भले ही वर्ल्ड कप हारे, पर भारतीय खिलाड़ियों ने बहुत कुछ जीत लिया
शानदार रणनीतिक कौशल वाली ऑस्ट्रेलिया और संभवत: पिच के गलत चुनाव के चलते भले हार गई हो पर 2023 की भारतीय टीम दूसरों से कहीं बेहतर थी

क्रिकेट विश्व कप 2023 के फाइनल से पहले मैच-पूर्व चर्चा इस बात के इर्द-गिर्द थी कि रोहित शर्मा की अगुआई वाले नीले रणबांकुरे क्या भारत की अब तक की सबसे मजबूत ओडीआई टीम हैं? किसी ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के गुण-दोषों की सीधे तुलना करने की जहमत नहीं उठाई. इसके बजाए पंडितों की दिलचस्पी महज '1983 में भारत' बनाम '2011 में भारत' बनाम '2023 में भारत' के बीच समानताओं और उनका मिलान करने में थी. आम राय से फैसला यह था कि मौजूदा भारतीय टीम के पक्ष में पलड़ा बहुत ज्यादा झुका हुआ है. मगर ज्यों-ज्यों धूल जमती गई और ऑस्ट्रेलिया ने छठी बार विश्व चैंपियन का ताज पहना, तो सवाल जो उठने लगा, वह यह था, "पूरे टूर्नामेंट में इतनी अच्छी तरह दबदबा कायम करने और महज आखिरी बाधा पार करने में नाकाम रहने पर इतिहास भारत की श्रेष्ठता को कैसे याद रखेगा?"
2007 का टी20 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य रोबिन उथप्पा कहते हैं, "अगर आप मुझसे सालों बाद भी पूछें तो मैं इस विश्व कप को दूसरी हर टीम पर भारतीय टीम के दबदबे और धाक के लिए याद रखूंगा. उन्होंने हम सब हिंदुस्तानियों को अजेय महसूस करवाया. बीते 45 दिन भारतीय क्रिकेट के लिए असाधारण रहे." ऐसे जज्बात क्रिकेट को लेकर बावले भारत में विरले ही बयान किए जाते हैं, खासकर जब देश एक दशक से ज्यादा वक्त से आइसीसी खिताब के लिए तरस रहा हो. तो भी क्रिकेट के जज्बाती मत वालों ने इस बार फाइनल में भारत की हार का इसी तरह जवाब दिया लगता है. यह इस बात का सबूत है कि पूरे टूर्नामेंट के दौरान भारतीय टीम कितनी अच्छी रही और मुरीदों ने कितना खुश महसूस किया.
महानतम टीम जो कभी नहीं जीती
स्विट्जरलैंड में हुए 1954 के फीफा फुटबॉल विश्व कप में धमाल मचाने और दबदबा कायम करने वाली हंगरी की टीम का मुकाबला फाइनल में बनिस्बतन कमतर पश्चिम जर्मनी की टीम से था. लगातार 32 मैचों में अपराजित 'माइटी मैग्यार्स', जैसा कि हंगरी की उस गोल्डन टीम को कहा जाता था, जीत की देहरी पर खड़े मालूम देते थे. धरती पर उस वक्त सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी फेरेंक पुस्कस की अगुआई में हंगरी ग्रुप मुकाबले में पश्चिम जर्मनी को 8-3 से हरा चुका था. मगर किसी ने भी फाइनल में जर्मनी की सटीकता और लगन का ख्याल नहीं रखा. दो गोल से पिछड़ने के बाद डाइ मैनशॉफ्ट यानी जर्मनी की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम ने 3-2 से जीत हासिल की. अखबारों ने इसे 'बर्न का चमत्कार' कहा. हंगरी 1954 में ऐसी महानतम टीम के तौर पर जानी गई जिसने कभी विश्व कप नहीं जीता. क्या 1954 के हंगरी की 2023 के भारत से तुलना की जा सकती है?
क्रिकेट के इतिहास में शायद ही किसी टीम ने खेल के प्रतिष्ठित आयोजन में विरोधी टीमों को इतनी उम्दा सटीकता से धूल-धूसरित किया हो जितना भारत ने इस टूर्नामेंट में किया. ऐसे दूसरे मौकों पर जिन टीमों ने पूरे टूर्नामेंट में अपना दबदबा कायम किया—1979 में वेस्ट इंडीज और 2007 में ऑस्ट्रेलिया—वे भी इतनी प्रभावशाली नहीं थीं जितना इस संस्करण में ग्रुप स्तर पर भारत का प्रदर्शन था, फिर भी वे ट्रॉफी उठाने में कामयाब रहीं. इस लिहाज से क्रिकेट में 'अहमदाबाद 2023 का उलटफेर' फुटबॉल में '1954 के बर्न के झटके' के सबसे करीब पड़ता है, जिसमें ताकतवर टीम को अंतिम पायदान पर धूल चाटनी पड़ी थी.
रोहित—मैन ऑफ द प्लान
विश्व कप 2023 में घरेलू टीम के 42 दिनों के अभियान में से 41 दिन भारत का वन-डे का सांचा चौतरफा चर्चा का विषय था. भारत की पिछली टी20 टीमों को जहां दूसरों से पीछे रहने के कारण आलोचना झेलनी पड़ी थी—क्रिकेट के सबसे छोटे फॉर्मेट में कुछ ज्यादा ही दकियानूसी होने की वजह से वे इसके हकदार भी थे—वहीं इस विश्व कप में वन-डे के उनके तौर-तरीकों ने नया मानदंड कायम किया. इंग्लैंड के 'बैजबॉल' तरीके की तो कलई ही खुल गई जब वह भारतीय परिस्थितियों में एकतरफा और बेअसर साबित हुआ. ऑस्ट्रेलिया की बल्लेबाजी भी ज्यादातर वक्त कभी कामयाब कभी नाकाम मालूम देती थी—पहले की सधी-सधायी मशीन होने के बजाए यह व्यक्तिगत प्रतिभा पर बहुत ज्यादा निर्भर थी. दबाव में चेज न कर पाने की दक्षिण अफ्रीका की कमजोरी खुला रहस्य बन गई, जबकि बल्लेबाजी में 'एक्स' फैक्टर की कमी के चलते न्यूजीलैंड के पारंपरिक तरीके ने उन्हें कोई असाधारण चमत्कार करने से रोक दिया. अपनी अच्छी तरह तैयार योजनाओं, हर बल्लेबाज की साफ तौर पर परिभाषित भूमिका और गेंदबाजों के तहलका मचा देने वाले फॉर्म के साथ भारत रफ्तार और मयार तय करने वाली टीम के तौर पर उभरा.
इस सबने ठीक एक साल पहले टी20 विश्व कप के सेमीफाइनल में इंग्लैंड के हाथों शर्मनाक हार की याद दिला दी, जब भारत गुजरे जमाने का क्रिकेट खेलते हुए नाकामी के डर से दबी टीम की तरह दिखाई देता था. यह तब था जब कप्तान रोहित शर्मा ने रेत में एक लकीर खींच दी लगती थी कि इसके आगे नहीं जाना है.
तेज बदलाव साफ जाहिर थे. भारत की प्रेस कॉन्फ्रेंस में 'प्रक्रिया', 'इरादा' और 'नतीजों के बारे में नहीं सोचते' सरीखे शब्द भारतीय कप्तान की शब्दावली का मुख्य हिस्सा थे. पहले तो यह जबानी जमा खर्च की तरह लगा, खासकर इसलिए भी कि 'प्रक्रिया' और 'इरादे' की चाशनी प्रेस के गले खूब उतारी गई, जबकि भारत के तौर-तरीकों या खेलने की शैली में सालों से कोई फर्क दिखाई नहीं दिया था. फिर यह दिखाई देने लगा. भारत के हर गेम खेलने के तरीकों से खाका नजर आने लगा. प्लेइंग 11 के हर सदस्य ने तयशुदा ढंग से अपनी भूमिका बखूबी निभाई. इरादा यह था कि व्यक्तिगत भूमिकाएं बिल्कुल सटीक और अचूक निभाई जाती हैं तो नतीजे अपने आप आएंगे. इसका मतलब था अगर छोटी बातों (अपनी भूमिका) का ख्याल रखें, तो बड़ी बातें होती जाएंगी.
कप्तान ने आगे रहकर अगुआई की. प्रवर्तक की भूमिका अदा करते हुए रोहित ठेठ शुरुआत से ही गेंदबाजों पर हमला करेंगे. भारत चाहे पहले बल्लेबाजी कर रहा हो या लक्ष्य का पीछा, पिच चाहे सपाट हो या मुश्किल, कप्तान बल्लेबाजी के औसतों से बेपहवाह बिना चूके चुनौती पेश करेंगे. यह सब करते हुए वे अपने ओपनिंग पार्टनर शुभमन गिल को अपनी सहज गति से खेलने देंगे.
विराट कोहली को टीम को बांधने वाले गोंद की भूमिका दी गई. जब दुनिया टूर्नामेंट में उनके तीन शतकों—और इस कोशिश में सचिन तेंडुलकर के सबसे ज्यादा ओडीआई शतकों का रिकॉर्ड तोड़ने—का जश्न मना रही थी, ग्रुप चरणों में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के खिलाफ उनकी दो बेहद अहम और मैच-जिताऊ पारियों पर कम ही लोगों का ध्यान गया. दोनों ही शतकीय पारियां नहीं थीं, पर उन्होंने दिखाया कि अगर प्रवर्तक और उसकी टोली लड़खड़ाई तो कोहली ने जहाज को थामे रखा और आहिस्ता-आहिस्ता टीम को फिनिश लाइन तक पहुंचने में मदद की. अगर किसी ने शतक के करीब पहुंचते हुए उनकी एहतियात और सावधानी पर उंगली उठाई, तो अब काफी वीडियो सबूत हैं जो बताते हैं कि ऐंकर की भूमिका निभाते हुए कोहली ने रनों की गति को पूरी तरह टीम प्रबंधन की मंशा के अनुरूप बनाए रखा.
फिर श्रेयस अय्यर और के.एल. राहुल के मध्य क्रम को परिस्थिति या मौके या दोनों के हिसाब से रफ्तार बनाए रखने की भूमिका निभाने का काम सौंपा गया था. यह उनकी खेली कुछ पारियों से जाहिर भी था. पाकिस्तान के खिलाफ 85 के स्ट्राइक रेट से अय्यर के 53 रन उतने ही असरदार थे जितने सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड के खिलाफ 150 के स्ट्राइक रेट से उनके 105 रन थे. यही राहुल के बारे में सच है. लीग चरण में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 84 के एहतियाती स्ट्राइक रेट से उनके 97 रन और सेमीफाइनल में न्यूजीलैंड के खिलाफ 195 के जबरदस्त स्ट्राइक रेट से 39 रन, दोनों ही बेहद अहम थे. यह उदाहरण है कि टीम को जीत की तरफ ले जाते हुए इंजन ने कितने निरायास और सहज ढंग से गियर बदले.
अंतिम कड़ी सूर्य कुमार यादव थे. उनके 35वें ओवर से पहले बल्लेबाजी करने की उम्मीद नहीं थी, ऐसे में टीम के इस 'एक्स' फैक्टर को आखिरी तड़का लगाने की भूमिका सौंपी गई. लखनऊ में इंग्लैंड के खिलाफ सुस्त पिच पर 47 गेंदों पर 49 रन बनाकर उन्होंने यही किया. इस तरह बल्लेबाजी की पहेली सुलझा ली गई, योजना कारगर मालूम देती थी. जब तक कि सब कुछ धूल-धूसरित नहीं हो गया. वह भी किसी और मैच में नहीं, बल्कि फाइनल में.
हालांकि वर्ल्ड कप कप्तान रोहित शर्मा समेत लगभग सभी खिलाड़ियों का प्रदर्शन काफी शानदार रहा था. यहां तक कि एक वक्त खूब सारी आलोचना झेलने वाली भारत की फील्डिंग भी काफी मुस्तैद नजर आई.
रोहित शर्मा ने शीर्ष पर मचाया गदर
विपक्षी आक्रमण के खिलाफ उनके शुरू में ही टूट पड़ने से पीछे के बल्लेबाजों को मजबूत नींव मिल जाती थी. मैदान पर भी वे प्रेरक कप्तान साबित हुए.
जसप्रीत बुमरा एकदम रॉकेट जैसा निशाना
जसप्रीत बुमरा की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी विश्व कप से ठीक पहले हुई थी, इसलिए शक था कि क्या वे पहले ही जितने घातक होंगे. बहरहाल इस शातिर पेसर ने साबित किया कि चोटों से उनकी गति-लय-ताल पर कोई असर नहीं पड़ा है. पूरे टूर्नामेंट के दौरान उन्होंने अपनी उम्दा घातक गेंदबाजी कायम रखी—उन्होंने प्रति ओवर 4.06 रन दिए और कुल 20 विकेट लिए. हर विकेट के लिए उन्होंने 18.65 रन खर्च किए. इसीलिए किसी को इस बात से हैरत नहीं हुई जब आइसीसी ने विश्वकप की बेस्ट इलेवन का चुनाव किया तो उसमें उनका भी नाम शामिल था.
विराट कोहली
छह अर्धशतक और तीन शतकों के साथ 765 रन—विश्व कप में किसी भी बल्लेबाज के सर्वाधिक रन—वे भारतीय बल्लेबाजी की रीढ़ बन गए.
मोहम्मद शमी
मोहम्मद शमी विश्व कप में शुरू के चार मैचों में बाहर बैठे रहे, इसके बावजूद वे टूर्नामेंट के सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज बने, यह तथ्य अपने आप में ही उनकी सनसनीखेज गेंदबाजी फॉर्म की कहानी कह देता है. पूरे टूर्नामेंट में उन्होंने कहर बरपाया. प्रति विकेट 10.70 रन की औसत से उन्होंने 24 विकेट लिए, उनका प्रति ओवर रन औसत 5.26 रहा. सेमी-फाइनल में न्यूजीलैंड के खिलाफ तो उन्होंने सात विकेट लपेटे. मनचाहे ढंग से गेंद को सीम कराने की उनकी काबिलियत ने खुर्राट बल्लेबाजों को भी घुटनों पर ला दिया.
फील्डिंग इकाई बेमिसाल
भारतीय टीम के क्षेत्ररक्षण पर शायद उस तरह से लोगों का ध्यान नहीं गया. पूरे विश्वकप में उसके खिलाड़ियों ने मैदान के हर कोने से शानदार ढंग से फील्डिंग की. उन्होंने शायद ही कोई कैच छोड़ा और फील्डिंग कुछ इस अंदाज में की जैसे गेंद रोकना उनके लिए जीवन-मरण का सवाल हो. हर मैच के बाद ड्रेसिंग रूम में 'बेस्ट फील्डर' का तमगा दिए जाने के शुरू हुए सिलसिले ने सचमुच जादुई असर डाला. फील्डिंग के स्तर को ऊपर उठाने का जज्बा गजब का था. उसी का नतीजा था कि हर दृष्टि से एक अस्थायी विकेटकीपर के.एल. राहुल ने विकेट के पीछे कुछ निहायत शानदार कैच पकड़े. विशेषज्ञों ने उन्हें टूर्नामेंट के श्रेष्ठतम विकेटकीपरों में से एक के रूप में आंका.
शिकारी हुआ शिकार
बहुत बारीकी और सूझ-बूझ से तैयार गेमप्लान के बूते भारत का कारवां ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा, उसने क्रिकेट खेलने वाली बाकी दुनिया की छानबीन को भी आमंत्रित किया. भारत ने अपने बल्लेबाजी के नजरिए को एक-सा बनाए रखा—और इसे मिली अपूर्व कामयाबी को देखते हुए किसी प्रयोग की जरूरत भी नहीं समझी—इसने उन्हें उघाड़कर रख दिया. और जैसा कि फाइनल से पता चला. शुरुआत से ही गेंदबाजों पर हमला बोल देने की रोहित की फितरत को जानते हुए ऑस्ट्रेलिया ने आठवें ओवर में ही उनके आगे पार्टटाइम ऑफ-स्पिनर ग्लेन मैक्सवेल का चुग्गा फेंका. मैक्सवेल जब अपने दूसरे ओवर के लिए आए, रोहित जाल में फंसने के लिए तैयार हो चुके थे.
फिर लगातार दो शतक लगाकर उत्साह से भरे श्रेयस अय्यर क्रिकेट की किताब की सबसे पुरानी तरकीब—शॉर्ट बॉल का झांसा—के शिकार हुए. प्रेस कॉन्फ्रेंसों में वे शॉर्ट बॉल से जुड़े सवालों से परेशान थे, जो ऑस्ट्रेलियाइयों की नजरों से छिपा नहीं रहा. अय्यर ने ज्यों ही पैट कमिंस के खिलाफ मोर्चा संभाला, ऐन मौके पर चार ऑस्ट्रेलियाई फील्डर बाउंड्री पर थे, दो लेग साइड पर और दो ऑफ साइड में, सभी स्क्वेयर के पीछे—यह शॉर्ट बॉल के लिए बिल्कुल किताबी बिसात थी. जब कमिंस ने अच्छी लेंग्थ वाली गेंद फेंककर चारा डाला, तो अय्यर क्रीज में बंधे रह गए, लिहाजा वह गेंद किनारा छूकर निकल गई जिसे उन्हें आगे बढ़कर खेलना चाहिए था.
जब विराट और राहुल को 11वें ओवर में ही क्रीज पर आना पड़ा और तय सांचे—परिस्थितियों (सूखी पिच) का सम्मान करना और मौके (एसकेवाई को 35वें ओवर से पहले उतारना गवारा नहीं कर सकते थे)—के हिसाब से बल्लेबाजी करनी पड़ी, तो ऑस्ट्रेलियाई भारतीय टीम को ठीक वहां ले आए जहां वे लाना चाहते थे. भारत की सख्त योजना अब ऑस्ट्रेलियाई हाथों में चली गई. इसके बाद के चालीस ओवरों में भारत कुल जमा चार चौके जड़ सका, जो मौजूदा वक्त के सफेद गेंद के क्रिकेट में अनसुना आंकड़ा है. जब तक भारत की पारी पूरी हुई, ऑस्ट्रेलिया की नई ईजाद जवाबी योजना भारत के हफ्तों पुराने तयशुदा फॉर्मूले को फतह कर चुकी थी. दरअसल अभी तक जो सांचा भारत के पक्ष में कारगर रहा था, एक तरह से वही उनके पतन की वजह साबित हुआ. ऑस्ट्रेलिया के अदम्य जज्बे और बड़े मैच खेलने के मिजाज में तो खैर कोई शक ही नहीं, पर उनका रणनीतिक योजना बनाकर खेलना उनके छह विश्व कप खिताब जीतने की प्रमुख वजह रहा हो सकता है.
पिच का (कु)प्रबंधन
एक बार और दिल टूटने के बावजूद फाइनल के उलटफेर से भारतीय क्रिकेट में कोई बड़ा बदलाव आता नहीं दिखता. मगर भारतीय क्रिकेट के जिस पहलू पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है, वह है विरोधियों को डराने की कोशिश में बहुत ज्यादा सूखे पिच तैयार करना. यह चाल कई मौकों पर उलटी पड़ी है. यह फाइनल भी इसका मुकम्मल उदाहरण था. भारत को सूखी सतह पर बल्लेबाजी करनी पड़ी, जहां पिच की डबल-पेस्ड फितरत के चलते पहले बल्लेबाजी करने वाली टीम बदतर स्थिति में रही. नतीजा यह हुआ कि ऑस्ट्रेलिया के मुकाबले खिलाड़ियों और फॉर्म के मामले में मेजबान टीम की श्रेष्ठता अंतत: बेअसर हो गई और इतर चीजों ने उस रात विजेता तय करने में अपने हिस्से की भूमिका निभाई.
नियम तो यही कहते हैं कि आइसीसी के टूर्नामेंटों में पिच तैयार करने की जिम्मेदारी केवल और केवल इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल की होती है, पर यह राज की बात नहीं कि स्थानीय क्यूरेटर घरेलू टीम की मांगों पर ध्यान देते हैं. 2011 के विश्व कप विजेता हरभजन सिंह ने इंडिया टुडे से कहा, "अगर फाइनल में अच्छी बैटिंग पिच होती, 300 से ज्यादा वाली पिच, तो भारत के जीतने की कहीं ज्यादा संभावना होती. याद रखें कि यह वह टीम है जिसने ऑस्ट्रेलिया को टेस्ट सीरीज में उनके अपने आंगन में हराया था. तो हमें ऐसी पिचों पर क्यों खेलना चाहिए जो परिस्थितियों को नतीजे में बड़ी भूमिका अदा करने देती हैं?"
भारत का विश्व कप का यादगार अभियान खत्म हुआ. अब सवाल है—आइसीसी ट्रॉफी के अपने लंबे इंतजार को खत्म करने के लिए भारत को क्या करना चाहिए? 2023 विश्वकप का फाइनल इस मामले में मुकम्मल सबक होना चाहिए.'
- निखिल नाज