बागवानी में निर्यात को साध कैसे हो सकती है देश के किसानों की आय दोगुनी?

भारत में खेती लायक जो जमीन है, अब उसके एक-तिहाई हिस्से में बागवानी होने लगी है. अगर बागवानी के तहत आने वाला क्षेत्रफल 50 फीसद तक बढ़ जाए तो यह लंबे वक्त से किए जा रहे 'किसानों की आय दोगुनी' करने के वादे को अपने आप पूरा कर सकता है

बदलाव की फसल
बदलाव की फसल

बागवानी की पैदावार में अब भारत दुनिया में चीन के बाद दूसरे पायदान पर है. फिर भी उसमें दुनिया के लिए ताजे फलों और सब्जियों की डलिया के रूप में बढ़ने की अकूत क्षमता है. देश ने 2023-24 में 11.26 करोड़ टन फल और 20.5 करोड़ टन सब्जियां उगाईं. हम पहले ही फलों में केले, आम और पपीता और सब्जियों में प्याज, अदरक और भिंडी की पैदावार में सबसे आगे हैं.

दिक्कत निर्यात में है. कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उपज निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीईडीए या एपीडा) का कहना है कि हमने 2023-24 में 1.8 अरब डॉलर (15,039 करोड़ रुपए) के ताजे फलों और सब्जियों का और 2.5 अरब डॉलर (20,623 करोड़ रुपए) के प्रसंस्कृत फलों और सब्जियों का निर्यात किया. लेकिन बागवानी की उपज के वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी अब भी बहुत कम महज 1.1 फीसद है.

अत्याधुनिक कोल्ड चेन का बुनियादी ढांचा बनाने और गुणवत्ता का भरोसा दिलाने वाले उपाय करने की पहल चल रही है, पर अभी-भी काफी लंबा रास्ता तय करना है. कृषि सुधारों के पक्ष में अभियान चलाने वाले और भारतीय किसान संघों के परिसंघ के महासचिव पी. चेंगल रेड्डी कहते हैं, "किसान हमारी जिंदगी में अनिवार्य भूमिका निभाते हैं, पर उनकी जरूरतें प्राथमिकता नहीं हैं. उनके पास उपज का निर्यात बाजार नहीं है और वे महज वोट बैंक बनकर रह गए हैं."

वे इस पर भी जोर देते हैं कि बागवानी का निर्यात जिंदगियों में बदलाव लाने में उत्प्रेरक हो सकता है.

आंध्र प्रदेश के भीमावरम की एक फैक्ट्री में फ्रोजन श्रिंप की पैकेजिंग करते कामगार

कृषि के विकास में बागवानी पहले ही अहम भूमिका निभा रही है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उसका योगदान 30.4 फीसद है, जबकि वह सकल फसल क्षेत्र के महज 13.1 फीसद का ही इस्तेमाल करती है. यह कृषि के जीवीए (सकल मूल्य संवर्धित) में भी करीब 33 फीसद का योगदान देती है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था में अच्छा-खासा योगदान है.

दरअसल, बागवानी के तहत आने वाला क्षेत्रफल अगर 50 फीसद तक बढ़ जाए, तो यह लंबे वक्त से किए जा रहे 'किसानों की आमदनी दोगुनी करने' के वादे को अपने आप पूरा कर सकती है. भारत 23 लाख एकड़ के साथ जैविक कृषि क्षेत्र के मामले में भी पांचवां सबसे बड़ा देश बनकर उभरा है और दुनिया के सबसे ज्यादा जैविक किसान यहीं रहते हैं.

कृषि मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक समग्र जैविक खेती उद्योग के 2026 तक 10.1 अरब डॉलर (84,797 लाख करोड़ रुपए) का हो जाने की उम्मीद है. 

क्षमता बढ़ाने की भारी गुंजाइश

बागवानी में निजी क्षेत्र की तरफ से बड़े निवेशों के अलावा एपीडा ने जल्द खराब हो जाने वाले माल और कटाई के बाद फसलों की एकजुट साज-संभाल के लिए कई सुविधाएं स्थापित की हैं. किसान, प्रसंस्करण करने वालों और निर्यातकों के स्तरों पर भी क्षमता निर्माण की पहल हो रही हैं. भारत के लिए बड़े फायदे की बात उसके आठ कृषि जलवायु क्षेत्र हैं, जो पूरे साल तरह-तरह के फलों और सब्जियों की उपलब्धता सुनिश्चित करते हैं.

2023-24 में 70 लाख हेक्टेयर में फल उगाए जा रहे थे, तो 11 लाख हेक्टेयर में सब्जियां उगाई गईं. बागवानी ने 2011-12 में प्रति हेक्टेयर पैदावार में अनाजों को पीछे छोड़ दिया और 2021-21 में इसकी पैदावार प्रति हेक्टेयर 12.5 टन थी, जबकि अनाजों की उपज 2.2 टन ही थी. यही नहीं, बागवानी ग्रामीण इलाकों में रोजगार के ज्यादा अवसरों और किसानों के लिए ज्यादा आमदनी का सृजन करती है (एक हेक्टेयर में फल उगाने से साल में 860 मानव-दिवस का काम उपलब्ध होता है, जबकि अनाज की फसलों से 143 मानव-दिवस का काम ही पैदा होता है).

बागवानी में निर्यात की वृद्धि को पैदावार और विपणन की चुनौतियों, ढुलाई के नाकाफी बुनियादी ढांचे, टुकड़ों में बंटी आपूर्ति शृंखलाओं और नाकाफी भंडारण सुविधाओं ने काफी नुक्सान पहुंचाया है. मगर सबसे बड़ी चुनौती वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बनने की है. घरेलू स्तर पर बागवानी की पैठ और प्रसार लगातार बढ़ रहा है. छोटे और सीमांत किसानों ने, जो बागवानी से जुड़े किसानों का 86.2 फीसद हिस्सा हैं, कई क्षेत्रों में इसे अपनाया है और उनकी उपज की बहुत ज्यादा मांग भी है.

बढ़ती आमदनियों, शहरीकरण और स्वास्थ्य को लेकर बढ़ती जागरूकता और ज्यादा खपत के जाहिरा तौर पर विरोधाभासी रुझान सब योगदान देने वाले कारक रहे हैं. कृषि निर्यात क्षेत्र और ग्रेपनेट सरीखी कई सरकारी पहलों ने भी बागवानी को बढ़ाने में मदद की.

मगर समुचित सिंचाई का अभाव और मिट्टी के खराब प्रबंधन के अलावा खेती की छोटी-छोटी जोत भी इसकी खेती की कई चुनौतियों में शामिल हैं. जमीन की सीमित उपलब्धता का असर फसल चक्र और टिकाऊ कृषि के तरीकों के इस्तेमाल पर पड़ता है, क्योंकि छोटे किसानों के पास इन्हें सफलता से लागू करने की जगह या साधन नहीं भी हो सकते हैं. विकल्प यह है कि बढ़त का पूरा फायदा उठाने के लिए किसानों को समूहों में संगठित करना होगा और उन्हें निश्चित फसलें उगाने की सलाह देनी होगी.

राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड के मुताबिक, बागवानी की विभिन्न फसलों की कम पैदावार के पीछे एक कारक अच्छी किस्म की पौधरोपण सामग्री का नाकाफी तादाद में मिलना भी है. फिर भी कृषि विज्ञान की नवीनतम जानकारियों और खेती-किसानी की टिकाऊ तकनीकों, एकीकृत कीट प्रबंधन, और फसलों की रक्षा करने वाले उत्पादों के जिक्वमेदार इस्तेमाल सहित प्रिसीजन फार्मिंग या परिशुद्ध खेती की पद्धतियां उपज को बढ़ा सकती हैं और पर्यावरण पर प्रभावों को कम से कम करते हुए गुणवत्ता बनाए रख सकती हैं.

फिलहाल इस क्षेत्र में कम निवेश होने में कृषि बीमे तक सीमित पहुंच और खेती के मशीनीकरण के साथ छोटे और सीमांत किसानों के लिए सांस्थानिक कर्ज सुलभ न होने का योगदान है. पर्याप्त कर्ज मिलना सुनिश्चित करने के लिए सरकार इसके सालाना लक्ष्य तय करती है. मगर फिर भी, राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के अनुसार, करीब 30 फीसद कृषि परिवार गैर-सांस्थानिक स्रोतों से कर्ज लेते हैं.

बागवानी की एक और अड़चन कमजोर कृषि उपज संगठन (एफपीओ) हैं. एफपीओ बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्था को संभव बना सकते हैं, कामकाज में दक्षता बढ़ा सकते हैं, किसानों को (अंतरराष्ट्रीय) खरीदारों से जोड़ सकते हैं, उचित मूल्य दिला सकते हैं, बिचौलियों का असर कम से कम कर सकते हैं, और आधुनिक खेती की पेचीदगियों को संभालने में किसानों की क्षमता का निर्माण कर सकते हैं. मगर उनकी कमजोरियों से बागवानी की चुनौतियां बढ़ जाती हैं, जिससे मौजूद मौकों का फायदा उठाने की किसानों की क्षमता सीमित हो जाती है.

किसानों की मोलभाव की ताकत बढ़ाने की जरूरत को पहचानकर सरकार 6,300 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ एफपीओ के गठन और संवर्धन की एक योजना पर अमल कर रही है. अभी तक करीब 8,000 एफपीओ बनाए गए हैं. फसल-केंद्रित मूल्य शृंखलाओं के अलावा ये एफपीओ कृषि उद्यमशीलता के विकास और वैश्विक मानकों पर खरी उतरने वाली गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं की खेती में किसानों का मार्गदर्शन करेंगे.

बागवानी के लिए पहले कभी इतना अच्छा दौर नहीं रहा, खासकर जब से भविष्य की कृषि के सरकार के विजन के साथ इसका तालमेल बना है. इसकी कामयाबी के लिए कई योजनाएं शुरू की गई हैं, जैसे सिंचाई में सुधार और पानी की बर्बादी रोकने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई); छोटी जोत के किसानों को साथ लाने, पैदावार से पहले और फसल के बाद लॉजिस्टिक्स, ब्रांडिंग और दूसरे मसलों में सहायता देने के लिए क्लस्टर विकास कार्यक्रम (सीडीपी); और मान्यता (प्रशिक्षण और प्रमाणन) के साथ क्लस्टर आधारित जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई).

फिर प्रधानमंत्री फसल बीमा में बुआई से पहले से लेकर फसल के बाद तक के घाटों के लिए व्यापक फसल बीमा कवरेज और मिट्टी को सेहतमंद बनाने के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड दिए जाते हैं. मॉडल कृषि भूमि पट्टा अधिनियम 2016 ने भी पट्टे को वैध बनाने और पट्टेदार को बीमा व कर्ज सुलभ करवाने में मदद की है.

मार्केटिंग की कड़ियां

बागवानी निर्यात उपज की जल्द खराब होने की फितरत की वजह से जोखिम भरा है. निर्यात के सफर में आम तौर पर कई सारे पक्षों—किसान, लॉजिस्टिक ऑपरेटरों, कस्टम प्राधिकारी, फाइटोसैनिटरी (पादप स्वच्छता और रोग) निरीक्षण एजेंसियां, रीपैकेजिंग प्रदाता और अन्य—का हाथ लगता है. खुदरा विक्रेता को ताजा डिलिवरी सुनिश्चित करने के लिए यह तेजी से और तालमेल के साथ करना होता है. खराब लॉजिस्टिक और कोल्ड स्टोरेज तथा गोदाम की समुचित सुविधाओं का न होना देरी और बर्बादी में योगदान देता है.

राज्यों में मौजूदा कोल्ड स्टोरेज भी असमान हैं, जिसमें भंडारण क्षमता (21 एमटी) का पांच में से करीब तीन हिस्सा चार राज्यों उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात और पंजाब तक सीमित है, और उसमें से भी ज्यादातर केवल आलू की फसल के लिए है. कोल्ड स्टोरेज क्षमता में बढ़ोतरी, पर ऐसी जो ज्यादा व्यापक और फैली हुई हो, किसानों को मांग के उतार-चढ़ावों के हिसाब से आपूर्ति तय करने की सहूलत देगी, जो निर्यात के वक्त अहम बढ़त बन जाती है.

इसके बावजूद इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि देश की प्रसंस्करण सुविधाओं में क्षमता का इस्तेमाल अभी बमुश्किल 30 फीसद ही है. ऐसा शायद इसलिए है कि मार्केटिंग या विपणन हमारी सबसे कमजोर कड़ी है. चेंगल रेड्डी कहते हैं, "हम साल में 2.8 करोड़ टन आम उगाते हैं लेकिन इसका दसवां हिस्सा भी निर्यात नहीं करते."

खाद्य प्रसंस्करण

मूल्य संवर्धन, प्रसंस्करण और निर्यात के लिए यह समझना कि किसान, उद्योग और निर्यातक क्या चाहते हैं और वह उन्हें सुलभ और उपलब्ध करवाना बहुत जरूरी है. खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय ने उद्योग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई योजनाएं लॉन्च की हैं, जिनमें कोल्ड चेन के बुनियादी ढांचे, कृषि प्रसंस्करण क्लस्टर, पीछे और आगे की कड़ियों, परिरक्षण के बुनियादी ढांचे, ऑपरेशन ग्रीन्स (एकीकृत मूल्य शृंखला विकास परियोजना) और मेगा फूड पार्कों का निर्माण शामिल है.

ये योजनाएं खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को भंडारण, परीक्षण प्रयोगशालाओं और लॉजिस्टिक्स सरीखी कई सुविधाएं देती हैं, जबकि जल्द खराब होने वाली वस्तुओं की आपूर्ति और कीमतों को स्थिर रखती हैं. निर्यात की डलिया का विस्तार करने के लिए क्षेत्र विशेष की खास उपज की खूबियों का फायदा उठाते हुए एक जिला एक उत्पाद मॉडल के तहत फलों और सब्जियों का प्रसंस्करण भी किया जा सकता है.

फसलों की हैरतअंगेज किस्मों और उन कृषि-जलवायु स्थितियों के साथ जिनमें उन्हें उगाया जाता है, भारतीय कृषि की विविधता दिमाग चकराने वाली है. मगर फिलहाल ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इसे राष्ट्रीय नजरिए से दिशा दे सके, जिस तरह उद्योग और सेवा क्षेत्रों में किया जाता है.

राज्यसभा में भारत राष्ट्र समिति के नेता और एमपीज फोरम फॉर फार्मर्स के संयोजक के.आर. सुरेश रेड्डी कहते हैं, "हमें अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरह ऐसे तंत्र की जरूरत है, जिसमें किसानों के ब्यूरो और कृषि परिषदें किसानों की सहायता करें और उन्हें वाजिब सौदे दिलवाना पक्का करें. आयोग को पूरी तरह किसानों के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए...उन्हें अभी कई विभाग और मंत्रालय संभाल रहे हैं."

सभी हितधारकों से मिलकर बनी राष्ट्रीय कृषि सलाहकार परिषद जवाब हो सकती है. नई शुरुआत करने और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए वह अक्सर फलों का राजा कहे जाने वाले आम को भारत का फल राजदूत भी घोषित कर सकती है.

खास बातें

- वैश्विक स्तर पर बागवानी में भारत दूसरे स्थान पर है लेकिन निर्यात में हिस्सेदारी महज 1.1 फीसद ही है.

- बागवानी की कृषि जीडीपी में 30.4 फीसद की हिस्सेदारी है.

- छोटी जोत के किसान बागवानी में 86.2 फीसद की हिस्सेदारी रखते हैं. यह वरदान भी है और अभिशाप भी. कइयों को रोजगार मिलता है लेकिन पैदावार बढ़ाना मुश्किल.

- अब बागवानी को केंद्र सरकार का समर्थन मिल रहा है, खासकर उसके लिए बनाई गई स्कीमों के जरिए.

- किसान अब भी बागवानी में आने से हिचकते हैं, अनाजों में एमएसपी की निश्चितता के मुकाबले यहां ज्यादा जोखिम लगता है.

- फूड प्रोसेसिंग की मार्केटिंग में कायापलट की जरूरत; मांग धीमी है, इकाइयां 30 फीसद क्षमता से काम कर रही है.

Read more!