पीएम मोदी को RSS मुख्यालय पहुंचने में क्यों लग गए 11 साल?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक दशक में पहली बार संघ मुख्यालय पहुंचने से बीजेपी और उसके वैचारिक अगुआ संगठन के बीच खींचतान वाली चर्चाओं पर विराम लगा. इसके अलावा साझा लक्ष्यों के लिए दोनों के साथ चलने का नया मार्ग भी प्रशस्त हुआ

प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख भागवत नागपुर में 30 मार्च को हेडगेवार स्मृति मंदिर में
प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख भागवत नागपुर में 30 मार्च को हेडगेवार स्मृति मंदिर में

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 30 मार्च को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुख्यालय में थे. वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद वे पहली बार वहां गए. जाहिर है, वहां डॉ. हेडगेवार स्मृति मंदिर में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी और सरसंघचालक मोहन भागवत की तस्वीरें सुर्खियों में थीं. यह अहम था क्योंकि इससे बीजेपी और उसके वैचारिक अभिभावक यानी संघ के बीच दरार की अटकलें दूर हो गईं.

दरअसल, आग उस वक्त से सुलग रही थी जब पिछले साल मई में बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने इशारा किया था कि पार्टी आरएसएस से बड़ी हो गई है. नतीजतन, लोकसभा चुनाव में मनोवांछित नतीजे न मिलना, सुलह-सफाई की कोशिशें, उसके बाद राज्य चुनावों में जीत, सब कुछ अब अतीत की बातें हो गईं. आरएसएस और बीजेपी के सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी का नागपुर दौरा यह बताने के लिए था कि दोनों (संघ और बीजेपी) एक-दूसरे के लिए कितने खास हैं.

मोदी ने इसे ऐसे जाहिर किया कि पिछले 100 वर्षों में आरएसएस की तपस्या, संगठन और समर्पण के साथ कैसे फलित हुई. बाहर की दुनिया के लिए प्रधानमंत्री खुद संघ के स्वयंसेवकों की एक प्रमुख मिसाल हैं. देश 2047 में 'विकसित भारत’ के अपने लक्ष्य के करीब पहुंच रहा है और मोदी 'अमृत काल’ के 'पंच प्रण’ का ऐलान पहले ही कर चुके हैं.

संघ की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पुनरुत्थान की विचारधारा के मूल में भी विकसित भारत का लक्ष्य, औपनिवेशिक मानसिकता के सभी निशानों को मिटाना, अपनी जड़ों के प्रति सम्मान और गर्व, हमारी एकता और नागरिकों में कर्तव्य की भावना का एहसास शामिल है.

अब तक 11 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने आरएसएस के कई विचारों को आगे बढ़ाया है, जिसमें योग को दुनिया भर में पहुंचाना, विदेश नीति के मुख्य आधार के रूप में वसुधैव कुटुम्बकम की विश्व-दृष्टि को स्पष्ट करना, आत्मनिर्भरता के आह्वान के साथ स्वदेशी आर्थिक दर्शन विकसित करना, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता के लिए जोर देना और हाल में वक्फ बोर्ड के सुधारों पर आगे बढ़ना वगैरह शामिल हैं.

इस साल विजयादशमी का जश्न खास होगा क्योंकि संघ अपनी स्थापना के 100 साल पूरे कर रहा है. इसका गठन 1925 में इंग्लैंड में बॉयज स्काउट्स के ढांचे की तर्ज पर हिंदू सांस्कृतिक पुनरुत्थान की आकांक्षाओं के साथ किया गया था. लेकिन उस समय दुनिया भर में उभरे ऐसे कई संगठन समय-चक्र में हाशिए पर सिमट गए, जबकि आरएसएस आगे बढ़ता गया. वजह आरएसएस का खास ढांचा है जो जापान में अतिराष्ट्रवादी निप्पॉन कैगी या रूस में ओएनएफ (ऑल-रशियन पीपल्स फ्रंट) जैसे संगठनों के कुछ पहलुओं की नकल में तैयार किया गया है.

फिर भी आरएसएस की बराबरी करने वाला कोई संगठन नहीं है. संघ के सूत्रों के मुताबिक, 100 साल पूरे होने के जश्न के दौरान संघ अपनी कुछ अनूठी खूबियों का प्रदर्शन करना चाहेगा. उनका यह भी कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि सरकार का इसमें पूरा समर्थन होगा. आज अगर कोई पूर्व संघ प्रचारक देश का प्रधानमंत्री है, तो उसके मंत्रिमंडल का लगभग आधा हिस्सा भी किसी न किसी समय आरएसएस या उसके सहयोगी संगठनों का हिस्सा रहा है. दरअसल, संघ के 12 पूर्व स्वयंसेवक (11 भाजपा से और एक कांग्रेस से) अपने-अपने राज्यों में सरकारों का नेतृत्व कर रहे हैं.

बतौर संगठन संघ और उसके आनुषंगिक संगठन भारतीय समाज के हर क्षेत्र में मौजूद हैं. अमेरिकी शिक्षाविद, लेखक और लंबे समय से आरएसएस पर नजर रखने वाले वाल्टर के. एंडरसन कहते हैं कि संघ ''दुनिया के दूसरे हिस्सों में अपने जैसे दूसरे संगठनों के मुकाबले अलग है.’’ उनका तर्क है कि चुनावों में राजनैतिक जीत का श्रेय अक्सर आक्रामक अभियानों, रैलियों और मीडिया के नैरेटिव को दिया जाता है, लेकिन असली तैयारी चुपचाप जमीनी काम से होती है. यही बात संघ को भाजपा के लिए अपरिहार्य बनाती है.

पिछले साल हरियाणा, महाराष्ट्र और हाल में दिल्ली के विधानसभा चुनावों से पता चला कि चुनाव के समय जमीन पर मौजूद आरएसएस के स्वयंसेवक भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुए हैं. संघ को प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता से भी फायदा मिला है. उसके लिए भाजपा की राजनैतिक ताकत से देश के नए हिस्सों और आबादी में पहुंच बनी है. संघ के 'संगठनों’ भारतीय मजदूर संघ, किसान संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के साथ अधिवक्ता परिषद और सेवा भारती की संख्या पिछले एक दशक में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है.

पीएम मोदी नागपुर में 30 मार्च को आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए

संघ परिवार की सक्रियता को समझने वाले लोगों का मानना है कि दोनों संगठनों के नेतृत्व के बीच की खींचतान कुछ और नहीं बल्कि ''प्रेमी जोड़ों की तकरार’’ जैसी थी. संघ के सूत्र भी मोदी और सरसंघचालक भागवत के बीच के गहरे संबंधों की पुष्टि करते हैं. उनका कहना है कि यह साझा विचारधारा और गहरे आपसी सम्मान का संबंध है. इसके प्रति उनकी प्रतिबद्धता पिछले एक दशक में उनके अपने कार्यालयों के कार्यों में परिलक्षित होती है.

नागपुर की लंबी राह

नागपुर पहुंचने से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने यह पक्का किया था कि संघ नेतृत्व को खुश करने के लिए पार्टी और उनकी सरकार कुछ चीजें दुरुस्त कर लें. संघ के नेता पिछले कुछ समय से दूसरे दलों से ऐसे नेताओं का 'बड़े पैमाने पर आयात’ किए जाने से असहज महसूस कर रहे थे, जिनमें से कुछ तो अतीत में आरएसएस के खुले विरोधी के रूप में जाने जाते थे. अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में संघ से जुड़े संगठनों का सरकार के साथ अक्सर टकराव होता रहता था, लेकिन इसके विपरीत पीएम मोदी ने यह सुनिश्चित किया है कि उनके साथ नियमित परामर्श और समन्वय बैठकें होती रहें.

लेकिन राजनैतिक फायदे के लिए आयातित नेताओं में से कुछ को पार्टी में लाने और उन्हें अहम जिम्मा सौंपने से पहले कोई खास चर्चा नहीं की गई. अब चीजें दुरुस्त करने की कवायद के तहत राज्य में चल रहे संगठन चुनावों के लिए संघ की स्थानीय इकाइयों के साथ नियमित विचार-विमर्श किया जा रहा है, जिससे निर्वाचक मंडल बनेगा जो पार्टी के अगले राष्ट्रीय अध्यक्ष (जे.पी. नड्डा का कार्यकाल समाप्त हो गया है और वे अभी कार्यविस्तार पर हैं) को चुनेगा. राज्यपालों और अन्य राजनैतिक कार्यालयों की नियुक्तियों की चर्चा में आरएसएस भी शामिल है.

केंद्रीय स्तर पर संघ के लोगों को अधिक अधिकार देने की संगठन की मांग भी मान ली गई है. इसमें राजनाथ सिंह, मनोहर लाल खट्टर और शिवराज सिंह चौहान जैसे कैबिनेट मंत्रियों को अधिक जिम्मेदारी देना शामिल है. इसलिए खट्टर के पास अब सरकारी उपक्रमों (पीएसयू) के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्तियों की सिफारिश करने वाले मंत्री समूह का नेतृत्व है जबकि चौहान प्रधानमंत्री की ओर से घोषित कई योजनाओं के साथ-साथ महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के अमल पर नजर रखते हैं. 

मौजूदा हालात

इस बीच, पार्टी बदलाव के दौर से भी गुजर रही है. जल्द ही भाजपा का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना जाएगा, राष्ट्रीय टीम और कई राज्य इकाइयों में फेरबदल की कवायद चल रही है, मंत्रिमंडल में फेरबदल की पक्की संभावना है और 'नए क्षेत्रों’ की योजनाओं पर भी नए सिरे से काम किया जा रहा है. सूत्रों का कहना है कि पार्टी बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए 'अपने संगठन को फिर से आकार’ दे रही है. ये चारों राज्य भाजपा के लिए मुश्किलों भरे हैं और इसके लिए संघ और उसके सहयोगियों की हरसंभव मदद की जरूरत होगी. केरल का ही उदाहरण लें.

लोकसभा चुनाव से पता चला कि राज्य में एनडीए का वोट शेयर बढ़कर 19.2 प्रतिशत हो गया है; पार्टी की जीत का खाता पहली बार अभिनेता सुरेश गोपी ने त्रिशूर सीट पर खोला. अब कारोबारी से राजनेता बने राजीव चंद्रशेखर को राज्य इकाई का प्रमुख बनाकर बड़ा जुआ खेला गया है. उन्होंने तिरुवनंतपुरम लोकसभा सीट पर शशि थरूर से मुकाबला किया मगर मामूली अंतर से हार गए.

सूत्रों का कहना है कि गुटबाजी से ग्रस्त प्रदेश इकाई में मतभेदों को दूर करने और मतदाता आधार को व्यापक बनाने की कोशिशों के तहत स्थानीय और संघ के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ विचार-विमर्श किया गया और बाहरी व्यक्ति को राज्य इकाई की जिम्मेदारी देने की पहल की गई. राज्य में कैथोलिक समूहों के बीच भाजपा के संपर्क प्रयासों में संघ उसकी मदद भी कर रहा है.

बिहार में भाजपा संभवत: महाराष्ट्र की तरह मुख्यमंत्री पद के चेहरे के बिना चुनाव लड़ेगी. इससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान कम करने में भी मदद मिलेगी. इस बीच, जातिगत समीकरणों को साधने के लिए संघ के कार्यकर्ता भाजपा के साथ मिलकर काम कर रहे हैं.

महाराष्ट्र की तरह संघ को यहां भी हिंदुत्व मॉडल में बदलाव की उम्मीद है, ताकि यह सिर्फ एक पार्टी से न जुड़ा रहे बल्कि एक बड़े सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन से जुड़ा हो जो राजनैतिक गठजोड़ बदलने पर भी बरकरार रहे.

इससे संघ को उस महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) को बौना करने में मदद मिली जहां शिवसेना को हिंदुत्व का सबसे मुखर पैरोकार माना जाता रहा है. संघ के सूत्र जोर देकर कहते हैं कि ''वैचारिक तारतम्य वैचारिक स्वामित्व जैसा नहीं होता है’’, यही कारण है कि जब उद्धव ठाकरे ने गठबंधन बदला तो वफादारी में भी खामोशी के साथ बदलाव हुआ. बिहार में संघ और उसके सहयोगी स्पष्ट रूप से 'समरसता (सद्भाव) को एजेंडा बनाकर सूक्ष्म लेकिन व्यापक हिंदुत्व’ की योजना पर काम कर रहे हैं.

इसी तरह, पश्चिम बंगाल में वनवासी कल्याण आश्रम से लेकर भारतीय किसान संघ और एबीवीपी की छात्र इकाइयों तक, संघ से जुड़े सभी संगठनों को सक्रिय कर दिया गया है. 2024 में यहां भाजपा की उम्मीदों को झटका लगा था, जिसकी एक वजह संघ का दूरी रखने का रवैया भी था. अब मेल-मिलाप के बाद पार्टी 2021 के विधानसभा चुनाव के अपने 38 प्रतिशत वोट शेयर में 6-7 प्रतिशत जोड़ने के तरीकों पर विचार कर रही है. योजना का एक हिस्सा यह भी है कि संघ नेटवर्क का उपयोग करके 'संत प्रवास’ को गति दी जाए. यह पूरे बंगाल में धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं को जोड़ने के लिए संपर्क प्रयास है. धार्मिक समूह सीधे प्रचार नहीं करते हैं लेकिन वे अपने-अपने समुदायों के बीच माहौल बना सकते हैं. 

नई चेतना

संघ के सूत्र बताते हैं कि ये सभी कदम 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगे झटके के बाद उठाए गए हैं क्योंकि तब वह अपने दम पर बहुमत के आंकड़े से चूक गई थी और सरकार बनाने के लिए उसे नीतीश के जनता दल (यूनाइटेड) और एन. चंद्रबाबू नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी जैसे सहयोगी दलों की मदद लेनी पड़ी थी. चुनाव बाद हुई विभिन्न आत्मनिरीक्षण बैठकों में भाजपा नेतृत्व ने स्वीकार किया कि मध्य वर्ग के मतदाताओं में मौजूद हिंदुत्व चेतना रातोरात नहीं बनी है. ऐसा माहौल बनाने के लिए वर्षों का संवाद, वैचारिक रूप से चीजों दिशा देना और राय बनाने वाले नेताओं को सावधानी के साथ इस काम में लगाना, जिससे कि जहां राजनैतिक बदलाव सुनियोजित न हो बल्कि एक तरह से अपरिहार्य हो जाए.

भाजपा के सूत्र खुले दिल से मानते हैं कि संघ ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बेशक, मोदी की लोकप्रियता और उनके बेबाक हिंदुत्व ने इसे बढ़ावा दिया, जो समाज के कई वर्गों तक ठीक से पहुंचा. हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के विधानसभा चुनावों के लिए यही बात सच थी जहां भाजपा के पक्ष में कोई लहर नहीं चल रही थी.

चुनावी जीत आंतरिक लहर और योजनाबद्ध कोशिशों का नतीजा थी, इन कोशिशों के तहत कुछ विचारों को सांस्कृतिक स्वरूप का हिस्सा बनाया गया था.

संघ ने जमीन पर भूमिका निभाई और भाजपा को आखिरकार इसका फायदा हुआ. एक ऐसी दौड़ के बाद जब पार्टी रफ्तार के लगातार रिकॉर्ड तोड़ रही थी, तो यह जरूरी हो गया था कि एक वक्त ऐसा आएगा जब रफ्तार धीमी करनी होगी और उन लोगों को धन्यवाद देना होगा जिन्होंने इसे संभव बनाया. भाजपा के लिए वह संघ परिवार होगा. प्रधानमंत्री मोदी की नागपुर यात्रा एक तरह से उसी आभार का प्रकटीकरण थी.

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