डिस्कॉम पर कैसे लगाम लगा रहा है ऊर्जा मंत्रालय?

थोड़ा लालच और थोड़ी धमकी के जरिए ऊर्जा मंत्रालय डिस्कॉम यानी बिजली वितरण कंपनियों को चौकस बनाने की कोशिश में जुटा लेकिन सुधारों की इस राह में चुनौतियां बेशुमार

अधिकांश राज्यों में सरकार संचालित डिस्कॉम (डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों) का संचित घाटा बढ़ा जिससे सुधार की तत्काल जरूरत आन पड़ी
अधिकांश राज्यों में सरकार संचालित डिस्कॉम (डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों) का संचित घाटा बढ़ा जिससे सुधार की तत्काल जरूरत आन पड़ी

राजस्थान की नई बनी भाजपा सरकार के ऊर्जा मंत्री हीरालाल नागर जनवरी के मध्य में केंद्रीय बिजली मंत्री आर.के. सिंह के नई दिल्ली के उनके दफ्तर में एक गुजारिश लेकर आए. वे जानना चाहते थे कि क्या उनके राज्य को उधारी के नियमों में कुछ छूट के साथ अतिरिक्त बिजली मिल सकती है? राज्य नियामक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान की वितरण कंपनियों या डिस्कॉम पर कुल 79,370 करोड़ रुपए का कर्ज है.

यह उस नई सरकार के लिए बड़ी मुसीबत है जिसे 5.37 लाख करोड़ रुपए का कर्ज - जो सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का करीब 38 फीसद है - विरासत में मिला है. उसे पिछली सरकार की तरफ से किए बिजली सब्सिडी के वादों को भी पूरा करना है. नागर अकेले नहीं हैं. दूसरे राज्यों के ऊर्जा मंत्री और मुख्यमंत्री भी ऐसी ही गुजारिश लेकर सिंह के पास आ रहे हैं कि या तो उन्हें ज्यादा बिजली दी जाए या उनके डिस्कॉम के कर्ज या उत्पादन और पारेषण कंपनियों पर बकाया राशियां माफ कर दी जाएं.

सिंह सभी को विनम्रता से एक-सा जवाब देते हैं - "सॉरी". इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में सिंह बताते हैं, "हम खोटे धन के पीछे और ज्यादा रकम नहीं झोंक सकते. किसी के लिए कोई छूट नहीं है...पूरी व्यवस्था स्वचालित और नियम आधारित है. अगर मैं भी इसे झांसा देना चाहूं तो नहीं दे सकता. इसमें कोई राजनीति नहीं है." इसके बजाए केंद्रीय मंत्री अपने इन मेहमानों को विकल्प सुझाते हैं और सुधारों की कंटीली डगर से न डिगने की सलाह देते हैं. उनका संदेश साफ है - राज्यों को चौबीसों घंटे बिजली आपूर्ति के लिए अथक प्रयास करना होगा और ऐसा उन डिस्कॉम की राजकोषीय सेहत के साथ समझौता किए बिना करना होगा जिन्हें दशकों से बिजली क्षेत्र की सबसे कमजोर कड़ी बताया जाता रहा है.

डिस्कॉम की यह दुर्दशा क्यों

भारत का बिजली क्षेत्र काफी जटिल है, जिसमें केंद्र, राज्यों और निजी कंपनियों के स्वामित्व वाली कई संस्थाएं बिजली के उत्पादन, पारेषण और वितरण के कामों से जुड़ी हैं. एनटीपीसी लिमिटेड और एनएचपीसी लिमिटेड सरीखी उत्पादन कंपनियां या जेनको बिजली संयंत्र चलाती हैं जबकि पारेषण कंपनियां या ट्रांसको हाइ वोल्टेज की पारेषण लाइनों का संचालन करती हैं. 56 तो राज्यों के अपने डिस्कॉम हैं और 16 प्राइवेट सेक्टर के. इसके अलावा छोटी एजेंसियां भी हैं. ये सब मिलकर बैकएंड पर जेनकोज और ट्रांस्कोज से राफ्ता रखते हुए अंतिम छोर के उपभोक्ता तक सप्लाइ पहुंचाती हैं.

राजनैतिक मजबूरियों ने राज्यों के स्वामित्व वाले डिस्कॉम को घरेलू उपभोक्ता और किसान सरीखे कुछ खास समूहों के लिए बिजली की दरें कम रखने को बाध्य कर दिया. उनकी भरपाई या तो क्रॉस-सब्सिडी यानी उद्योग और दूसरे कमर्शियल उपभोक्ताओं से बिजली की ज्यादा कीमत वसूलकर या संबंधित राज्य सरकारों से सब्सिडी के जरिए की गई.

दरअसल, राज्यों का कुल बिजली सब्सिडी बिल वित्त वर्ष 2016 में 75,608 करोड़ रुपए से बढ़कर वित्त वर्ष 2023 में 1.34 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. मगर इस सब्सिडी को चुकाने में देरी हुई और कई बार तो सालों टलती रही. साथ ही, सरकारी महकमों से बिलों की वसूली में भी देरी हुई. इस सबका सीधा असर डिस्कॉम के नकदी प्रवाह पर पड़ा.

यह एक तरह का दुष्चक्र है. अब राज्यों को सब्सिडी तुरत चुकानी होगी और बिजली की दरों में सप्लाइ की असल लागत का ध्यान रखना पड़ेगा. पर वे खुद गले-गले तक कर्ज में डूबे हैं. कई राज्यों का जीएसडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात 30 फीसद की तय सीमा से ऊपर बना हुआ है. मसलन, नकदी की तंगी से जूझ रहा पंजाब वित्त वर्ष 2022-23 में पंजाब स्टेट पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड (पीएसपीसीएल) पर लदे 4,700 करोड़ रुपए के घाटे से निबट रहा है.

रिपोर्ट के मुताबिक, इस डिस्कॉम को अपने बकाये चुकाने और बिजली कटने से बचाने के लिए 800 करोड़ रुपए का कर्ज लेना पड़ा. उसे आम आदमी पार्टी की हुकूमत से सब्सिडी बिल चुकाए जाने का इंतजार था. तेलंगाना की नई कांग्रेस हुकूमत ने भी यह कहकर खतरे की घंटी बजा दी कि उसके दोनों डिस्कॉम अब तक कुल जमा 62,461 करोड़ रुपए के घाटों से तार-तार हैं. इस बीच भाजपा की हुकूमत वाले उत्तर प्रदेश में तीन डिस्कॉम करीब 70,000 करोड़ रुपए के घाटे से जूझ रहे हैं. देश के इने-गिने डिस्कॉम को छोड़कर ज्यादातर अब भी घाटे में हैं. राष्ट्रीय स्तर पर बिजली वितरण क्षेत्र का कुल घाटा वित्त वर्ष 23 में 5.41 लाख करोड़ रु. का रहा.

वित्तीय संस्थाओं ने डिस्कॉम को जोखिम भरा मानते हुए एक दशक से ज्यादा समय तक किसी तरह का कर्ज ही नहीं दिया. इससे समस्या और बढ़ गई. तबाह डिस्कॉम ने ट्रांस्कोज और जेनकोज के भुगताने रोके रखे. इससे संचालन कर्ज बढ़ा और इसने उधारी की लागत और बढ़ा दी. इसके बाद उनके पास एक ही विकल्प बचा - लोड शेडिंग.

ऐसे वक्त में जब ज्यादा से ज्यादा घर रोशन करने और फैक्ट्रियां चलाने को कहीं ज्यादा बिजली की दरकार है, देश इस स्थिति को ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकता. पिछले एक दशक में भारत में 10 करोड़ से ज्यादा परिवार बिजली नेटवर्क से जुड़े हैं. 2023 में पीक पावर डिमांड 1 सितंबर को 240 गीगावॉट पर पहुंच गई थी जबकि देश में बिजली की औसत कमी 0.6 फीसद है.
 
सुधारों की राह

सिंह के 2017 में बिजली मंत्रालय संभालते वक्त ऐसे ही हालात विरासत में मिले थे. 20 फीसद डिस्कॉम के पास ही इतनी नकदी थी कि वे उपभोक्ताओं को दी जाने वाली बिजली खरीद पाएं. ऐसे में सिंह का पहला काम डिस्कॉम को ढर्रे पर लाना था. इसके लिए मंत्रालय ने थोड़ा पुचकारने और थोड़ा डराने का रवैया अपनाया. जून 2022 में सरकार ने बिजली (विलंब भुगतान अधिभार और संबंधित मामले) नियम जारी किए. इसमें डिस्कॉम को बकाए बगैर किसी जुर्माने के वित्त वर्ष 2025-26 तक चरणबद्ध तरीके से चुकाने की अनुमति दे दी. दूसरी ओर 15वें वित्त आयोग ने राज्यों को अपनी जीएसडीपी पर 0.5 फीसद का और उधार लेने की जगह बना दी, बशर्ते वे बिजली क्षेत्र के सुधार लागू करने को राजी हों.

राज्यों को एक और राहत 2021 में 3 लाख करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ शुरू की गई संशोधित वितरण क्षेत्र योजना (आरडीएसएस) और पांच साल के लिए 97,631 करोड़ रुपए की अनुमानित सकल बजटीय सहायता थी. मौजूदा योजनाओं को मिलाकर नया पूल बनाया गया, जिसमें बुनियादी ढांचे में सुधार और स्मार्ट तथा प्रीपेड मीटरों की स्थापना पर किए गए खर्चों की सख्त निगरानी की जाती है.

बिजली मंत्रालय ने ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (आरईसी) और विद्युत वित्त निगम (पीएफसी) को डिस्कॉम को कर्ज देने की इजाजत दे दी, जिसके लिए अतिरिक्त विवेकपूर्ण मानदंड लाए गए. इनमें मौजूद बकाया चुकाने के लिए भुगतान सुरक्षा तंत्र (पीएसएम) की स्थापना, तकनीकी परेशानियों, चोरी, भुगतान में चूक और बिलिंग व संग्रह की अक्षमताओं की वजह से होने वाले डिस्कॉम के एटीऐंडसी (एग्रीगेट टेक्निकल ऐंड कमर्शियल) घाटों को वित्त वर्ष 25 तक करीब 22 फीसद से घटाकर 12-15 फीसद पर लाने और इसी अवधि में बिजली की खरीद लागत व बिक्री मूल्य के बीच के अंतर को पाटने की प्रतिबद्धता शामिल थी. इस प्रतिबद्धता का अनुमोदन पहले राज्य सरकारों को करना है और उसके बाद इसे ऋणदाताओं और मंत्रालय को सौंपा जाएगा.

और दंड? अगर भुगतान में देरी होती है तो पावर एक्सचेंज से बिजली की आपूर्ति धीरे-धीरे काट दी जाती है. मसलन, अगस्त 2022 में स्थानीय डिस्पैच सेंटरों ने जेनको के बकायों का भुगतान न करने का हवाला देकर 13 राज्यों के 27 डिस्कॉम को पावर एक्सचेंजों से बिजली खरीदने या बेचने से रोक दिया. ये बकाया राशियां, जो जून 2022 में 1.38 लाख करोड़ रुपए थीं, जनवरी 2024 तक तक घटकर 40,000 करोड़ रुपए पर आ गईं, और इस साल के मध्य तक पूरी वसूल कर लिए जाने की उम्मीद है.

लेकिन क्या यह पर्याप्त है?

सिंह भले सही राह पर हों, पर अभी यह देखा जाना है कि ये प्रयास बिजली क्षेत्र की ढांचागत खामियों को दूर करने के लिए पर्याप्त होंगे. इतिहास आलोचकों की शंका दूर करने में खास मदद नहीं करता. 2001-02 में तत्कालीन योजना आयोग के सदस्य मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने दीर्घकालिक बॉन्ड जारी करके राज्यों की जनोपयोगी सेवाओं के लिए बेलआउट पैकेज तैयार किया था.

इन बॉन्ड से उधारदाताओं को देय उनके बकाये टाल दिए गए, पर कामकाज में दक्षता पर जोर देने की तरफ कोई ध्यान नहीं था. दो साल बाद विद्युत अधिनियम 2003 ने राज्यों के लिए नियामकों को अधिकार देकर राज्य बिजली बोर्डों (एसईबी) को जेनको, ट्रांसको और डिस्कॉम में बांटना अनिवार्य बना दिया. राज्यों ने अपने बोर्ड को बांटने में वक्त लिया; लेकिन नियामक सस्ती बिजली पर जोर देने वाले राजनैतिक दबावों को नाकाम नहीं कर पाए.

बाद में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की हुकूमत के दौरान पूर्व महानियंत्रक और लेखा परीक्षक वी.के. शुंगलू की अध्यक्षता में एक समिति ने डिस्कॉम के घाटे कम करने के लिए सुधारों की सिफारिश की, पर वित्त वर्ष 12 के अंत तक उनका कुल जमा कर्ज 82,000 करोड़ रुपए था, जिसमें 31 फीसद एटीऐंडसी का घाटा था. इसने तब वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को डिस्कॉम के लिए वित्तीय पुनर्गठन योजना (एफआरपी) तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया.

केवल छह राज्यों ने इस पैकेज का विकल्प चुना; दूसरों ने कहा कि लगाई गई पाबंदियां अव्यावहारिक हैं और प्रोत्साहन लाभ इतने नहीं हैं कि क्षेत्र की मौजूदा बदहाली को ठीक किया जा सके. इसके अलावा नियामकों के पास इतनी ताकत नहीं थी कि सुधारों को बलपूर्वक लागू कर पाएं. अगले तीन साल में राज्य के स्वामित्व वाले डिस्कॉम पर कुल 3.9 लाख करोड़ रुपए का कर्ज और जेनको ने 2 लाख करोड़ रुपए की देनदारी चढ़ गई.

2014 में सत्ता में आने के एक साल बाद मोदी सरकार ने यूएडीवाई या उदय, यानी उज्ज्वल डिस्कॉम आश्वासन योजना लॉन्च की, जिसका मकसद डिस्कॉम की वित्तीय सेहत में सुधार लाना था और यह इस तरह किया जाना था कि राज्य सरकारें उनके कर्ज का एक हिस्सा अपने खाते में ले लें. तब बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने सुधारों के लिए पांच साल का रोडमैप भी तैयार किया. घाटे शुरुआत में तो कम हुए, पर कुछ लोगों का कहना है कि उदय इसलिए नाकाम हुई क्योंकि कई डिस्कॉम ने फंडिंग का इस्तेमाल अक्षमताओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि इसके बजाए बुनियादी ढांचे के विस्तार में पैसा लगाने के लिए किया ताकि 100 फीसद विद्युतीकरण का महत्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल किया जा सके.

सिंह ने 2017 में कमान संभाली. 2019 आते-आते घाटा फिर बढ़कर 4.5 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. विशेषज्ञों का कहना है कि वितरण की अड़चनें बनी रहीं. बताया जाता है कि डिस्कॉम बिलों की पूरी वसूली न हो पाने के डर से बिजली खरीदने में या तो असमर्थ या अनिच्छुक थे. राज्यों के मुफ्त या बहुत ज्यादा सब्सिडी की बिजली देने से समस्या और जटिल हो गई. सिंह कहते हैं, "राज्य किसी भी सेग्मेंट को सब्सिडी देने के लिए स्वतंत्र हैं. लेकिन डिस्कॉम को फौरन पैसा चुकाना होगा...अगर पैसा नहीं मिलता है तो डिस्कॉम फायदा आगे नहीं बढ़ा पाएंगी."

पहले ऐसी कई समस्याएं सुलझाने की कोशिशें औंधे मुंह गिरीं. इनमें 2016 की राष्ट्रीय शुल्क नीति भी थी, जिसमें राज्य नियामकों से यह पक्का करने की मांग की गई थी कि डिस्कॉम क्रॉस-सब्सिडी को बिजली के औसत खरीद मूल्य के 20 फीसद कम/ज्यादा तक सीमित रखें. सिंह अब नियामकों पर दबाव डाल रहे हैं कि शुल्क की श्रेणियां कम, क्रॉस-सब्सिडी में कटौती और शुल्क का लागत-प्रतिबिंबित यानी बिजली आपूर्ति की सच्ची लागत के अनुरूप होना पक्का करें. मगर नियामकों का नियमन करना बिल्कुल अलग ही खेल है.

पूर्व बिजली सचिव आर.वी. शाही बताते हैं कि चूंकि नियामकों की नियुक्ति राज्य सरकारें करती हैं, इसलिए वे शुल्क तय करने के लिए "अपने-अपने मुख्यमंत्रियों का मुंह ताकते" हैं. बिजली मंत्रालय ने इसे दुरुस्त करने का अपना प्रयास नहीं छोड़ा है, भले ही राज्य नियामकों की नियुक्ति में आमूलचूल बदलाव की उसकी कोशिश राजनैतिक झंझावात से जा टकराई.

अप्रैल 2021 में डिस्कॉम केलिए सालाना एनर्जी ऑडिट अनिवार्य किया गया जो पहले तीन साल में एक बार होता था. सिंह का कहना है, "नियामकों को कानून और नियमों के मुताबिक ही काम करना होगा... शुल्क में खरीद और आपूर्ति की सच्ची लागत झलकनी ही चाहिए."

विभिन्न राज्य नियामकों की तरफ से दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि इस शर्त को पूरा करने के लिए वित्त वर्ष 24 में शुल्क में संशोधन किया गया. अब एक उत्साजनक आंकड़ा सामने आया है: डिस्कॉम ने वित्त वर्ष 23 में 1.34 लाख करोड़ रु. की टैरिफ सब्सिडी दी और राज्य सरकारों से 1.44 करोड़ रु. हासिल किए. अगर यह रुझान बरकरार रहा तो डिस्कॉम के सामने नकदी का संकट दूर हो जाएगा.

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