प्रधान संपादक की कलम से

शैलजा कुमारी के नाराज होने का मतलब था बीजेपी ने 17 में से आठ आरक्षित सीटें झटक लीं. जब जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में हिंदू/मुस्लिम द्वैत (बाइनरी) तीव्र था, कांग्रेस ने पाया कि हिंदुत्व पूरी तरह किनारे हो गया मसला नहीं है

इंडिया टुडे कवर : इनकी भी - उनकी भी
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—अरुण पुरी

आठ अक्तूबर को आए दो विधानसभा चुनावों के नतीजों में पहली नजर में समानता दिखती है. मगर करीब से देखें तो गहरी असमानता उजागर होती है. नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने जो हासिल किया, वह उससे बिल्कुल उलट है जो उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पर बीती है. मनोबल और गतिशक्ति उस पार्टी को वापस दे दी गई है जो दिल्ली से शासन करती है, और उस पार्टी की गतिशक्ति और मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया गया है जो वहां पहुंचना चाहती है.

यह इसलिए अहम है क्योंकि हरियाणा और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर एकबारगी होने वाले मैच नहीं थे. वे लगातार चल रहे नेशनल राउंड रॉबिन लीग का राउंड 1 हैं—महाराष्ट्र और झारखंड के बेहद अहम युद्ध कुछ ही हफ्तों में आने वाले हैं. इसलिए हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में अपनाई गई रणनीतियों का उनकी कामयाबी या नाकामी के लिहाज से भविष्य पर सीधा असर पड़ेगा.

बीजेपी के लिए हरियाणा की अभूतपूर्व लगातार तीसरी जीत ऐसी नहीं है जिसकी पार्टी के वफादारों ने भी शायद परिकल्पना करने की जुर्रत की होगी. यह हिंदी पट्टी का वह राज्य है जो कई मायनों में भारत की मौजूदा राजनीतिक गतिशक्ति से बंधा है, इसलिए यहां अपनाई गई व्यूहरचना के सांचे को दोहराने पर संभवत: विचार किया जा सकता है. 90 सदस्यों की विधानसभा में उसने प्रतिकूल लहर के खिलाफ 48 सीटें कैसे बटोर लीं. उसने दबदबे वाली जाति की तानाशाही के प्रेत का तूमार खड़ा कर दिया.

जूडो की एक रणनीति अपनाते हुए जाट सिरमौर भूपेंद्र सिंह हुड्डा की दबंग ताकत का इस्तेमाल कांग्रेस के खिलाफ किया गया, जिससे गैर-जाटों के बीच, जो मतदाताओं के 75 फीसद से भी ज्यादा हैं, चुपचाप जवाबी गोलबंदी शुरू हो गई. उसने टिकट वितरण को विकेंद्रीकृत करके राव इंद्रजीत सिंह और केंद्रीय मंत्री कृष्णपाल गुर्जर सरीखे स्थानीय दबंगों को खुली छूट दे दी. यादवों और गुर्जरों सरीखे गैर-जाट ओबीसी को उसने कुल 22 टिकट दिए. नायब सिंह सैनी के रूप में मिलनसार ओबीसी मुख्यमंत्री ने अक्खड़ मनोहर लाल खट्टर के छोड़े जख्मों को भरने में मदद की.

आरएसएस फिर मैदान में लौट आया, चुपचाप सक्रिय हो गया, बिना किसी शोर-शराबे के लक्ष्यबद्ध अभियान छेड़ दिया. हर निर्वाचन क्षेत्र के लिए 150 स्वयंसेवकों के समूह बनाए गए, हफ्ते में करीब 100 छोटी-छोटी बैठकें की गईं. ये सब दोहराए जा सकने वाली व्यूहरचनाएं हैं. आरएसएस के सह-सरकार्यवाह अरुण कुमार ने हरियाणा में जो किया, वही काम महाराष्ट्र और झारखंड में उनके साथियों क्रमश: अतुल लिमये और आलोक कुमार कौ सौंपा गया है.

उधर, इंडिया गुट के सहयोगी दलों ने कांग्रेस पर बंदूकें तान लीं, खासकर उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने, जो सीटों के बंटवारे में अब बेहतर स्थिति की उम्मीद कर रही है. इसकी वजह है. एक चुनौतीपूर्ण परीक्षा राहुल गांधी की पार्टी को ताक रही है. उसने हुड्डा के गुटीय एकाधिकार को गैर-जाट ओबीसी और दलितों को डराकर भगाने की खुली छूट दी. शैलजा कुमारी के नाराज होने का मतलब था बीजेपी ने 17 में से आठ आरक्षित सीटें झटक लीं.

जब जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में हिंदू/मुस्लिम द्वैत (बाइनरी) तीव्र था, कांग्रेस ने पाया कि हिंदुत्व पूरी तरह किनारे हो गया मसला नहीं है. यही नहीं, उसने हरियाणा की 25 शहरी सीटों में से महज पांच जीतीं, जबकि 18 बीजेपी ले गई, जिससे उसके राजनैतिक मेलजोल में ज्यादा विविधता की जरूरत का पता चलता है. महाराष्ट्र की आबादी आखिरकार 45 फीसद शहरी है.

जम्मू-कश्मीर की लड़ाई बेशक सामान्य विधानसभा चुनाव को लेकर नहीं थी. यह भारत में अनोखा है—कश्मीर में जो कुछ होता है, उसके निहितार्थ दूर तक जाते हैं, जिसकी राष्ट्रीय और भूराजनैतिक अहमियत है. मगर नतीजे दोनों ही पक्षों के लिए सबक हैं. घाटी में अपनी जिम्मेदारी किस्म-किस्म के राजाओं की पार्टियों और निर्दलीयों पर डाल देने की बीजेपी की चाल नाकाम हो गई. जम्मू में कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए उसने ठोस 29 सीटें जीत लीं, पर इससे तकलीफ नहीं घटेगी.

सार यह है कि दशक भर के नियंत्रण और सीटों के परिसीमन में ज्यादा अनुकूल हेरफेर के बाद भी यहां बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री के राज्याभिषेक की महत्वाकांक्षा नाकाम हो गई. ताज अब उमर अब्दुल्ला के सिर होगा, जिनकी नेशनल कॉन्फ्रेंस 90 सीटों की विधानसभा में 42 अंकों के साथ लौट आई. पार्टनर कांग्रेस की छह सीटों के साथ उनके पास आरामदायक बहुमत है.

वह बात जो इतनी सहज नहीं, उमर का इंतजार कर रही चुनौतियां हैं. मुख्यमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल में वे न केवल पहले से छोटे, कटे-छंटे और घटे दर्जे वाले भूभाग के बल्कि कमतर सरकार के भी स्वामी हैं. नए संशोधित नियमों में उपराज्यपाल को ज्यादा प्रशासनिक और कानूनी अधिकार दे दिए गए हैं, जिनमें आईएएस/आईपीएस और जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारियों के तबादले और महाधिकवक्ता, एंटी-करप्शन ब्यूरो, अभियोजन के मामलों और कारवास सरीखे उच्च न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के मार्फत कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण भी शामिल है.

जैसा कि उमर कहते हैं, "अपनी पहली पारी में मैं सबसे सशक्त राज्य का मुख्यमंत्री था. मगर अब जम्मू-कश्मीर देश का सबसे शक्तिहीन केंद्र शासित प्रदेश है." इसलिए उमर की तरफ से किए गए कुछ वादों और खासकर अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए जोर डालने के वादे की बस मुंहजबानी अहमियत ही होगी. राज्य के दर्जे की बहाली और जमीन तथा नौकरी के अधिकारों में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण सरीखे पूरे किए जा सकने वाले लक्ष्यों को भी नई दिल्ली के साथ कामकाजी रिश्तों की गैरमौजूदगी में पूरा करना चुनौतीपूर्ण होगा. इस हफ्ते हम इसी भविष्योन्मुख नजरिए से विधानसभा चुनाव नतीजों का विश्लेषण कर रहे हैं. पहले राउंड को बराबरी पर छूटा कहिए.

एक दुखद प्रसंग है भारत के सबसे विशालकाय उद्योग समूह के अत्यंत प्रतिष्ठित पूर्व चेयरमैन रतन टाटा का जाना. यह समय इस करुणामयी दूरदृष्टा को भावभीनी श्रद्धांजलि देने का है. 2008 में जब उन्होंने 1 लाख रुपए की कीमत वाली जनता की कार नैनो लॉन्च की थी, इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में टाटा ने कहा, "अगर हम अपनी कुछ स्वनिर्मित सीमाओं से छुटकारा पा लें, तो भारत वाकई आर्थिक शक्ति के रूप में दुनिया में अपनी जगह बना सकता है. ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हम खुद को बतौर भारतीय नहीं बल्कि पंजाबी या पारसी के रूप में देखते हैं. अमेरिका में ऐसा नहीं." यह संदेश आज भी उतना ही खरा है, वैसे ही जैसे भारत की आर्थिक वृद्धि में उनका योगदान.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह)

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