अमीन सायानी : जिनकी वजह से लोग होटल सिर्फ रेडियो सुनने जाते थे

बुधवार की शाम हर तरह के लोग रेडियो वाले घरों-होटलों पर सिर्फ बिनाका गीतमाला सुनने को आ जुटते थे

अमीन सायानी (1932-2024)
अमीन सायानी (1932-2024)

अब से कोई पच्चीस साल पहले की बात है जब मैं बीबीसी वर्ल्ड टेलीविजन के लिए काम करता था. स्टूडियो से जब अपने डेस्क पर आया तो देखा कि फोन पर एक रिकॉर्डेड मैसेज था. सुना तो आवाज़ आई, "परवेज़ साहब, मेरा नाम अमीन सायानी है और मैं लंदन आया हूं. आपसे मुलाकात कब हो सकती है?" मेरी हैरत का ठिकाना न था. वो अमीन सायानी जिन्हें सुनकर मुझ जैसे करोड़ों लोगों ने रेडियो से इश्क किया, वे मेरा नाम ले रहे हैं, मुझसे मिलना चाहते हैं. वे भारतीय-पाकिस्तानी मूल के श्रोताओं के लिए लंदन के किसी रेडियो स्टेशन पर कुछ प्रोग्राम पेश करना चाहते थे, गीतमाला की शक्ल में. फिर मिलने पर ये क़िस्सा सुनाते हुए वे हंसे. मैंने पूछा तो बोले, "रेडियो स्टेशन मालिक से मिलने गया तो अच्छे से मिले. लेकिन ज़्यादा जोश नहीं दिखा. रेडियो मालिक ने बताया कि हमारे यहां एक प्रेजेंटर हैं जो वर्षों से आपकी नकल करते हैं और खूब मशहूर हैं. उनको हटाना ठीक न होगा." ये अमीन साहब का सेन्स ऑफ ह्यूमर था. उनके पास रेडियो की दुनिया के हज़ारों किस्से थे, जिसका सिलसिला 1950 के दशक से शुरू होता है.

1952 में रेडियो सिलोन पर एक आवाज़ गूंजी - बहनो और भाइयो. वो आवाज़ रेडियो श्रोताओं के दिलो-दिमाग पर नक्श है. अमीन साहब ने अपने वक्त के फिल्मी गीतों का पहला काउंटडाउन शो - बिनाका गीतमाला शुरू किया. पर उनकी मकबूलियत का राज़ क्या था? बकौल उन्हीं के, "मैं खुद को बहुत पढ़ा-लिखा नहीं समझता और न ही बहुत खूबसूरत ज़बान लिखता हूं. लेकिन जो चीज़ें मैंने सीखी हैं और खासकर जो मेरे भाई हमीद सायानी साहब ने सिखाई हैं कि ज़बान बहुत सादा होना चाहिए ताकि आप सीधे श्रोताओं से बात कर सकें. अपनी बातचीत को इंटरेक्टिव रखें ताकि श्रोता आपके फैसले में शामिल रहें." अमीन साहब दरअसल श्रोताओं से बातचीत करते थे. सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी आवाज़ बेहद खूबसूरत थी. उनका डिक्शन बहुत साफ था. किसी को समझने में दिक्कत नहीं होती थी. दुनिया जानती है कि बिनाका गीतमाला ज़बरदस्त हिट हुआ. टूथपेस्ट का नाम बदल गया लेकिन बिनाका गीतमाला अमर हो गया.

अमीन साहब से मुलाकात के बाद मेरी यादें मुझे 1970 के दशक में ले गईं. जब मेरी तरह बहुत से लोग पढ़ रहे थे लेकिन बुधवार को बिनाका गीतमाला का इंतज़ार करते थे और सुनते थे. ये आंखों देखा मंज़र है. हमारे घर के नज़दीक एक ढाबा था - ज़हूर का होटल. चाय-बिस्कुट बिकते थे. वहां कुछ अजीब-अजीब तरह के शोहदे और स्टूडेंट भी बुधवार को एक साथ बिनाका गीतमाला सुनते थे.

उस ज़माने में अलीगढ़ में फसाद बहुत होते थे. लेकिन उस दौर में हर बुधवार को अमीन साहब का कार्यक्रम ज़ख्म पर मरहम का काम करता था. इसी पर मैंने दो घंटे का एक नाटक लिख दिया ज़हूर का होटल. अब मसला था कि अमीन साहब का शो कहां से लाऊं. 2005 में लंदन में हमने यह नाटक खेला. उसके लिए अमीन साहब से नए तरह का प्रेजेंटेशन चाहिए था. वे खुश हुए और 15-20 मिनट की रिकॉर्डिंग की. दरअसल, उन्होंने उसे रीक्रिएट किया. बाद में हमने फिल्मिंग भी की, जिसे देखकर अमीन साहब बहुत खुश हुए.

अमीन साहब ने बड़े दिलचस्प किस्से सुनाए हैं. दूरदर्शन आर्काइव के लिए हमने दो दिनों में 4-5 घंटे का इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था. यह फिल्मी दुनिया का इतिहास है. एक किस्सा उन्होंने सुनाया: एक सूचना प्रसारण मंत्री हुआ करते थे बी.वी. केसकर. 10 साल मिनिस्टर रहे. उनको 1950 के दौर में ये फिक्रसताने लगी कि फिल्मी गाने कहीं भारतीय संस्कृति को नुकसान न पहुंचा दें. तो उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर फिल्मी गानों के प्रसारण पर बैन लगा दिया. इसीलिए अमीन साहब का कार्यक्रम सिलोन से हुआ करता था. बात 1960 तक पहुंची. एक फिल्म आई दिल अपना और प्रीत पराई. उसका एक गाना था शीशा-ए-दिल इतना ना उछालो...ऑल इंडिया रेडियो को सरकारी आदेश मिला कि इस गाने को बैन करना है. जिस क्लर्क को इस पर बैन का लेबल चिपकाना था, उसने इस गाने की जगह रिकॉर्ड के दूसरी तरफ के गाने पर लेबल चिपका दिया. नतीजतन, शीशा-ए-दिल...गाना तो चलता रहा, उसकी जगह इसी फिल्म का दूसरा गाना अजीब दास्तां है ये...कहां शुरू कहां खतम... चार साल तक बैन रहा. कुछ बरसों बाद जब अमीन साहब ने डीजी से मिलकर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की तो डीजी ने कहा कि अब अगर हमने ये गलती ठीक की, तो लोगों को पता चल जाएगा कि हमने पहले गलती की थी, इसलिए इसे ऐसे ही चलने दिया जाए.

मेरी तरह करोड़ों लोग हैं जो अमीन सायानी साहब को सुनकर बड़े हुए हैं. वो हमारी लोक कथा की तरह हैं. उनकी बातें जब हम करते हैं तो हम बचपन और अपनी जवानी के दिनों को याद कर रहे होते हैं. उनका जाना सिर्फ उनका जाना नहीं है बल्कि हमारी जवानी के किस्सों की यादों का जाना है. यूं समझिए कि हमारी यादों के एक युग का अंत हो गया है.

परवेज़ आलम
लेखक लंदन में बीबीसी हिंदी सेवा और बीबीसी वर्ल्ड टीवी में सीनियर प्रोड्यूसर रहे हैं. आजकल लंदन में सिने इंक नाम की कंपनी के डायरेक्टर हैं और समसामयिक विषयों पर पॉडकास्टिंग कर रहे हैं

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