भारत@2025 : महिलाओं के लिए कामकाज का सही माहौल कैसे बदल सकता है देश की सूरत?

यह पहल अगर इस साल शुरू कर दें तो हम देख पाएंगे कि एक महिला किस तरह से देश की आर्थिक किस्मत बदल सकती है

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर

"हमें नौकरी के लिए क्या इसी जगह अर्जी देनी है?" उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाके में दो छोटे बच्चों की मां के इस सवाल के बारे में मैंने सोचा तक न था. उसका एक बच्चा उसकी साड़ी का पल्लू पकड़े हुआ था और दूसरा गोद में था. उसने पति को गांव में उस जगह पर लाने के लिए राजी किया था जहां हम लिखत-पढ़त कर रहे थे.

महीनों बाद मैंने पाया कि यह महिला कोई अपवाद न थी. जवान हों या बूढ़ी, शादीशुदा हों या अविवाहित—कम से कम मिडिल स्कूल तक पढ़ीं—महिलाएं नियमित वेतन वाली नौकरियां या खुद का छोटा धंधा शुरू करके, यहां तक कि गिग वर्क के जरिए पैसे कमाने के अवसर पाने को बेताब हैं.

घर पर काम के भारी बोझ, नल जल, पाइप वाली गैस या नियमित बिजली सप्लाई जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल की खराब सुविधाओं और गांवों के बीच अच्छे परिवहन की कमी के बावजूद कम वेतन और खराब कामकाजी माहौल में भी काम करने की यह स्पष्ट इच्छा दो बातें दर्शाती है.

पहली, चुनौतियों का सामना करने की भारतीय महिलाओं की क्षमता असाधारण है और इसे श्रम बल भागीदारी दरों के पारंपरिक आंकड़ों के जरिए नहीं मापा जा सकता. दूसरी, यह मुख्यधारा के अकादमिकों की इस समझ के उलट है कि भारतीय महिलाएं सड़क पर और कार्यस्थल पर यौन हिंसा के डर से, परिवार/समुदाय की अस्वीकृति की वजह से वेतन वाले काम शुरू करने को तैयार नहीं या काम छोड़ रही हैं.

सचमुच वे तनख्वाह वाले काम शुरू करने को तैयार नहीं? या ऐसे काम हमेशा के लिए छोड़ रही हैं? जितेंद्र सिंह के साथ मेरे शोध से भारतीय श्रम बाजार की दो विशेषताएं सामने आई हैं. सर्वे में जब हमने उन महिलाओं से—जो ‌फिलहाल कार्यरत नहीं—वेतनभोगी काम शुरू करने की उनकी इच्छा के बारे में पूछा तो उनमें से ज्यादातर दिनभर के लिए या कुछ घंटों के लिए लेकिन नियमित रूप से (यानी साल के ज्यादातर समय) काम करने को तैयार थीं, बशर्ते काम घर के आसपास उपलब्ध हो.

यह हकीकत कि उन्हें घर पर या उसके पास रोजगार की जरूरत है, काफी हद तक कड़वे सच को जाहिर करता है. वह यह कि भारत में महिलाओं पर रोजमर्रा के घरेलू कामों—खाना बनाना, सफाई करना, घर की, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल—के लिए कहीं ज्यादा जिम्मेदारी हैं. वे इन कामों में पुरुषों के मुकाबले 10 गुना ज्यादा वक्त लगाती हैं. इसके अलावा, खासकर ग्रामीण भारत में महिलाएं खराब परिवहन सुविधाओं का खामियाजा भुगतती हैं.

दूसरे, हमारा शोध दर्शाता है कि कम महिला श्रम बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) मुख्य रूप से महिलाओं के काम की कम मांग (कम नौकरियां, जिसके लिए पुरुष कतार में सबसे आगे हैं) के कारण हैं. एफएलएफपीआर में 2004-05 और 2017-18 के बीच गिरावट को कृषि में रोजगार के हिस्से में गिरावट से समझाया जा सकता है.

टैक्सी और बस ड्राइवर, डिलीवरी एजेंट और यहां तक कि बतौर मैकेनिक भी महिलाओं को रखने पर विचार करना चाहिए.

सड़कें और कार्यस्थल यौन उत्पीड़न या हिंसा से मुक्त नहीं, लेकिन घर भी कहां सुरक्षित हैं. लगभग 30 फीसद भारतीय महिलाएं घरेलू या अंतरंग साथी की हिंसा की रिपोर्ट करती हैं. यह हिंसा दुनिया में सर्वाधिक की श्रेणी में है और हर जगह की तरह आमतौर पर कम रिपोर्ट की जाती है. घर में रहने से जरूरी नहीं कि महिलाएं यौन हिंसा से बच जाएं. आइए, हम 2025 में ऐसा माहौल बनाएं जो महिलाओं को वैध नागरिक के तौर पर बिना किसी डर के सार्वजनिक स्थानों पर रहने में सक्षम बनाए. हमारे शहर इसकी शुरुआत पैदल चलने वालों के हुजूम से भरे फुटपाथों के साथ बेहतर, अच्छी तरह से रोशनी वाली सड़कों की योजना बनाने से कर सकते हैं.

देश का एफएलएफपीआर 2017-18 से लगातार बढ़ रहा है. यह आंशिक रूप से महिलाओं के अवैतनिक आर्थिक कामों की बेहतर माप की वजह से है—पारिवारिक उद्यमों (खेती, मछली पालन, मुर्गी पालन, डेयरी, पशुधन, किराना दुकानें, बेचने के लिए सामान बनाना आदि) में उनका श्रम घर की आय को बढ़ाता है. एक ओर जहां इन उद्यमों में काम करने वाले पुरुषों को श्रमिक (यानी श्रम बल में) के रूप में गिना जाता है, वहीं महिलाओं को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है.

दूसरा कारक स्वरोजगार में वृद्धि है. महिलाओं के लिए स्व-रोजगार का मतलब मुख्य रूप से या तो खुद से कोई काम करने या अनपेड हेल्पर के रूप में काम करना है (और पिछले कुछ सालों में इन्हीं का अनुपात बढ़ा है). नौकरी देने वालों के रूप में उनकी संक्चया नहीं बढ़ रही.

वेतन वाले काम में महिलाओं के लिए कम एफएलएफपीआर और खराब आय को देखते हुए क्या महिलाओं को सीधे नकद हस्तांतरण उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का अच्छा तरीका है? हाल के चुनावों के विश्लेषण ने महिलाओं के लिए विशेष नकद हस्तांतरण योजनाओं की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया है. हालांकि आबादी के कमजोर, हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए हमेशा सुरक्षा नेटवर्क होना चाहिए, लेकिन ऐसी योजनाएं काम की अच्छी गुणवत्ता ('अच्छी नौकरियां’) के साथ नियमित रूप से अच्छे वेतन वाले रोजगार का दीर्घकालिक विकल्प नहीं हो सकतीं.

पिछले दो दशक में भारतीय महिलाओं की शिक्षा का स्तर काफी तेजी से बढ़ा है, और जेंडर अंतर में तेजी से कमी आई है. प्रजनन दर और मातृ मृत्यु दर में काफी गिरावट आई है. इस तरह महिलाओं के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने को सभी बुनियादी शर्तें मौजूद हैं. पर सबसे अहम यह कि महिलाओं की उत्पादक क्षमता को समाविष्ट करने के लिए पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं.

अगर महिलाएं उत्साहपूर्वक नकद हस्तांतरण को स्वीकार करती हैं तो इससे केवल यही संकेत मिलता है कि उनके काम से उन्हें कम वेतन मिल रहा है, और काम करने की स्थिति भी बदतर है. नकद हस्तांतरण को लेकर जो उत्साह दिख रहा है, उसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि महिलाएं आसानी से नकदी पाने के लिए (संभवत: बेहतर वेतन वाली) नौकरियों को छोड़ना पसंद करेंगी.

भले काम आसानी से उपलब्ध हो लेकिन महिलाएं कई बार काम करने की अपनी इच्छा का इजहार भी नहीं कर पातीं; परिवार और समुदाय बड़ी बाधाएं खड़ी कर सकते हैं. वैसे यह तस्वीर भी बदल रही है. ग्रामीण भारत में वेतनभोगी काम के अवसरों की कमी ने परिवारों को अपनी बेटियों को रोजगार तलाशने के लिए शहरों में जाना स्वीकार करने को मजबूर कर दिया है. लेकिन शहर रहने के लिए अनुकूल नहीं, महंगे हैं. रिहाइश की दिक्कत है, ऊपर से मददगारों का कोई नेटवर्क भी नहीं है.

2025 में प्रवेश करते हुए, यथास्थिति को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है? यहां चार कार्रवाई योग्य सुझाव दिए गए हैं.
एक, पिछले दो दशक में महिलाओं ने शिक्षा हासिल करने में तेजी से प्रगति की है, लेकिन एफएलएफपीआर में शिक्षा के मामले में अंग्रेजी अक्षर यू-आकार है—सबसे कम और सबसे ज्यादा शिक्षा हासिल करने वाली महिलाएं श्रम शक्ति में सबसे ज्यादा भाग लेती हैं.

हमें सभी महिलाओं, खास तौर पर मध्यम स्तर की शिक्षा प्राप्त महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने की जरूरत है. नियोक्ताओं को इन महिलाओं को पेट्रोल पंप पर, टैक्सी और बस चलाने, पर्यटन उद्योग में, डिलिवरी एजेंट के रूप में, आतिथ्य और स्वास्थ्य सेवा उद्योगों में और यहां तक कि मैकेनिक के रूप में भी काम देने को तैयार रहना चाहिए.
दो, शहरों में जाने के इच्छुक लोगों के लिए, हमें किफायती कम लागत वाले आवास, अकेली कामकाजी महिलाओं के लिए छात्रावास, तेज और कुशल सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की जरूरत है.

तीन, ग्रामीण और शहरी महिलाओं के लिए, घर पर पाइप से पानी और गैस कनेक्शन का प्रावधान सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए. इससे भोजन तैयार करने में लगने वाला समय काफी कम हो जाता है. पाइप से आने वाली गैस घर के अंदर वायु प्रदूषण को भी कम करती है और इसके स्वास्थ्य संबंधी काफी फायदे हैं.

चार, हमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल संबंधी सुविधाओं की स्थापना या उन्हें मजबूत/बढ़ावा देकर देखभाल अर्थव्यवस्था में निवेश करने की जरूरत है. ये सुविधाएं सस्ती, सुलभ और सुरक्षित होनी चाहिए, जिसके लिए सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों की भागीदारी की जरूरत हो सकती है. देखभाल के बोझ को कम करने और पुनर्वितरित करने के लिए यह प्रावधान जरूरी है. साथ ही यह अतिरिक्त लाभ भी देता है कि इससे स्थानीय और स्थायी दोनों तरह की नौकरियां पैदा होती हैं.

अंतरराष्ट्रीय अनुभव से जाहिर है कि महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता एक सक्चत और अकड़ू सामाजिक मानदंड के ताबूत में आखिरी कील ठोकती है: वह है बेटे को प्राथमिकता, या कम से कम एक बेटा होने की इच्छा, क्योंकि अब परिवारों को एहसास होने लगा है कि बेटियां बुढ़ापे में भी सहारा दे सकती हैं. जैसे-जैसे हम 2025 में प्रवेश कर रहे हैं, हमें ऐसा माहौल बनाने के लिए सभी लोगों की जरूरत है जिसमें महिलाएं वेतनभोगी काम करके कामयाब हो सकें. यह उनकी क्षमता को उजागर करने और स्थायी सामाजिक और आर्थिक बदलाव लाने की कुंजी है.

—अश्विनी देशपांडे, अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर और सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा ऐंड एनालिसिस (सीईडीए) की एकेडमिक डायरेक्टर हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

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