कांग्रेस के अपने कील-कांटे दुरुस्त करने की कवायद से कैसे इंडिया ब्लॉक में बढ़ी टकराव?

कांग्रेस पार्टी अपने सहयोगियों को झटककर खुद की चुनावी मशीनरी को दुरुस्त करने की राह पर बढ़ी, लेकिन इससे इंडिया ब्लॉक में टकराव की स्थिति बन गई

THE NATION: CONGRESS
साथ का वादा: कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की प्रेस वार्ता में साथ खड़े इंडिया ब्लॉक के तमाम नेता, 1 जून 2024

जब दुनिया 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाने में व्यस्त थी, कांग्रेस के कोषाध्यक्ष अजय माकन नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे. गांधी परिवार के करीबियों में शुमार पूर्व केंद्रीय मंत्री ने इस दौरान आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर तीखा हमला बोला.

उन्होंने दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री को 'राष्ट्रविरोधी’ बताया और उन्हें राष्ट्रीय राजधानी में बिगड़ती राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का जिम्मेदार ठहराया. माकन ने कहा, ''केजरीवाल को एक शब्द में फर्जीवाल ही कहा जा सकता है.’’

हालांकि, जो बात अनकही रही, वह लंबे समय से स्थानीय कांग्रेस नेताओं की बड़ी शिकायत रही है कि दिल्ली में आप का उभार उनकी पार्टी की कीमत पर हुआ. व्यापक विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक यानी भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन के आंतरिक रिश्ते भी माकन के तीखे सुरों से अछूते नहीं रहे. आप के साथ गठबंधन को 'गलती’ बताते हुए उन्होंने कहा कि उसने देश की सबसे पुरानी पार्टी की साख धूमिल कर दी है.

गठबंधन सहयोगी की खुलकर आलोचना के साथ ही दिल्ली सरकार की प्रशासनिक नाकामियों को उजागर करने वाला श्वेतपत्र जारी करने का कांग्रेस का फैसला पार्टी की रणनीति में बड़े बदलाव का संकेत देता है. मतलब, कांग्रेस गठबंधन पर निर्भर रहने के बजाय अब खुद अपनी चुनावी मशीनरी के कील-कांटे दुरुस्त करने पर ध्यान देना चाहती है.

दो हफ्ते बाद माकन के इस हमले को कांग्रेस आलाकमान की तरफ से भी खुला समर्थन मिलता दिखा. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने केजरीवाल को दिल्ली में ''बढ़ते भ्रष्टाचार और प्रदूषण’’ के लिए जिम्मेदार ठहराया. यही नहीं, आप नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की परस्पर तुलना करके दोनों पर झूठे वादे करने का आरोप लगाया.

कांग्रेस ने यह फैसला एक निर्णायक मोड़ पर लिया है. 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे मिले-जुले रहे. मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अगुआई वाले एनडीए ने लगातार तीसरी बार जीत हासिल की. कांग्रेस की अगुआई वाले इंडिया ब्लॉक को भगवा पार्टी के अकेले बहुमत हासिल करने में नाकाम रहने पर आशा की एक किरण दिखाई दी. हालांकि, उत्साह ज्यादा समय नहीं टिका, हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में इंडिया ब्लॉक को करारी हार का सामना करना पड़ा, जिन दो प्रमुख राज्यों पर विपक्षी गठबंधन की सारी उम्मीदें टिकी थीं.

इस झटके से जम्मू-कश्मीर और झारखंड में इंडिया ब्लॉक की जीत को फीका कर दिया, बल्कि गठबंधन की दरारों को चौड़ा कर दिया. असंतोष खुलकर सामने आने लगे, सहयोगी दलों के कुछ नेताओं ने तो भाजपा को चुनौती देने में कांग्रेस और राहुल गांधी की नेतृत्व की क्षमता पर ही सवाल उठा दिए.

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद को गठबंधन के नेतृत्व के लिए एक दावेदार के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रही हैं. उनकी इस दावेदारी को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) या राकांपा (एसपी) नेता शरद पवार और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का समर्थन भी मिला.

आम चुनाव में 99 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस के प्रदर्शन से भी सहयोगी दलों का मोहभंग हुआ. पार्टी ने बढ़ी सीटों का श्रेय राहुल के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्राओं को दिया. लेकिन नतीजों के बारीक विश्लेषण से पता चला कि कांग्रेस की यात्रा जिन प्रमुख राज्यों से गुजरी, उनमें कई में पार्टी का प्रदर्शन कमतर रहा, खासकर उन राज्यों में जहां उसका भाजपा के साथ सीधा मुकाबला था.

मसलन, 2023 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करने के बाद कांग्रेस को कर्नाटक से काफी उम्मीदें थीं. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी भाजपा की 17 सीटों की तुलना में सिर्फ नौ सीटें हासिल कर पाई. इंडिया ब्लॉक के शीर्ष तीन क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने राज्यों में स्ट्राइक रेट के मामले में कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया. 161 सीटों वाले तीन बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सपा, टीमएमसी और द्रमुक ने कुल 88 सीटें (स्ट्राइक रेट 55 फीसद) हासिल की. कांग्रेस देशभर में 326 सीटों पर चुनाव लड़ी और स्ट्राइक रेट 30 फीसद रहा.

मेल-मिलाप के वे दौर राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की फाइल फोटो

सहयोगी कांग्रेस से नाराज क्यों
कांग्रेस के सहयोगी दलों के समक्ष कुछ अहम मुद्दे हैं, जैसे गठबंधन राजनीति की जरूरतों के लिहाज से तालमेल बनाने में कांग्रेस की कथित अक्षमता, साझेदारों के प्रति उसका उपेक्षापूर्ण रवैया और कुछ ऐसे मुद्दों पर ज्यादा जोर देना जिसे कई लोग राजनैतिक तौर पर मुफीद नहीं मानते. राहुल गांधी को लेकर भी नाराजगी बनी हुई है, जिनकी नेतृत्व शैली, प्राथमिकताएं और सार्वजनिक व्यवहार कई बार सहयोगी दलों को नागवार गुजरता है.

राहुल के अदाणी समूह और वीर सावरकर जैसे मुद्दों को बार-बार दोहराने और उन्हें आक्रामक तरीके से उठाने पर सहयोगी दल कई बार सार्वजनिक तौर पर निराशा जाहिर कर चुके हैं. उनकी दलील है कि इन मुद्दों से मतदाताओं पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि कई बार तो उल्टा असर होता है. लोकसभा चुनाव से पहले ही ममता ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्ष के प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार के प्रस्ताव पर अपनी असहमति का संकेत दे दिया था. इस प्रस्ताव को केजरीवाल ने आगे बढ़ाया था.

सहयोगी दलों के लिए निराशा का एक बड़ा कारण राहुल का क्रोनी कैपिटलिज्म (याराना पूंजीवाद) पर ज्यादा जोर देना है, खास कर अदाणी समूह को लगातार निशाना बनाना. आरोप गंभीर हैं और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को इस मुद्दे पर चुनौती का सामना करना पड़ा है लेकिन ममता, सपा प्रमुख अखिलेश यादव और आप तक का भी मानना है कि इस मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा जोर देना रणनीतिक भूल है.

मसलन, ममता की तृणमूल कांग्रेस ने संसद में अदाणी मुद्दे पर कांग्रेस के विरोध-प्रदर्शन का बहिष्कार किया; अभिषेक बनर्जी जैसे प्रमुख पार्टी नेताओं ने कहा कि मतदाता कॉर्पोरेट विवादों की तुलना में महंगाई, बेरोजगारी और कल्याणकारी योजनाओं को लेकर अधिक चिंतित हैं. सपा नेताओं ने भी दबी जुबान से कहा कि अदाणी पर हमले उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की रोजी-रोटी की चिंताओं का हल नहीं हैं.

कांग्रेस की तरफ से वोटिंग मशीन से कथित छेड़छाड़ को लेकर 'ईवीएम जगाओ यात्रा’ जैसे अभियान भी गठबंधन सहयोगियों के साथ तकरार का एक और मुद्दा हैं. तृणमूल कांग्रेस सांसद अभिषेक ने इसकी आलोचना की और पार्टी से साजिश की बात पर जोर देने के बजाय बूथ-स्तरीय प्रबंधन पर ध्यान देने का आग्रह किया. नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के नेता तथा जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने व्यंग्य में कहा कि कांग्रेस ईवीएम से मतदान में हासिल जीत का जश्न मनाने पर ध्यान नहीं देती और जब फैसला उसके खिलाफ आता है तो मशीनों को दोष देती है.

नाराजगी सिर्फ रणनीतिक मुद्दों तक सीमित नहीं है. मसलन, कई नेता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनवरी 2024 में इंडिया ब्लॉक से अलग होने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार मानते हैं, जिसने गठबंधन के एक सूत्रधार नीतीश कुमार को संयोजक बनाने से इनकार कर दिया था. उमर ब्लॉक के भीतर निरंतर जुड़ाव की जरूरत बताते हैं और छिटपुट, चुनाव-केंद्रित रणनीति की आलोचना करते हैं. नियमित संवाद की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, ''हमारा अस्तित्व संसद चुनाव से छह महीने पहले तक सीमित नहीं हो सकता. यह इससे भी आगे होना चाहिए.’’ जून 2024 के बाद से इंडिया ब्लॉक के नेताओं की कोई औपचारिक बैठक नहीं हुई है.

कांग्रेस की रणनीति
राज्यों में बदलती स्थिति उन चुनौतियों को उजागर कर रही है जिनका सामना कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी और इंडिया ब्लॉक के घटक के तौर पर करना पड़ रहा है. पार्टी जिन राज्यों में क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों के साथ साझेदारी करती है, वहां उसका संगठनात्मक आधार कमजोर पडऩे का खतरा पैदा हो जाता है. अगले दो साल में सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. इस साल दिल्ली और बिहार के चुनाव होने हैं और 2026 में असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और केरल में चुनाव होंगे.

तमिलनाडु में कांग्रेस का द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के साथ स्थिर गठबंधन है और इस राज्य को छोड़कर अन्य प्रदेशों में कांग्रेस मोटे तौर पर अपने बलबूते चुनाव लड़ेगी. कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के एक सदस्य ने कहा, ''अगर गठबंधन होता है तो स्थानीय नेताओं से सलाह-मशविरा करके और स्थानीय स्थिति के आकलन के आधार पर फैसला किया जाएगा. हमारा ध्यान पार्टी के आधार को मजबूत करने पर है.’’

बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस नेताओं की दलील है कि राजद के साथ दशकों के गठबंधन ने पार्टी को क्षेत्रीय साझेदार पर निर्भर बना दिया है. लोकसभा चुनाव-2024 में कांग्रेस ने प्रदेश में नौ सीट पर उम्मीदवार उतारे थे और तीन पर जीत दर्ज की थी जबकि राजद 23 सीटें लड़कर पर सिर्फ चार ही जीत पाई.

इस प्रदर्शन से राजद-कांग्रेस संबंधों में तनाव पैदा हुआ और इस अटकल को भी बल मिला कि राजद प्रमुख लालू यादव का इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व पर ममता की दावेदारी का समर्थन दरअसल बिहार चुनावों से पहले पार्टी की सौदेबाजी की ताकत बढ़ाने की कवायद का हिस्सा है.. इसी तरह शरद पवार का ममता समर्थक रुख राकांपा (एसपी) के अस्तित्व के संकट के बीच अपनी पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने का प्रयास भर है. खुद को गठबंधन में किंगमेकर के रूप में स्थापित कर पवार उम्मीद कर रहे हैं कि वे अपना दबदबा बरकरार रखेंगे.

कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने बदलाव की संगठनात्मक पुनर्गठन के लिए नई रूपरेखा सामने रखी है. हाल में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने अनुशासन और जमीनी स्तर पर भागीदारी के महत्व पर जोर दिया. उन्होंने कहा, ''कड़े फैसले किए जाएंगे.’’ इससे पार्टी के ढांचे में जमीनी स्तर से लेकर शीर्ष नेतृत्व तक बदलाव के संकेत हैं. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, ये बदलाव सिर्फ पदाधिकारियों में नहीं, बल्कि पार्टी पदों की भूमिका, जिम्मेदारियों और शक्तियों को भी पुनर्परिभाषित करेंगे. कांग्रेस नेता ये सुधार फरवरी में दिल्ली चुनाव और वर्ष के अंत में होने वाले बिहार चुनाव के मध्य लागू किए जाने की उम्मीद कर रहे हैं.

कांग्रेस की मुश्किल यह है कि योजना बनाना आसान है, उसे लागू कर पाना मुश्किल. अनुशासन बनाए रखने की खडग़े की सख्त चेतावनियों के बावजूद कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब और केरल जैसे राज्यों में पार्टी में अंदरूनी खींचतान जारी है. कांग्रेस आलाकमान ने वरिष्ठ नेताओं को अन्य राज्यों में जिम्मेदारियां सौंपकर उनकी ऊर्जा सही दिशा में लगाने का प्रयास किया है.

मसलन, राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और केरल के वरिष्ठ नेता रमेश चेन्निथला को हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान अहम जिम्मेदारी सौंपी गई. एक कांग्रेस सांसद का कहना है, ''इस वर्ष मार्च से अक्तूबर के बीच अगर 'कैंप अहमद पटेल’ (सोनिया गांधी के पूर्व राजनैतिक सचिव) बुझ जाए तो कोई आश्चर्य न होगा.’’

कांग्रेस ने 2022 में अपने उदयपुर चिंतन शिविर के दौरान संगठनात्मक बदलाव का वादा किया था और 2023 में रायपुर अधिवेशन में इन प्रतिबद्धताओं को दोहराया था. राजनैतिक टास्कफोर्स का गठन और कार्यकर्ता प्रशिक्षण कार्यक्रम जैसी कुछ पहल तो शुरू हुई लेकिन ये सतही ही साबित हुए. जमीनी स्तर के नेताओं को सशक्त बनाने या निर्णय-प्रक्रिया में सुधार के लिए संरचनात्मक परिवर्तनों को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया, जिससे पार्टी में अंदरूनी कलह और अकुशलता की गुंजाइश बनी हुई है.

जहां तक इंडिया ब्लॉक का सवाल है, उसकी एकता हमेशा कमजोर रही है, क्योंकि उसका आधार वैचारिक के बजाय भाजपा के प्रति साझा विरोध ही रहा है. जैसे-जैसे कांग्रेस रणनीति फिर से तैयार कर रही है, यह कमजोरी स्पष्ट होती जा रही है. इंडिया ब्लॉक को व्यावहारिक बनाए रखने के लिए कांग्रेस को नाजुक संतुलन साधना होगा. उसके सहयोगी अधिक समावेशी नेतृत्व शैली और समान सीट बंटवारे वाली व्यवस्था चाहते हैं. इन चिंताओं को दूर करने में नाकामी गठबंधन टूटने का कारण बन सकती है, जो 2025 और उसके बाद विपक्षी संभावनाओं पर कुठाराघात साबित हो सकता है.

इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व के लिए टीएमसी नेता ममता बनर्जी की दावेदारी को शरद पवार और लालू प्रसाद जैसे सहयोगियों से समर्थन भी मिला, इससे कांग्रेस के कान खड़े हो गए.

कांग्रेस में कार्य-योजना तैयार कर लेना तो आसान है, मगर उसे लागू कर पाना मुश्किल. कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे की सख्त चेतावनियों के बावजूद पार्टी में कलह दूर नहीं हुई और कई अहम राज्यों में खींचतान बनी हुई है.

सहयोगी दल राहुल के क्रोनी कैपटलिज्म या याराना पूंजीवाद के मुद्दे पर बहुत ज्यादा जोर देने से निराश हैं, क्योंकि उससे लोगों को रोजमर्रा के जीवन की कठिनाई के मसलों पर ध्यान भटक जाता है.

टकराव के मसले
हरियाणा और महाराष्ट्र में भारी पराजय से सहयोगियों को कांग्रेस के इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व पर सवाल उठाने का मौका मिला
ममता बनर्जी की नेतृत्व संभालने की दावेदारी से रिश्ते असहज हुए, कांग्रेस ने उस पहल का विरोध किया. टीएमसी और सपा जैसे सहयोगी दलों ने कांग्रेस के अदाणी मुद्दे पर अधिक फोकस पर नाखुशी जाहिर की, कहा कि इससे मतदाताओं के मूल मसले नजरअंदाज हो जाते हैं, 'ईवीएम जगाओ यात्रा’ को भी बेअसर बताया.

कांग्रेस के दबदबे और तालमेल बनाने की कोशिश के अभाव पर नाराजगी जाहिर की गई. इंडिया ब्लॉक के नेताओं की जून 2024 के बाद कोई बैठक नहीं हुई है. दिल्ली कांग्रेस का आप और अरविंद केजरीवाल पर तीखा हमला इंडिया ब्लॉक की एकजुटता के कमजोर धागों का ही संकेत हैं

कांग्रेस की आगे की रणनीति
केजरीवाल/आप पर निशाना साधकर कांग्रेस उन राज्यों में अपनी खोई जमीन को वापस पाने के इरादे का संकेत दे रही है, जहां सहयोगियों की वजह से अप्रासंगिक हो गई है. सर्वोच्च प्राथमिकता संगठन को मजबूत करना है, 2025-26 में सात राज्यों में विधानसभा चुनाव तय हैं. पार्टी संगठन के ढांचे में बड़े बदलाव की योजना है, जो फरवरी के दिल्ली और साल के अंत में बिहार विधानसभा चुनावों की अवधि में किए जाएंगे.

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