GDB सर्वे: क्या महिलाओं को अपने हक के पैसे पर दावा करना चाहिए, जानिए लोगों ने क्या कहा?
इंडिया टुडे के हालिया GDB सर्वे में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंताजनक रुझान सामने आए जो बताते हैं कि उनकी क्षमता, योग्यता या अपेक्षित अधिकारों की धार को इस तरह कुंद किया गया कि वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुरूप ही ढल जाएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि सामाजिक व्यवहार को समझना आसान काम नहीं है. जीडीपी या एक्यूआई जैसे आंकड़ों का हमारे रोजमर्रा के जीवन से वास्ता पड़ता रहता है. इन संख्याओं के विपरीत सामाजिक प्रतिक्रियाओं को मापना काफी मुश्किल है. भले ही इसमें कितने भी स्थापित सिद्धांत, तंत्र और शोध के तरीकों को समाहित कर लिया जाए. विविध सामाजिक परिदृश्यों में मनुष्यों के बोलने-चालने, कोई काम करने या किसी चीज पर प्रतिक्रिया देने के पीछे कई जटिल कारक काम करते हैं.
बहरहाल, इंडिया टुडे के सकल घरेलू व्यवहार सर्वेक्षण में संभावित व्यवहार पैटर्न के संकेतक के तौर पर मुख्यत: चार बिंदु उभरकर सामने आए हैं, जिन्हें सामाजिक व्यवहार को समझने का सबसे बेहतर विकल्प माना जा सकता है. सर्वेक्षण में स्त्री-पुरुष सोच का आकलन राज्यों के शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के विविधतापूर्ण और व्यापक परिदृश्य में लोगों की व्यवहारगत समझ को दर्शाता है और इसे नैतिक, जानी-समझी और विवेकपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए छह प्रमुख मानकों पर परखा गया है.
इसे आश्चर्यजनक मानें या सुखद पहलू लेकिन लगभग सभी सवालों पर शहरी और ग्रामीण भारत की सोच तकरीबन एक जैसी दिखती है, जो बड़े सामाजिक परिवर्तन को दर्शाती है क्योंकि यह सर्वे आमतौर पर शहरों और गांवों के बीच नजर आने वाली एक चौड़ी खाई को पाटता दिखता है. हालांकि, ऐतिहासिक 'समानता की ओर' (टुवर्डस इक्वेलिटी) रिपोर्ट के पचास साल बाद ये सर्वे देश में महिलाओं की स्थिति पर कुछ चिंताजनक आंकड़े सामने लाता है. जाहिर है, '70 और '80 के दशक में महिलाओं के आंदोलनों के बावजूद यह स्थिति सवाल खड़े करती है.
बात न मानने पर पत्नी को पीटने को गलत न मानना अभी भी लिंग आधारित हिंसा का बहुत ठोस संकेतक है और हर स्थिति और हर जगह समान रूप से नजर आता है. ग्रामीण-शहरी आबादी के औसतन 8.5 फीसद लोगों का ''कुछ हद तक'' इससे सहमत होना काफी हैरान करने वाला है. बात सिर्फ इतनी नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा देश के लिए चिंता का सबब है, बल्कि विषय इतना व्यापक और जटिल है कि इसे महज एक छोटी-सी टिप्पणी में नहीं समेटा जा सकता.
राष्ट्रीय सूचकांक में 70 फीसद लोगों ने ''दृढ़ता से असहमति'' जताकर जाहिर है निर्णायक रूप से बहस का रुख बदल दिया है, जिसे राहत की बात माना जा सकता है. वैसे, मेरी व्यक्तिगत राय में यह तथ्य ही निराशाजनक है कि यह प्रश्न अन्य संकेतकों के साथ शामिल होना चाहिए, क्योंकि इससे पता चलता है कि डिजिटल दुनिया वाली हमारी 21वीं सदी में भी सोच में बड़ा बदलाव नहीं आया है, और स्त्री-पुरुष दृष्टिकोण के मामले में घरेलू दुर्व्यवहार और महिलाओं के साथ हिंसा आज भी वास्तविक चिंता के संकेतक बने हुए हैं.
अगर स्त्री-पुरुष समानता और इसके लिए महिलाओं के संघर्ष को इस अर्थ में देखा जाए कि उन्हें मताधिकार और वोट देने की सहूलत शुरू में ही मिल गई थी तो करीब एक सदी बाद भी मर्जी से और स्वतंत्र सोच के साथ ऐसा करने में असमर्थ होना निश्चित तौर पर महिलाओं के अधिकारों को जायज नहीं ठहराता. यह धारणा कि वयस्क महिलाओं के बौद्धिक निर्णय या जायज पसंद-नापसंद भी परिवार में पुरुषों की पुष्टि पर निर्भर करती है, भारत में स्त्री-पुरुष समानता की बात को पूरी तरह बेमानी कर देती है. भारत में महिलाएं हों या पुरुष, चाहे ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हों या शहरी, लगभग आधी आबादी का यही मानना है कि पुरुष घरेलू मामलों में बेहतर ढंग से निर्णय ले सकते हैं.
यह एक तरह से सही मायने में महिलाओं को स्वतंत्र और सशक्त होने का मौका न देने जैसा है. एक-चौथाई लोगों ने निर्णायक तौर पर नहीं कहा लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि केरल समेत देश के दक्षिणी राज्यों ने इस मामले पर ''पूरी तरह असहमति'' जताई. क्या मातृवंशीय या मातृसत्तात्मक समाज या शायद साक्षर आबादी स्त्री-पुरुष समीकरण को संतुलित कर रही है? सर्वेक्षण में असम के अलावा बाकी पूर्वोत्तर राज्यों को शामिल किए बिना तैयार सूचकांक के आधार पर इस बारे में कुछ बता पाना मुश्किल है.
अगर पूर्वोत्तर को शामिल भी कर लें तो क्या इसका कोई सबूत है कि यहां अधिक स्त्री-पुरुष समानता है? कई राज्यों में चुनावी प्रतिनिधित्व और वास्तविक राजनैतिक भागीदारी की कमी इस क्षेत्र में महिलाओं को समानता और समता से वंचित करती है. इसे उस क्षेत्र के लिए विडंबना ही कहा जाएगा जो देश की कुछ पहली महिला समितियों, नुपी लान या फिर नगा मदर्स एसोसिएशन जैसे संगठनों का गवाह रहा है.
तो क्या हम अभी भी स्त्री-पुरुष समानता वाले राष्ट्र या लोग बनने से बहुत दूर हैं? आज कमाई के मामलों में महिलाओं की स्थिति खासी बेहतर हुई है. जाहिर है, वे अच्छी शिक्षा हासिल कर रही हैं और नेतृत्वकारी पदों तक भी पहुंच रही हैं, फिर भी स्त्री-पुरुष मानदंड बुनियादी सवालों पर हावी दिखते हैं. मसलन, निर्णय लेना किसके हाथ में है, कौन काम करता है, किसके पास अधिक स्वतंत्रता है, लड़की किससे शादी करेगी और घर का मुखिया कौन होगा?
ग्रामीण हों या शहरी लगभग आधे उत्तरदाताओं को यह पसंद नहीं है कि लड़की पसंद से या माता-पिता की मर्जी के खिलाफ विवाह करे. दूसरी ओर, आधे से अधिक महिला-पुरुष उत्तरदाताओं ने एक सुर में कहा कि महिलाओं को घर से दूर जाकर काम करने की अनुमति मिलनी चाहिए, जबकि ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में 77 फीसद से अधिक लोगों की राय में बेटियों को भी परिवार के बेटों की तरह अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए.
हालांकि, कुछ राज्यों में इसके उलट राय भी सामने आई. जाहिर है, लैंगिक रूढ़िवादिता महिलाओं के लिए दोहरी बाधा है, जिनकी योग्यता, क्षमता या अपेक्षित अधिकारों की धार को इस तरह कुंद किया गया है कि वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुरूप ढल जाएं. वित्तीय स्वायत्तता और आर्थिक स्वतंत्रता एक ऐसा मुद्दा है जिस पर राय मिली-जुली रही.
हालांकि, इसे कोई पुरजोर समर्थन नहीं मिलता कि एक महिला को अपने पैसे पर अपना हक होने का दावा करना चाहिए. नारीवाद पर वर्जीनिया वुल्फ के ये भावनात्मक और आदर्श वाक्य कि ''उनकी अपनी खुद की जगह (और पैसा)'' होनी चाहिए और वे ''अपने घूमने-फिरने या अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए अपने पास पैसे रखें...'' हमारे देश में सिर्फ कहने की बातें ही हैं. अगर पासपोर्ट है तो भी जरूरी नहीं कि महिलाएं यात्रा कर सकें.
फिर भी, मुझे उम्मीद है कि युवा भारत अधिक स्त्री-पुरुष समानता वाला, अधिक लोकतांत्रिक होगा क्योंकि यह सदियों से जड़ें जमाए पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्त हो रहा है. महिलाओं को अपने दम पर अकेले आगे बढ़ना होगा और उन्हें ऐसे ही आगे बढ़ना भी चाहिए.
—राखी कलिता मोरल (लेखिका कॉटन यूनिवर्सिटी, गुवाहाटी में अंग्रेजी की प्रोफेसर, फैकल्टी ऑफ लैंग्वेज ऐंड लिट्रेचर की डीन और सेंटर फॉर विमेंस स्टडीज की अध्यक्ष हैं)