क्या अतीत की कब्र खोदकर होगा भविष्य का निर्माण?
इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो एक तथ्य यह भी है कि सत्तालोलुप और असहिष्णु होने के साथ ही औरंगजेब ने मजबूत अर्थव्यवस्था वाले और अपेक्षाकृत विशाल भारतीय साम्राज्य की केंद्रीय कमान अपने हाथ में संभाल रखी थी.

औरंगजेब की कब्र ध्वस्त करने की मांग ऐसी ड्रामा सीरीज की ताजा कड़ी की तरह है, जिसके कुछ एपिसोड प्रसारित हो चुके हैं और शेष अभी आने बाकी हैं. यह सीरीज और कुछ नहीं हिंदुत्ववादी सियासी परियोजना का हिस्सा है जो पिछले कुछ समय से हर तरफ छाई नजर आ रही है और औरंगजेब इस कथानक के सबसे महत्वपूर्ण किरदारों में से एक हैं.
इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो इसमें कोई दो-राय नहीं कि औरंगजेब सत्तालोलुप था और इसके लिए हर हथकंडा अपनाने में आगे था. यह भी कह सकते हैं कि किसी औसत मध्ययुगीन शासक की तुलना में वह बेहद ही क्रूर था. उसका जीवन संदेहास्पद था और वह मानवीय रचनात्मकता की कलात्मक अभिव्यक्तियों के प्रति असहिष्णु भी था. लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उसने मजबूत अर्थव्यवस्था वाले और अपेक्षाकृत विशाल भारतीय साम्राज्य की केंद्रीय कमान अपने हाथ में संभाल रखी थी.
और पूरे साम्राज्य पर उसने यह नियंत्रण हिंदू अभिजात वर्ग, सामंती जमींदारों, व्यापारियों और बुद्धिजीवियों के समर्थन से हासिल किया था. यह अलग बात है कि साम्राज्य के विशाल आकार की वजह से वह इस पर अपना नियंत्रण कायम नहीं रख पाया. लेकिन शायद इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उसकी नाकामी का एक कारण अकबर के सुलह-ए-कुल (सहिष्णुता और संवाद) मॉडल पर पर्याप्त ध्यान न देना था, जिसका शिवाजी के एक चर्चित पत्र में उल्लेख भी मिलता है.
जाहिर है, आज का हिंदुत्व इस मामले में शिवाजी को भी खारिज कर देगा. आखिरकार, कोई अकबर और उसकी नीतियों की प्रशंसा कैसे कर सकता है? वह भी एक मुगल शासक था, एक मुसलमान था इसलिए हिंदू राष्ट्र के खांचे में फिट नहीं बैठता. 'कौन कहता है अकबर महान था?’ यह सवाल सिर्फ हिंदुत्ववादी 'इतिहासकार’ पी.एन. ओक की लिखी पुस्तक का शीर्षक भर नहीं है, बल्कि सामान्य हिंदुत्व धारणा में बयानबाजी का हिस्सा रहा है. अभी नौ साल पहले की ही बात है कि भाजपा के कुछ शीर्ष नेता चाहते थे कि दिल्ली में अकबर रोड का नाम बदल दिया जाए.
चाहे वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद हो, लुटियन्स दिल्ली की सड़क या फिर संभल की मस्जिद अथवा संभाजीनगर स्थित कब्र, यहां सिर्फ अतीत की तथ्यात्मक सचाई ही नहीं, हमारे भविष्य की कल्पना भी दांव पर लगी है. दर्ज किया हुआ इतिहास और आम जनस्मृति दोनों में ही अतीत को हिंदुत्व परियोजना की जमीन का आधार तैयार करने में कच्चे माल की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है. यह भूख शांत होने का नाम नहीं लेती. औरंगजेब की कब्र के बाद बात ताजमहल और लाल किले पर आ सकती है. आखिरकार, हिंदुत्ववादियों का तर्क तो यही है कि ताजमहल मूल रूप से शिव मंदिर था और लाल किला तोमर वंश का बनवाया लाल कोट.
इसलिए, मुद्दा यहां यह है कि इस परियोजना पर मंथन किया जाना चाहिए. क्या यह भारतीय समाज को समृद्ध और खुशहाल भविष्य की ओर ले जाने में सक्षम है? क्या ऐतिहासिक तथ्यों के लिहाज से प्रामाणिक है? विडंबना यह है कि हिंदुत्ववादी सियासी परियोजना खुद इस संबंध में आश्वस्त नहीं दिखती और इसलिए तर्कपूर्ण चर्चा के बजाए भावनाएं आहत होने का सहारा लिया जाता है.
किसी भी अधिनायकवादी राजनैतिक परियोजना की तरह हिंदुत्व भी निरंतर भावावेश और अतीत के घावों को उकेरने पर निर्भर है और इसे हमारे जनसंचार माध्यमों के बड़े हिस्से का मुखर समर्थन हासिल है. मीडिया शासन के वास्तविक मुद्दों के बजाए इस तरह के मुद्दों को हवा देने में जुटा है. जाहिर है, असल बात इतिहास नहीं राजनीति केंद्रित है, अन्यथा ब्रिटिश राज के अवशेषों को हटाने की भी मांग की जाती. सियासी संदेश साफ है- यहां हिंदू ही राष्ट्र हैं, बाकी सभी समुदाय खासकर मुसलमान केवल उनके रहमोकरम पर रह सकते हैं, यह उनका अधिकार नहीं है.
इतिहास गवाह है, दूसरों का दमन करने वालों के रूप में मुसलमानों पर ही राजनैतिक हिंदुत्व का अस्तित्व टिका है. लेकिन इसे सिर्फ इतिहासकारों के दखल के जरिए बदला नहीं जा सकता, भले ही वह कितना भी प्रामाणिक और ईमानदार क्यों न हो. इस मुद्दे को सिर्फ और सिर्फ भारत के भविष्योन्मुखी समावेशी और लोकतांत्रिक विचार की राजनीति के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है. यही हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का मूल था और अब तक सामान्य तौर पर अपना आधिपत्य जमाए है. हिंदुत्व सभ्यतागत प्रामाणिकता के दावे के साथ इसमें अपने मनमुताबिक बदलाव की मंशा रखता है.
हालांकि, यह दावा शायद ही सही हो क्योंकि यह भारतीय सांस्कृतिक अनुभव और इसकी विविधता के गतिशील चरित्र को नजरअंदाज करता है. दूसरी ओर, भारत का समावेशी विचार भारतीय सभ्यता की व्यापक निरंतरता और ऐतिहासिक रूप से विकसित होती इसकी विविधता दोनों को मान्यता देता है. जवाहरलाल नेहरू ने सबसे उपयुक्त ढंग से भारतीय सभ्यता की तुलना ऐसे दस्तावेज से की थी, जिसमें सदियों से समय-समय पर नई इबारतें लिखी जाती रही हैं. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने इस दस्तावेजी सभ्यता से उबरकर एक आधुनिक राष्ट्र बनने का दुरूह कार्य कर दिखाया है.
इसके लिए मानवीय और लोकतांत्रिक समाज की साझा कल्पना को ध्यान में रखकर ऐतिहासिक तनावों को दूर करना और जाति, समुदाय और सांस्कृतिक स्तर पर दरारों को सहजता के साथ भरना जरूरी था और आज भी है. अकबर, शाहजहां और औरंगजेब को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप उनके स्मारकों और प्रतीक चिन्हों के साथ क्या कर रहे.
लेकिन एक सभ्यता और एक राष्ट्र-राज्य के तौर पर भारत के आज और भविष्य के लिए यह बात बेहद मायने रखती है. क्या हम सिर्फ धार्मिक आस्था के आधार पर कुछ भारतीयों को अत्याचारी ठहराकर एक सुखद भविष्य का निर्माण कर पाएंगे? क्या किसी समाज की बेहतरी अपने अतीत पर लगातार नाराजगी में छिपी है? क्या हम किसी कब्र को ध्वस्त करके और किसी ऐतिहासिक चरित्र को उसके समय की खूबियों-खामियों के पैमाने पर परखकर इतिहास को मिटा सकते हैं?
क्या हम भारतीय सभ्यता में क्रमिक बदलावों के दस्तावेजों को संरक्षित करने में भरोसा करते हैं या उन्हें मिटा देना चाहते हैं? क्या हम खुद को भविष्य की इमारत बनाने वाले के तौर पर देखते हैं या अतीत की कब्र खोदने वाले बने रहना चाहते हैं? यही असली सवाल है और हमारा भविष्य इस पर निर्भर है कि हम इसका उत्तर किस तरह देते हैं.
पुरुषोत्तम अग्रवाल एक इतिहासकार हैं जो पिछले पांच दशकों से हिंदू राष्ट्रवाद पर अध्ययन से जुड़े हैं. फिलहाल महाभारत पर एक किताब लिख रहे हैं. किसी अधिनायकवादी राजनीतिक परियोजना की तरह हिंदुत्व भी निरंतर भावावेश और अतीत के घावों को खोदने पर निर्भर है.
ये लेख इंडिया टुडे मैगजीन के लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखी है.