिर एटमी खतरा तो रहेगा ही. भारत के लिए वैश्विक सहानुभूति बटोरना और उसे बरकरार रखना इसी पर निर्भर करता है कि वह खुद को संयम बरतने वाले एक समझदार राष्ट्र के तौर पर पेश करे जो विशेष कर दक्षिण एशिया में एक स्थिर शक्ति के तौर पर नजर आए.

चीन चाहे तो पाकिस्तान पर लगाम लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि पाकिस्तान काफी हद तक उस पर निर्भर है. लेकिन मामला चूंकि भारत से जुड़ा है, इसलिए हो सकता है कि चीन के इरादे कुछ दूसरे हों. भारत को इन सभी बातों पर बेहद बारीकी और समझदारी के साथ सोच-विचार करना होगा. आखिरकार, बिना किसी उद्देश्य के जंग के मैदान में उतरने का कोई मतलब नहीं होता.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).​​​​​​

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