अराजकता की ओर बढ़ रही दुनिया में ताकत ही सबसे बड़ा नियम होगा

मौजूदा विश्व व्यवस्था से अमेरिका के हटने का मतलब है कि अब हर कोई अपने लिए काम करेगा. अब ताकत और बल ही नियम तय करेंगे. ऐसे में भारत को खुद को मजबूत करना होगा और शांतिपूर्ण क्षेत्र का निर्माण करना होगा.

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शिवशंकर मेनन

राष्ट्रपति ट्रंप ने बमुश्किल दो महीने में ही दुनिया की भू-राजनीति में जारी बदलाव को स्पष्ट कर दिया है. हम अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था के खात्मे और एकजुट भू-राजनैतिक ताकत के रूप में पश्चिम के पतन के गवाह बन रहे हैं. साथ ही वैश्वीकरण को बढ़ावा देने वाली उदार ताकत का अवसान देख रहे हैं, जिसने लंबे समय तक अमेरिकी विदेश नीति तय की.

यकीन मानिए कि अमेरिका में अब हम जो संरक्षणवाद, अलगाववाद और नस्लवाद से करीबी वाला राष्ट्रवाद देख रहे हैं, वह कोई नई बात नहीं है. राष्ट्रपति ट्रंप का इन नीतियों को अपनाना, वहां लंबे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक रुझानों का नतीजा है. इसका मतलब है कि इनके लंबे समय तक रहने की संभावना है और पुराने दौर में लौटना संभव नहीं होगा.

उन पर अमल का तरीका निश्चित ही उनका अपना है. आने वाले कई वर्षों तक अमेरिका और यूरोप अपने आंतरिक पुनर्गठन और क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों में उलझे रहेंगे.

इस बदलाव के दुनिया और भारत पर कई और महत्वपूर्ण प्रभाव होंगे. ट्रंप के टैरिफों और अंतरराष्ट्रीय मानदंडों, प्रतिबद्धताओं और संस्थानों को छोड़ने का मतलब है कि अमेरिका दुनिया से दूर हो रहा है. अमेरिकी ताकत और प्रभाव की वैधता और विश्वसनीय सहयोगी या भागीदार के रूप में उसकी प्रतिष्ठा काफी कम हो गई है.

भारत को अपने प्राथमिक हितों, खासतौर पर भारत के बदलाव को आगे बढ़ाने के लिए कुछ ज्यादा ही कठोर अंतरराष्ट्रीय माहौल का सामना करना पड़ेगा. क्या वैश्वीकरण, जिसका चीन के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा लाभार्थी था, अमेरिका के बिना बाकी दुनिया में जारी रह सकता है? इस पर संदेह है.

यह विचार अतीत के अनुभवों से जुड़ा रहा है और इसकी वापसी की उम्मीद नहीं है. अधिक संभावना यह है कि विश्व अर्थव्यवस्था में संरक्षणवाद बढ़ेगा और क्षेत्रीय व्यापार गुटों पर फोकस रहेगा. इसमें भी विकासशील देशों के कमोडिटी निर्यातकों को वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण सबसे ज्यादा नुक्सान उठाना पड़ेगा. भारत ही अकेली बड़ी अर्थव्यवस्था है जो किसी भी क्षेत्रीय व्यापार समूह का सदस्य नहीं है, इससे उस पर गंभीर असर पड़ेगा. 

ट्रंप चीन को फिर से बड़ा बना सकते हैं. चीन पहले से ही एशिया और काफी हद तक विकासशील देशों का आर्थिक केंद्र है. अमेरिकी प्रशासन के टैरिफ और अन्य कदमों ने विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की महत्वपूर्ण भूमिका को मजबूत किया है. अगर चीन के लिए अमेरिकी दरवाजे बंद हो जाते हैं तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत समेत दुनिया के बाकी हिस्सों में चीनी औद्योगिक निवेश और निर्यात की बाढ़ आ जाएगी.

अगर ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका चीन के खिलाफ अपने ऊंचे शुल्क और दूसरे आर्थिक कदमों को जारी रखता है तो चीनी अर्थव्यवस्था को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी क्योंकि चीन अपने यहां खपत वाले 25 फीसद खाद्य पदार्थों, तेल और गैस ऊर्जा, वस्तुओं और बाजारों तक पहुंच के लिए दुनिया पर निर्भर है.

इनसे उसकी अर्थव्यवस्था चलती है और टेक्नोलॉजी भी. अभी भी चीन के सकल घरेलू उत्पाद में निर्यात का हिस्सा लगभग 15 फीसद है. साथ ही साथ ट्रंप के लिए अमेरिकी-चीन करार की चाहत ज्यादा है, जिनके ताइवान का बचाव करने की संभावना नहीं लगती और उनके अरबपति समर्थकों की किस्मत भी चीन पर निर्भर करती है. आज के जोड़-तोड़ में अमेरिका-चीन रिश्तों के समीकरण के बारे में बस इतना पता है कि हमें कुछ भी नहीं पता.

और फिर भू-राजनीति? यूरोप के प्रति ट्रंप प्रशासन का तिरस्कार और यूक्रेन जैसे सहयोगियों के साथ इस तरह के व्यवहार का मतलब है कि यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया और उत्तर-पूर्व एशिया में अमेरिका के मित्र देश सुरक्षा के लिए अपनी निर्भरता का विकल्प तलाशेंगे.

यह अपनी खुद की ताकत बनाने, दूसरे भागीदारों के साथ काम करने और चाहे-अनचाहे, चीन और रूस के साथ समझौता करने के रूप में सामने आएगा. यूरोप, विशेष रूप से जर्मनी अपने आर्थिक भविष्य के बुनियादी सवालों के समाधान के रूप में चीन की ओर देख सकता है.

अब मसला है कि चीन उस भू-राजनैतिक स्थान का क्या इस्तेमाल करेगा जिसे ट्रंप प्रशासन के कदमों ने उसके लिए खोल दिया है? चीन का सुरक्षा प्रदाता या दुनिया की सार्वजनिक भलाई करने वाले के रूप में कोई इतिहास नहीं है, यहां तक कि इंपीरियल ट्रिब्यूटरी प्रणाली (विदेशी रिश्तों का प्रबंध करने की पारंपरिक चीनी व्यवस्था) में भी नहीं रहा. इसलिए तात्कालिक प्रतिक्रिया में तो उसके अवसरवादी होने की संभावना है लेकिन वह अपने बाजारों को दुनिया के लिए नहीं खोलेगा या अमेरिका की तरह अंतरराष्ट्रीय पुलिस की भूमिका भी नहीं निभाएगा.

भारत की बात करें तो व्यापार और टैरिफ लड़ाई का सीधा असर अर्थव्यवस्था की तुलना में हमारे बाजारों पर ज्यादा होने की संभावना है क्योंकि बाजार दुनिया के साथ ज्यादा जुड़े हुए हैं. ऐसी ही दूसरी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह असर और भी कम हो सकता है.

लेकिन लंबी अवधि में जो परोक्ष असर होंगे, उन्हें कम करके नहीं आंकना चाहिए. जब वैश्विक आर्थिक संभावनाएं स्याह पड़ेंगी तो हमारी अर्थव्यवस्था के लिए भी आगे बढ़ना मुश्किल होगा. हमारे निर्यात का लगभग 20 फीसद हिस्सा अमेरिका जाता है और इस हिस्से को दूसरे बाजारों में ले जाना इसलिए भी आसान न होगा क्योंकि हर कोई ऐसा करने की कोशिश कर रहा होगा. 

भू-राजनैतिक दृष्टि से देखें तो यह ऐसी दुनिया होगी जहां हर कोई अपने लिए काम करेगा, यह बहुत ही कठिन विश्व होगा जहां शक्ति और बल ही नियम तय करेंगे, जैसा कि हम पश्चिम एशिया और यूरोप में देख रहे हैं. इसका एक ही असल जवाब है, वह है खुद को मजबूत बनाना. इसके लिए समय और आंतरिक बदलावों के साथ-साथ ऐसे साझेदारों के साथ काम करने की जरूरत होगी जो हमारे हितों में साझेदार हों, जहां भी वे हमें मिल जाएं. शांतिपूर्ण क्षेत्र के निर्माण पर ध्यान देना प्राथमिकता होनी चाहिए, जो एशिया में दोस्तों के साथ काम कर रही है.

संक्षेप में, राष्ट्रपति ट्रंप ने हमें अवसर दिया है अपनी भूमिकाओं का फिर से आकलन करने का और उपमहाद्वीप तथा हिंद महासागर क्षेत्र तथा क्वाड जैसे संगठनों के साथ एकीकृत होने का; सहभागिता बढ़ाने के लिए अपनी बाहरी आर्थिक नीति में फेरबदल का, टैरिफ से परे जाकर हमारे औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करने वाली स्थिर नीति अपनाने का; चीन और एशिया महाद्वीप के प्रति नीति को समायोजित करने का.

और सबसे महत्वपूर्ण यह कि खुद को मजबूत बनाने और उन रक्षा सुधारों को लागू करने का जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे जरूरी हैं. यह भू-राजनीति में बदलावकारी दौर का उपयोग हमारे राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने के लिए करेगा, और उन चीजों को अंजाम देगा जो हमें अधिक स्थिर और शांत समय में कठिन लगती हैं. कामों की सूची लंबी है और समय कम है.

रणनीतिक बदलाव की घड़ी
●पड़ोसियों से संबंध सुधारें: उपमहाद्वीप, हिंद महासागर क्षेत्र और क्वाड जैसे गठजोड़ों के एकीकरण का लक्ष्य बनाएं.
●चीन के प्रति नीति को ठीक करें: ट्रंप की हरकतों ने चीन के लिए भू-राजनैतिक जमीन तैयार कर दी है. 
●प्रतिरक्षा के क्षेत्र में सुधार करें: ये लंबे समय से लटके हुए हैं और अब बेहद जरूरी हो गए हैं.
 

शिवशंकर मेनन
(लेखक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पूर्व विदेश सचिव हैं.)

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