इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2025: एडवोकेट निशा भंभाणी ने क्यों कहा- गरिमा के साथ जीने वाले को गरिमा के साथ मरने न देना दुर्भाग्यपूर्ण है

इस्कॉन के मोटिवेशनल स्पीकर गौरांग दास ने कहा कि सभी आध्यात्मिक परंपराएं जीवन की पवित्रता...कर्म और धर्म, और अपने कर्तव्य को निभाने और दर्द को सहन करने के अधिकार पर ध्यान केंद्रित करती हैं.

(बाएं से दाएं) निशा भंभाणी,गौरांग दास, डॉ. संजीव बगाई और स्मृति राणा

हाल के सालों में बहस होती रही है कि स्वास्थ्य सेवाओं का ध्यान जिंदगियां बचाने पर होना चाहिए या जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने पर. इस बहस ने 2018 के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद जोर पकड़ा जिसमें अग्रिम निर्देश या 'लिविंग विल यानी जीते-जी वसीयत' बनवाने के मरीज के अधिकार को मान्यता देते हुए 'पैसिव यूथेनेसिया या निष्क्रिय इच्छामृत्यु' की इजाजत दी गई थी.

इस फैसले की बदौलत गंभीर रूप से बीमार मरीज अपनी बीमारी के लाइलाज हो जाने पर लाइफ सपोर्ट यानी चिकित्सीय उपकरणों के जरिए जिंदा रखे जाने से इनकार कर सकते थे और इस तरह महीनों या बरसों दर्द भरी और इलाज या राहत से नाउम्मीद जिंदगी से अपने को बचा सकते थे.

इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में अलग-अलग विचारों से ओतप्रोत विशेषज्ञ व्यक्ति के गरिमा के साथ मरने के अधिकार पर चर्चा के लिए साथ आए. सुप्रीम कोर्ट की वकील निशा भंभाणी ने कहा, ''मुझे लगता है कि गरिमा के साथ जीने वाले व्यक्ति को गरिमा के साथ मरने न देना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.'' मगर नेफ्रॉन क्लीनिक्स के चेयरमैन संजीव बगाई ने चेतावनी देते हुए कहा, ''इस कानून का देश की तमाम छोटी-बड़ी जगहों पर खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग किया जा सकता है, चाहे वह संपत्ति के लिए हो, विरासत के लिए, रुपए-पैसे की कमी के लिए, या बीमा न होने के लिए हो.''

वैसे तो कोई भी वक्ता सक्रिय इच्छामृत्यु के पक्ष में नहीं था, जिसमें प्राणघातक दवाइयों का इस्तेमाल किया जाता है और जो भारत में गैरकानूनी है. चर्चा में दर्द के प्रबंधन की अहमियत पर जोर दिया गया, खासकर हमारे जैसे देश में जहां गंभीर रूप से बीमार कई मरीजों को दर्दनिवारक दवाएं सुलभ नहीं हैं.

पैलिएटिव या राहतदायी देखभाल के क्षेत्र में कार्यरत स्मृति राणा ने कहा, ''किसी भी समय 70 लाख से 1 करोड़ भारतीय मध्यम से गंभीर दर्द से ग्रस्त होते हैं, जो उन्हें हमारे साथ यह चर्चा करने के लिए इस मंच पर आने की इजाजत नहीं देगा. मृत्यु को स्वीकार करना भी गरिमा है...और हम जो कर सकते हैं वह यह कि इसे हर मुमकिन आरामदायक और गरिमापूर्ण बनाएं.'' इस्कॉन के महंत गौरांग दास ने कहा, ''उस दर्द को हम जिन सबसे अच्छे तरीकों से कम कर सकते हैं, उनमें से एक मरीज को बेहतरीन किस्म का चिकित्सकीय और भावनात्मक सहारा देना है और अगर आप आध्यात्मिक समझ बढ़ा सकें... तो इससे बढ़िया कुछ नहीं.''

सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता निशा भंभाणी ने कहा, "हम निष्क्रिय इच्छामृत्यु या यूथेनेसिया के मुद्दे से दो-चार हैं. किसी व्यक्ति को केवल आर्टिफिशियल ढंग से खिलाया-पिलाया जा रहा है...ऐसी हालत में मुझे लगता है कि गरिमा के साथ जीने वाले व्यक्ति को गरिमा के साथ न मरने देना दुर्भाग्यपूर्ण है." 

नेफ्रॉन क्लीनिक्स के चेयरमैन डॉक्टर संजीव बगाई ने कहा, "किसी भी कानून को मापा जाने लायक, टिकाऊ, क्रियान्वयन और लागू करने योग्य होना चाहिए. अगर यह कानून जंगल की आग की तरह फैल गया तो भारत के अंदरूनी इलाकों में क्या होगा, बेकाबू संकट खड़ा हो जाएगा."

इस्कॉन के मोटिवेशनल स्पीकर गौरांग दास ने कहा, "सभी आध्यात्मिक परंपराएं जीवन की पवित्रता...कर्म और धर्म, और अपने कर्तव्य को निभाने और दर्द को सहन करने के अधिकार पर ध्यान केंद्रित करती हैं. सक्रिय इच्छामृत्यु का बिल्कुल समर्थन नहीं किया जा सकता."

पैलियम इंडिया की स्मृति राणा ने कहा, "राहतदायी देखभाल के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है. इसे लागू करने की जरूरत है; हम इससे अब भी जूझ रहे हैं. राहतदायी देखभाल की जरूरत वाले 4 फीसद से भी कम भारतीयों के पास इसकी पहुंच है."

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