प्रधान संपादक की कलम से
अतीत के जंजाल में खींच ले जाने वाला अकेला महाराष्ट्र ही नहीं है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दूसरे राज्यों में भी मस्जिदों, मंदिरों, दरगाहों, भुला दिए गए शासकों और भूले-बिसरे ग्रंथों को लेकर ऐसे ही नजारे दिखे हैं

—अरुण पुरी
भारत में अतीत शांति से दफन होने को तैयार नहीं. वह बेचैन आत्मा की तरह हमारी जिंदगियों में उथल-पुथल मचाने बार-बार लौट आता है, गुस्सा भड़काता है, बहस शुरू करवाता है और फटाफट हमारे राजनैतिक विमर्श की दिशा मोड़ देता है. जो विद्वानों और स्कूल-कॉलेज की कक्षाओं का शगल होना चाहिए, वह अदालतों, विधानसभाओं और यहां तक कि सड़क पर हिंसक वारदात में फूट पड़ता है.
इस हफ्ते की आवरण कथा इसी पहेली की पड़ताल करती है, जो अब कोई विसंगति नहीं, बल्कि पैटर्न है: यानी राजनैतिक मकसद के लिए इतिहास को हथियार बनाना. यह विषय जरूरी और असहज दोनों है. महाराष्ट्र में ताजा बहस मौजूदा आर्थिक संकट या इन्फ्रास्ट्रक्चर की चुनौतियां नहीं, बल्कि सुदूर अतीत 1707 में मर चुके मुगल बादशाह औरंगजेब की कब्र है.
यह आग छत्रपति शिवाजी के पुत्र संभाजी के जीवन पर आधारित फिल्म छावा ने भड़काई. उसके 40 मिनट लंबे क्लाइमैक्स में औरंगजेब के हाथों संभाजी की यातनाओं को बड़े विस्तार और दर्दनाक ढंग से फिल्माया गया है. विक्की कौशल (संभाजी) और अक्षय खन्ना (औरंगजेब) के जोरदार अभिनय ने आश्वस्त किया कि भावनाएं सिर्फ परदे तक ही सीमित न रहें.
वे सोशल मीडिया, महाराष्ट्र विधानसभा और फिर सड़कों पर फैल गईं. बहस कला पर नहीं, पुरखों, पहचान और अपमान पर छिड़ गई. एक मौजूदा विधायक अबू आजमी ने औरंगजेब के प्रति कुछ नरम रुख दिखाया तो सदन से निलंबित हो गए. हिंदुत्व के पैरोकारों ने खुल्दाबाद में बादशाह की कब्र को हटाने की मांग उठाई, जो सदियों से शांत पड़ी रही है, मराठा राज में भी. इस्लामी निशान की कथित बेअदबी से नागपुर में दंगे भड़क उठे, जिसमें एक की जान गई.
अतीत के जंजाल में खींच ले जाने वाला अकेला महाराष्ट्र ही नहीं है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और दूसरे राज्यों में भी मस्जिदों, मंदिरों, दरगाहों, भुला दिए गए शासकों और भूले-बिसरे ग्रंथों को लेकर ऐसे ही नजारे दिखे हैं. वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद मामला, संभल में शाही जामा मस्जिद को लेकर कानूनी लड़ाई और अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का विवाद ये सभी गहरे मर्ज का लक्षण हैं कि देश आज की समस्याओं को लेकर नहीं, बल्कि इस वजह से तेजी से बंटता जा रहा है कि बीते कल को कैसे याद किया जाए.
यह कोई अचानक उभरी बात नहीं है. यह सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या फैसले में नए विवादों पर ढक्कन लगाने के आदेश के बाद भी इतिहास का बदला लेने की मुहिम तेज ही होती गई है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी विवाद खत्म करने की बात की. उन्होंने कहा, ''हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग की तलाश नहीं करनी चाहिए." फिर भी मुहिम तो बिल्कुल वही लगती है. पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून, 1991 की वैधता को चुनौती दी गई है, जिसे ऐसे स्मारकों को हमलों या कानूनी विवादों से बचाने के लिए लाया गया. इसकी संवैधानिकता पर अदालत के फैसले का इंतजार है.
सुनील आंबेकर जैसे आरएसएस प्रवक्ता ने औरंगजेब विवाद को ''अप्रासंगिक" बताया है, जबकि उसकी सहयोगी विश्व हिंदू परिषद (विहिप) मुखर और सक्रिय है. विहिप अध्यक्ष आलोक कुमार कहते हैं, ''हम औरंगजेब के महिमामंडन के खिलाफ हैं. विहिप उन नायकों की याद में स्मारक बनाने के लिए काम कर रही है, जिन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई थी."
ये विरोधाभासी आवाजें उलझन पैदा कर सकती हैं, लेकिन अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह संघ परिवार के भीतर वैचारिक विविधता के अनुरूप हैं—और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमृत काल के 'पंच प्रण' के साथ भी मेल खाती हैं, जिसका लक्ष्य औपनिवेशिक मानसिकता के सभी निशानों को मिटा देना है.
यही गहरी उलझन है. हम इतिहास में से किसके पक्ष की सफाई कर रहे हैं? और कौन तय करे कि ''औपनिवेशिक मानसिकता" क्या है? क्या सभ्यतागत पहचान में गौरव का नया दावा करने की ख्वाहिश लोकतांत्रिक बहुलता से मेल खाती है? क्या किसी आधुनिक देश के लिए मध्ययुगीन गलतियों को दुरुस्त करने में मशगूल होकर समकालीन नाइंसाफियों को भुलाना गवारा हो सकता है?
यह आवरण कथा सिर्फ विवाद की फेहरिस्त नहीं, यह बुनियादी सवाल पूछती है. इतिहास की स्मृतियों को राजनैतिक ईंधन बनाया जाता है तो वह ज्वलनशील हो उठता है. हम गवाह हैं कि कितनी आसानी से पुराने प्रतीकों को आज के उकसावे में बदला जा रहा है.
मेहमान के पन्ने में लेखक अमीश भारत के ''सभ्यतागत सम्मान" का आह्वान करते हैं और सुझाते हैं कि औरंगजेब की अस्थियां सम्मानपूर्वक पाकिस्तान भेज दी जानी चाहिए. इतिहासकार पुरुषोत्तम अग्रवाल भारतीय नागरिकता को स्वाभाविक ''अधिकार" की जगह ''दया" का मामला बनाने के प्रति आगाह करते हैं.
वे लिखते हैं कि खतरा एक समुदाय के नैरेटिव को राष्ट्रीय आख्यान बनाने में है-जिससे अल्पसंख्यक अपने ही देश में मेहमान की तरह महसूस करने लगते हैं. लेकिन हम अगर इतिहास को बुद्धिमानी से पढ़ें तो उसमें बहुलतावाद की भी सीख है. शिवाजी ने औरंगजेब को लिखे एक पत्र में उसके महान पूर्वज अकबर की याद दिलाई, "सही शासन का मतलब है विविधता की ताकत को समझना."
यह चतुर कूटनीति से ज्यादा साझा नियति का नजरिया था. उन्हीं कूटनीतिक और समावेशी शिवाजी को आज हमें याद करना चाहिए. सिर्फ योद्धा नहीं, बल्कि राजनेता शिवाजी, जो समझते थे कि देश की ताकत बिना लकीर खींचे मतभेदों को समेटने की क्षमता में है.
अपने अतीत की पुनर्व्याख्या में हमें अति सरलीकरण से जरूर सावधान रहना चाहिए. हर दौर पेचीदा होता है, हर शासक विरोधाभासी होता है. इतिहास को नायकों और खलनायकों के आख्यान में बदलने से तात्कालिक राजनीति का मकसद तो साधा जा सकता है, लेकिन सभ्यता की बौद्धिकता कमजोर हो जाती है.
विरासत पर नए दावे और प्रतिशोध के बीच बड़ा बारीक फर्क है. समाज के तौर पर हमें यह जरूर पूछना चाहिए कि हम भविष्य को संवार रहे हैं या उसे सदियों पुराने टंटों का हिसाब चुकाने के लिए गिरवी रहे हैं. भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने की ओर ताक रहा है.
लेकिन देश की ऊर्जा अगर सांस्कृतिक झगड़े निबटाने में ही हमेशा जुटी रहती है तो कोई वास्तविक विकास नहीं हो सकता. इतिहास आगे की ओर तभी झुकता है, जब हम उसे झुकने दें. कहा जाता है कि जिन पर अतीत का जुनून सवार रहता है, वे अक्सर भविष्य भी गंवा बैठते हैं. आइए तय करें कि हम इस सचाई को भुला देने वाला देश न बनने पाएं.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).