चीन का मेडॉग बांध क्यों है भारत के लिए खतरे की घंटी?
चीन की विशालकाय ब्रह्मपुत्र बांध परियोजना ने भारत के लिए बजाई खतरे की घंटी. इसने जल सुरक्षा, पर्यावरण पर पड़ने वाले असर और इस अति महत्वपूर्ण नदी के ऊपरी हिस्से पर चीन के नियंत्रण को लेकर भी चिंता बढ़ाई

अरुणाचल प्रदेश में सियांग और असम में ब्रह्मपुत्र कहलाने वाली यारलुंग त्सांग्पो नदी पश्चिमी तिब्बत में मानसरोवर झील के नजदीक हिमालय पर्वतमाला की उत्तरी ढलानों के आसपास आंग्सी ग्लेशियर की बर्फीली जकड़न से 2,900 किमी लंबा और सर्पीला सफर शुरू कर रही है. शांत और विशालकाय तिब्बती पठार से होते हुए यह पूरब की तरफ बहती है.
तभी इसकी राह में एक रोड़ा आता है—गगनचुंबी 7,782 मीटर ऊंची चोटी नमचा बरवा. मगर नदी कुदरत की सबसे हैरतअंगेज कामयाबियों में से एक का नमूना पेश करते हुए उस भीमकाय पहाड़ के इर्द-गिर्द नाटकीय ढंग से मुड़ जाती है—ग्रेट बेंड या जबरदस्त मोड़, जो धरती पर नदी के सबसे तीखे और शानदार मोड़ों में से एक है.
अब जो होता है, वह खालिस उन्माद-सा है. नदी 500 किमी लंबी और 5,000 मीटर से ज्यादा—यानी दुनिया की सबसे ऊंची इमारत दुबई की बुर्ज खलीफा से भी करीब पांच गुना—गहरी दैत्याकार घाटी यारलुंग त्सांगपो ग्रैंड कैन्यन में छलांग लगा देती है. यह पृथ्वी के सबसे गहरे और खतरनाक दर्रों में से एक है, जहां नदी दहाड़ते हुए दैत्य-सा रूप धारण कर लेती है और उसके पानी में अत्यंत बलशाली खलबली मच जाती है.
ठीक यही वह बिंदु है जहां चीन खलल डालना चाहता है. ग्रेट बेंड की गहरी ढलान पनबिजली की बेमिसाल क्षमता से ओतप्रोत है और बीजिंग ने ठान लिया है कि वह इसका फायदा उठाएगा. मंसूबा क्या है? दुनिया के आखिरी अछूते और भौगोलिक लिहाज से सबसे अस्थिर इलाकों में से एक तिब्बत की मेडॉग काउंटी के बीहड़ भूभाग में गहरे धंसी विशालकाय पनबिजली परियोजना. यह इतनी लंबी-चौड़ी परियोजना है कि मानवीय महत्वाकांक्षा और इंजीनियरिंग की गुस्ताखी का नायाब नमूना पेश करती है.
करीब 137 अरब डॉलर (11.9 लाख करोड़ रुपए) की यह परियोजना अब तक आजमाया गया दुनिया का सबसे शक्तिशाली पनबिजली कारखाना बनने को तैयार है. यह साल में हैरतअंगेज 60 गीगावॉट बिजली तैयार करेगी, जो मौजूदा विश्व रिकॉर्डधारी चीन के अपने थ्री गोर्जेस डैम के उत्पादन से तीन गुना और ब्रिटेन की पूरी सालाना ऊर्जा खपत से भी ज्यादा है.
2033 में इसके पूरा होने की उम्मीद है और इसका भारी-भरकम आकार दिमाग चकराने वाला है. नदी के प्रवाह को करीब आधा मोड़ने के लिए चीनी इंजीनियर नमचा बरवा पहाड़ के आर-पार 12.5 मील तक लंबी सुरंगें खोदने की योजना बना रहे हैं, जो प्रति सेकंड 2,000 घन मीटर—यानी हर सेकंड में ओलंपिक आकार के तीन स्वीमिंग पूल भरने के लिए काफी—पानी का रास्ता बदल देंगी.
क्या है भारत की फिक्र
चीन इस परियोजना को 2060 तक कार्बन तटस्थता हासिल करने के कदम के तौर पर पेश कर रहा है, तो भारत और बांग्लादेश के लिए यह सिर पर मंडराते खतरे की घंटी है. यह बांध जहां बन रहा है, अरुणाचल प्रदेश से बमुश्किल 30 किमी दूर, वह जगह भारत की सरहद के एकदम नजदीक है, जिससे सुरक्षा को लेकर नई दिल्ली के कान खड़े हो गए हैं. इंजीनियरिंग की चूक, भूकंप या छेड़छाड़ से अगर बांध ढह गया, तो नतीजे तबाह करने वाले होंगे. पानी की उत्ताल तरंगें अरुणाचल प्रदेश और असम को चीरते हुए गुजर सकती हैं, जिससे मिनटों के भीतर शहर के शहर नेस्तोनाबूद हो जाएंगे.
वाशिंगटन स्थित साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर माइकल कुगलमैन कहते हैं, ''यह चीनी परियोजना शरारत भर नहीं है. अपनी केंद्रीयकृत अर्थव्यवस्था और अलोकतांत्रिक राजनीति की बदौलत चीन के पास फटाफट पूंजी जुटाने और देरी किए बिना बुनियादी ढांचे की विशालकाय परियोजनाओं को अंजाम देने की क्षमता है. इसका मतलब यह है कि नई दिल्ली को अभी से सोचना शुरू करना होगा कि इसके संभावित घातक प्रभावों—खासकर जल सुरक्षा, पर्यावरण और भूराजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों—को कैसे कम किया जाए."
ब्रह्मपुत्र नदी चार देशों—चीन (50.5 फीसद), भारत (33.6 फीसद), बांग्लादेश (8.1 फीसद) और भूटान (7.8 फीसद)—के लाखों लोगों का भरण-पोषण करने वाली जीवनदायी जलधारा है. यह मात्र जलमार्ग नहीं है, बल्कि खेती, पीने के पानी और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करती है, इसलिए इसके प्रवाह में जरा भी खलल डालना गंभीर चिंता का विषय बन जाता है. भारत के लिए ब्रह्मपुत्र के बहाव को नियंत्रित करने की चीन की क्षमता सबसे अव्वल चिंता की बात है. मॉनसून के दौरान बीजिंग ज्यादा पानी छोड़ दे तो विनाशकारी बाढ़ भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों और खासकर असम और अरुणाचल प्रदेश में तबाही मचा सकती है. व्यापक विस्थापन, बुनियादी ढांचों की तबाही और आर्थिक नुक्सान कहर बरपा सकते हैं.
इसके उलट सूखे महीनों के दौरान जलप्रवाह रोक दिया गया तो खेती, पनबिजली का उत्पादन और पीने के पानी की सप्लाइ चौपट हो सकती है. भारत को तकरीबन 30 फीसद ताजा पानी ब्रह्मपुत्र से मिलता है और इसके प्रवाह में किसी भी दखल से रणनीतिक खतरा हो जाता है. ऑक्सफोर्ड ग्लोबल सोसाइटी की शोधकर्ता जिनेवीव डोनेलन-मे आगाह करती हैं, ''प्रस्तावित पनबिजली परियोजना में यारलुंग त्सांगपो-ब्रह्मपुत्र के प्रवाह की गतिशक्ति को बदलने की क्षमता है, जो भूमिगत जल और सतह के जल स्तरों को प्रभावित करके पानी की उपलब्धता पर असर डाल सकती है."
असम के लिए खेती पर पड़ सकने वाला असर खास तौर पर चिंताजनक है. नदी की गाद पोषक तत्वों से भरपूर है, जिससे चावल, चाय और जूट की खेती को सहारा मिलता है. कोई भी खलल—अत्यधिक बाढ़ या सूखा—खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती और किसानों की आर्थिक कमर तोड़ सकती है.
चीन की पनबिजली महत्वाकांक्षाओं को लेकर भारत की चिंताएं वाजिब और प्रमाण आधारित हैं. अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में 2000 में जबरदस्त बाढ़ आई, जिसे तिब्बत की यिगोंग नदी पर बांध ढहने से जोड़ा गया.
फिर 2012 में सियांग नदी रहस्यमयी तरीके से सूख गई, जिसके लिए तब मुख्यमंत्री के सलाहकार ताको डाबी ने चीन के बांधों को दोषी ठहराया. चीन ने 2016 में लल्हो पनबिजली परियोजना की खातिर भारत की सरहद पर सियाबुकू नदी को रोक दिया, जिससे संदेह और बढ़ गया. साल भर बाद सियांग का पानी काला पड़ गया, जिससे चीन के खिलाफ आरोप फिर सुलग उठे. बीजिंग ने इन दावों को खारिज किया, लेकिन बाद में उपग्रह की तस्वीरों से पता चला कि तिब्बती पठार पर भूकंपों से भूस्खलनों का सिलसिला शुरू हुआ और गाद बहकर नीचे आ गई.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी अध्ययन के प्रोफेसर श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं, ''ऐसे इलाके में जहां खनिजों के लिए प्रचंड खुदाई की जा रही है—तिब्बत में 100 से ज्यादा खनिजों का दोहन किया जा रहा है—पानी इकट्ठा करने से मैलापन पैदा होता है क्योंकि खनन का गंदा बहाव पानी में मिल जाता है और काले कणों का निर्माण करता है. अरुणाचल प्रदेश में पानी के काले पडऩे के उदाहरण देखे गए हैं." अनिश्चितता तब और बढ़ जाती है जब तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का ओपन-सोर्स डेटा बताता है कि 2024 में नदी के प्रवाह का पैटर्न अनियमित हो गया, जो बीते 25 साल के रुझानों से हटकर है.
चीन की महत्वाकांक्षाएं और गहरी चिंता पैदा करती हैं. वह यारलुंग त्सांगपो को अपने बंजर शिनजियांग प्रांत की तरफ मोड़ना चाहता है. डॉ. धवन एकेडमी ऑफ जियोलॉजिस्ट्स के संस्थापक और चेयरमैन और मिनरल एक्सप्लोरेशन ऐंड कंसल्टेंसी लिमिटेड और एनएचपीसी के पूर्व सीएमडी गोपाल धवन आगाह करते हैं कि अगर चीन अंतर-बेसिन जल स्थानांतरण योजना के जरिए पानी जमा करता और उसकी दिशा मोड़ता है, तो ''हमारे यहां विकसित किसी भी परियोजना पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और उसे पानी की कमी से जूझना पड़ेगा.’’ हालांकि कई विशेषज्ञ ऐसी किसी संभावना को खारिज करते हैं, लेकिन शक कायम हैं.
केंद्रीय जल आयोग के पूर्व चेयरमैन ए.के. बजाज कहते हैं, ''मेडॉग बांध पानी को इकट्ठा करने और मोड़ने के बजाए पनबिजली परियोजना ज्यादा मालूम देता है. मगर बुनियादी ढांचे की विशाल परियोजनाएं हाथ में लेने के चीन के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसी संभावना को खारिज भी नहीं किया जा सकता."
इस तरह की अनिश्चितताओं के बीच भारत ने अपनी आशंकाएं चीन के आगे साफ-साफ रख दी हैं. जलधारा के निचले छोर पर बसे होने के नाते भारत के अधिकारों का दावा करते हुए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल कहते हैं, ''चीन की विशाल नदी परियोजनाओं के बारे में अपनी चिंताएं हमने लगातार उठाई हैं.’’ वे यह भी कहते हैं कि भारत अनुप्रवाह के हितों की हिफाजत करने और ''हमारे हितों की रक्षा करने के लिए जरूरी कदम उठाने’’ के लिए चीन पर दबाव डालता रहेगा.
पानी पर चीन की बपौती
तिब्बती पठार पर 10 बड़ी नदी प्रणालियां फलती-फूलती हैं और दर्जन भर से ज्यादा एशियाई देशों का भरण-पोषण करती हैं. इनमें से दो अपनी भूराजनीतिक अहमियत की वजह से अलग हैं: दक्षिणपूर्व एशिया से होकर गुजरने वाली मेकांग, और ब्रह्मपुत्र. इन नदियों पर बांध बनाने की चीनी आक्रामकता से खतरे की घंटियां इसलिए भी बज उठी हैं क्योंकि इसके जरिए वह पानी पर अपनी बपौती साबित करना चाहता है. वह पानी साझा करने की किसी भी संधि पर दस्तखत करने से इनकार करता है. मेकांग को लेकर चीन का बर्ताव भारत और बांग्लादेश के लिए कड़ी चेतावनी है.
बीते दो दशकों में बीजिंग ने इस नदी के ऊपरी पाटों पर 12 विशाल बांधों का निर्माण किया, नीचे की ओर प्राकृतिक प्रवाह में खलल डाला और पर्यावरण पर पड़ रहे दबाव को और बदतर बना दिया. 2019 में औसत से ज्यादा बारिश के बावजूद चीन के ऊपरी बांधों ने रिकॉर्ड मात्रा में पानी की जमाखोरी की, जिससे थाइलैंड, कंबोडिया और वियतनाम में सूखा पड़ने लगा. 2021 में उसने बिजली व्यवस्था के रख-रखाव का हवाला देते हुए पहले से इत्तला दिए बिना मेकांग के प्रवाह में 50 फीसद तक कटौती कर डाली, जिससे लाखों लोग सिंचाई, मछली पकड़ने और पेयजल के लिए जद्दोजहद करते रह गए. इन एकतरफा कार्रवाइयों से डर और आशंकाओं की चिनगारियां सुलग उठीं कि चीन ब्रह्मपुत्र के मामले में भी ऐसी ही चालें चल सकता है.
मेडॉग बांध यूं ही कोई फुटकर किस्म की परियोजना नहीं बल्कि एक विराट रणनीति का हिस्सा है. एरिजोना यूनिवर्सिटी के भूगोल, विकास और पर्यावरण स्कूल के डॉक्टरल रिसर्चर सयनांशु मोदक का कहना है कि यारलुंग त्सांगपो के विस्तार को पनबिजली के लिए 2003 में ही चिन्हित कर लिया गया था. 2010 के दशक से ही चीन ने ब्रह्मपुत्र के ऊपरी फैलावों पर अपने पनबिजली पदचिन्हों का लगातार विस्तार किया.
2015 में बनकर पूरे हुए जांग्मू बांध ने दागू, जिआचा और जिएक्सू में आगे की परियोजनाओं का मंच तैयार कर दिया. उपग्रह की तस्वीरों से अब पता चलता है कि नदियों पर बड़े और छोटे करीब 20 बांध बीजिंग की लंबे वक्त की जल महत्वाकांक्षाओं की तरफ इशारा करते हैं. कुगलमैन कहते हैं, ''हाल की यह चाल इलाके के जल भूगोल पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए बीजिंग का ताजातरीन कदम मालूम देती है.’’
भारत मेडॉग बांध को दी गई चीन की मंजूरी के वक्त को लेकर भी चौकन्ना है. यह मंजूरी ऐसे वक्त दी गई जब नई दिल्ली और बीजिंग ने डोकलाम (2017) और गलवान (2020) के समय से चले आ रहे लंबे कूटनीतिक ठहराव के बाद बातचीत अभी शुरू ही की थी. कई विश्लेषक इसे सीमा वार्ताओं में भारत पर दबाव डालने की सोची-समझी चाल मानते हैं. संभावना यही है कि जमीनी विवादों को सरहद-पार नदियों के साथ गूंथकर बीजिंग साफ कहे बिना रणनीतिक रियायतें हासिल करना चाहता है.
हिमालयी भूल?
भारत और बांग्लादेश पर चीन के मेडॉग बांध के संभावित असर पर बहस जारी है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि इसके निर्माण से हिमालयी क्षेत्र के नाजुक पर्यावरण संतुलन के लिए भारी जोखिम पैदा हो रहे हैं. बांध से भूकंप के झटके आ सकते हैं, जिसे जलाशय-प्रेरित भूकंप कहा जाता है. यानी एक इलाके में पानी के जमाव के भारी वजन से धरती की चट्टानों की फॉल्ट लाइने डोलने लगती हैं.
ऑस्ट्रेलिया की जेम्स कुक यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ साइंस ऐंड इंजीनियरिंग के एडजंक्ट प्रोफेसर और ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के फेनर स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट ऐंड सोसाइटी के एमेरिटस प्रोफेसर रॉबर्ट वैसन तथा डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर स्टडीज इन जियोग्राफी में असिस्टेंट प्रोफेसर शुन्न्ला आचार्जी चेतावनी देते हैं, ''एक भारी-भरकम बांध का वजन धरती की परतों पर तगड़ा दबाव डालकर हल्का-फुल्का भूकंप ला सकता है. पहले से ही भूकंप की अत्यधिक आशंका वाले क्षेत्र में इस तरह का दबाव अप्रत्याशित रूप से खतरनाक हो सकता है."
भूकंप के खतरों के अलावा बांध के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई होनी है. जाहिर है, इससे समूचे क्षेत्र की हरियाली और प्राकृतिक विविधता का नुक्सान होगा. पेड़ों की जड़ों की जकड़न के बिना मिट्टी ढीली होगी और भारी बारिश से घातक भूस्खलन हो सकता है, जिससे बांध के टूटने का खतरा बढ़ जाता है. जलवायु परिवर्तन की वजह से पहले से ही टूट रहे हिमालय में ग्लेशियरों की झील के फटने से बाढ़, हिमस्खलन और भूस्खलन में वृद्धि देखी गई है.
मोदक कहते हैं, ''22 मार्च, 2021 को यारलुंग त्सांगपो के ग्रैंड कैन्यन के बाएं किनारे पर सेडोंगपू नदी बेसिन में एक विशाल ग्लेशियर टूट गया और नदी की धारा रुक गई और जल स्तर 10 मीटर तक बढ़ गया.’’ वैसन और आचार्जी का मानना है कि त्सांगपो गॉर्ज भूगर्भ में अधिक गतिशील और शायद धरती पर सबसे अधिक सक्रिय क्षेत्रों में से एक है. ''इससे बड़े पैमाने पर बाढ़ का खतरा पैदा होता है, जिसमें अधिकतम प्रवाह 10 लाख घन मीटर प्रति सेकंड तक पहुंच जाता है. ऐसी एक भी बाढ़ गॉर्ज को 4,000 साल के वार्षिक प्रवाह के बराबर नष्ट कर सकती है."
इस क्षेत्र की अस्थिर भू-आकृति भी बांध की स्थिरता के लिए खतरनाक हो सकती है. भूकंप, भारी गाद और भूस्खलन बांधों को कमजोर कर देंगे. 7 जनवरी के भूकंप के बाद तिब्बत में 14 पनबिजली बांधों की जांच में पांच में बड़ी दरारें पाई गईं, जिससे तीन को खाली करना पड़ा. तिब्बत, हिमालय और एशिया के पर्यावरणीय, सांस्कृतिक और जलवायु इतिहास में विशेषज्ञता रखने वाले ऑस्ट्रेलिया की ला ट्रोब एशिया, ला ट्रोब यूनिवर्सिटी की उप-निदेशक (शोध) रुथ गैंबल कहती हैं, ''यह धरती पर सबसे ज्यादा गाद समृद्ध और गाद पैदा करने वाला इलाका है. उसी के चलते बांधों के जल्दी कमजोर पड़ने से निचले हिस्से में रहने वाली आबादी के लिए खतरा बढ़ जाता है."
चीन का कहना है कि उसकी मेडॉग परियोजना स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव लाने वाली है, न कि कोई भूराजनीतिक विध्वंस का साधन. भारत में चीनी दूतावास के प्रभारी वांग ली ने भारत और बांग्लादेश पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों की चिंताओं को खारिज कर दिया और परियोजना को जलवायु के अनुकूल बताया, जिससे जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में कमी आएगी और 30 करोड़ लोगों को बिजली मुहैया होगी. इसी तरह, चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने जोर देकर कहा कि परियोजना का गंभीर वैज्ञानिक मूल्यांकन किया गया है और इससे निचले क्षेत्र का पर्यावरण संतुलन, भूवैज्ञानिक स्थिरता या जल अधिकारों को कोई खतरा नहीं.
बीजिंग का तर्क है कि इससे भारत और बांग्लादेश में बाढ़ को कम करने और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निबटने में मदद मिलेगी. हालांकि, मेडॉग बांध पर चीन के दावे खोखले लगते हैं, क्योंकि बहुत कुछ गोपनीय रखने, एकतरफा फैसले करने और सीमा पार नदियों के मामले में अपनी प्रतिबद्धताओं को तोडऩे का उसका पुराना रिकॉर्ड रहा है. स्वतंत्र शोधकर्ता गेब्रियल लाफिट ने इस पर रोशनी डाली है कि पिछली चीनी परियोजना की घोषणाएं तो बड़ी-बड़ी और लंबी-चौड़ी थीं, लेकिन अमल के ब्यौरे काफी कम थे.
बांध का जवाब बांध
एक दशक पहले भारत ने ब्रह्मपुत्र की ऊपरी धारा पर चीन के बांध निर्माण की होड़ में एक रक्षात्मक पनबिजली परियोजना की रणनीति शुरू की थी. यह 'फर्स्ट यूजर’ के अंतरराष्ट्रीय कानूनी सिद्धांत के अनुरूप था, जिससे पहले वाले को जल अधिकार मिलता है. इसलिए भारत की योजना का उद्देश्य नदी के प्रवाह पर पहले से ही नियंत्रण सुरक्षित करना है. कुगलमैन कहते हैं, ''भारत अभी भी सीमा के पास अपने बांध बनाकर बीजिंग को चुनौती दे सकता है, ताकि चीन को किनारे रखा जा सके. इससे नई दिल्ली को बीजिंग के साथ संभावित जल वार्ता में कुछ लाभ मिलेगा.’’
बीजिंग की मेडॉग बांध की घोषणा के बाद भारत ने सियांग अपर बहुउद्देशीय परियोजना (एसयूएमपी) की योजनाओं को तेज कर दिया है. यह अरुणाचल प्रदेश में विशाल पनबिजली बांध है, जिसका मकसद नदी पर चीन के प्रभाव का मुकाबला करना है. प्रस्तावित 11,000 मेगावाट क्षमता और 9.2 अरब घन मीटर जलाशय के साथ एसयूएमपी चीन के मेडॉग बांध से कहीं आगे निकल जाएगा, जिसमें 5.5 अरब घन मीटर है.
1.5 लाख करोड़ रुपए (17 अरब डॉलर) की अनुमानित लागत से बनने वाली यह भारत की सबसे शक्तिशाली पनबिजली परियोजना होगी, जिसे जल प्रवाह को नियंत्रित करने, सूखे महीनों में पानी आपूर्ति और चीनी बांधों से अचानक बढ़ने वाले पानी के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने के लिए डिजाइन किया गया है. अरुणाचल प्रदेश के सियांग जिले के दूरदराज के गांव पारोंग में इसकी व्यावहारिकता का सर्वे चल रहा है. लेकिन 2017 में नीति आयोग के प्रस्ताव के बाद से एसयूएमपी का विरोध शुरू हो गया क्योंकि इसके डूब क्षेत्र में 30 गांव हैं और हजारों लोगों को विस्थापित होना है.
जानकार बड़े बांध बनाने की होड़ के खिलाफ चेताते हैं क्योंकि इससे चीन अपनी परियोजनाओं की रफ्तार बढ़ा सकता है. इस तरह के कदम से बांग्लादेश के साथ संबंधों में भी तनाव आ सकता है, जो ब्रह्मपुत्र बेसिन प्रबंधन ढांचे में निचली धारा का अहम साझीदार है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी और दक्षिण पूर्व एशियाई अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर बी.आर. दीपक कहते हैं, ''चीन की परियोजनाओं के बारे में हमने जो चिंताएं जताई हैं, वे बांग्लादेश के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक हैं.’’
जानकारों का कहना है कि बांध निर्माण की होड़ में पडऩे के बजाए भारत को अपने पूर्वोत्तर जल प्रबंधन तंत्र को मजबूत करना चाहिए. इसमें उपग्रह प्रौद्योगिकी का उपयोग करके चीन से स्वतंत्र नदी प्रवाह निगरानी को बढ़ाना, बाढ़ जोखिम आकलन को बेहतर करना और टेलीमेट्री स्टेशनों को उन्नत करना शामिल है. गैंबल कहती हैं, ''भारत ने यारलुंग त्सांगपो पर चीन के प्रवाह डेटा का अभी तक गहन विश्लेषण नहीं किया है. बांध निर्माण पर धमकियां देने के बजाए भारत को क्षेत्र के जल विज्ञान और जोखिमों की गहरी समझ बनाने की कोशिश करनी चाहिए.’’
भारत और चीन ब्रह्मपुत्र, सतलज और सिंधु समेत कई नदियों का जल साझा करते हैं. हालांकि, औपचारिक संधि के अभाव में जल-बंटवारा एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है. चीन के ऊपरी तटवर्ती लाभ के बावजूद, भारत संयुक्त राष्ट्र जलमार्ग सम्मेलन जैसे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत कोई भी देश किसी दूसरे को अहम नुक्सान पहुंचाने वाली कार्रवाई नहीं कर सकता.
हालांकि, न तो भारत और न ही चीन ने हस्ताक्षर किए हैं, और किसी भी ब्रह्मपुत्र घाटी वाले देश ने गैर-नौवहन जल उपयोग पर 2014 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की पुष्टि नहीं की है, जिससे पहले उपयोगकर्ता का अधिकार नियम लागू नहीं हो पाया है.
ब्रह्मपुत्र के अशांत जल में, अस्तित्व बांधों की ताकत पर नहीं बल्कि देशों की दूरदर्शिता पर निर्भर करेगा.
—साथ में इंडिया टुडे पूर्वोत्तर ब्यूरो