महाराष्ट्र : मराठा आरक्षण पर अबकी आर-पार!
नौकरियों और शिक्षा में मराठा समुदाय को आरक्षण देने की मांग से राज्य की सियासत एक बार फिर उबाल पर है

महाराष्ट्र में खासा वर्चस्व रखने वाले मराठा समुदाय ने नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांग को लेकर पहली बार सात साल पहले एक के बाद एक मौन मोर्चे निकालने शुरू किए थे. अब उसे लेकर एक बार फिर से राज्य की राजनीति में माहौल गर्मा गया है.
महाराष्ट्र और पड़ोसी राज्यों में 2016 के बाद से अब तक तकरीबन 58 मराठा क्रांति मोर्चे आयोजित किए जा चुके हैं. इनमें से कुछ में प्रदर्शनकारियों की संख्या हजारों में थी. 2018 में आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली तत्कालीन भाजपा-शिवसेना गठबंधन सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन गई थी.
ऐसी अटकलें थीं कि उस समय विपक्ष में मराठों के बीच मजबूत जनाधार वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फडणवीस को घेरने के लिए इन प्रदर्शनों को हवा दी थी. हालांकि, मराठों के इस विरोध-प्रदर्शन के जवाब में गैर-मराठा, खासकर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आगे बढ़ रहे तबके ने लामबंदी शुरू कर दी. उन्हें लग रहा था कि मराठा अंतत: आरक्षण में उनकी 27 फीसद हिस्सेदारी हड़प लेंगे. इन समूहों ने इसी तर्ज पर राज्यभर में बहुजन क्रांति मोर्चे आयोजित करने शुरू कर दिए.
जानकारी के मुताबिक, महाराष्ट्र की कुल आबादी में मराठा (क्षत्रिय) और कुनबी (किसान) की भागीदारी 31.5 फीसद है जबकि ओबीसी 52 फीसद से ज्यादा हैं. हालांकि, कोंकण और विदर्भ क्षेत्रों में काफी तादाद वाले कुनबियों का मराठों के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं है और ये पहले से ही ओबीसी श्रेणी में आते हैं.
2016 में मराठों के पहले मोर्चे के बाद से बहुत कुछ बदल चुका है. फडणवीस सरकार ने 2018 में मराठों को शिक्षा और नौकरियों में 16 फीसद आरक्षण देने के लिए एक विधेयक को मंजूरी दी. बम्बई हाइ कोर्ट ने कानून की संवैधानिक वैधता तो बरकरार रखी लेकिन शिक्षा में कोटा घटाकर 12 फीसद और नौकरियों में 13 फीसद कर दिया. फिर, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने यह कानून रद्द कर दिया. लेकिन कुछ मराठा समूह अपनी मांग पर अड़े रहे और छिटपुट आंदोलन चलते रहे.
पिछले 1 सितंबर को जालना जिले के अंतरवाली-सरती गांव में प्रदर्शनकारी भीड़ पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद इस आंदोलन ने फिर आग पकड़ ली. राज्यभर में मराठों के आह्वान पर बंद और प्रदर्शन तेज हो गए हैं. मराठा समूहों की नाराजगी को दूर करने की कोशिश में एकनाथ शिंदे सरकार ने जालना में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को बदल दिया. यही नहीं, 11 सितंबर को तीन अधिकारियों को निलंबित भी कर दिया गया. मराठा कार्यकर्ता मनोज जरांगे-पाटील ने 29 अगस्त को मुंबई से 400 किमी दूर स्थित अपने गांव में आमरण अनशन शुरू कर दिया था.
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि जब सुरक्षा बल मनोज का अनशन तुड़वाने और उनके गिरते स्वास्थ्य के मद्देनजर जांच और इलाज के लिए अस्पताल ले जाने की कोशिश कर रहे थे तभी धरनास्थल पर मौजूद लोगों ने उन पर पथराव किया और इसमें वे घायल हो गए. इसी वजह से लाठीचार्ज की नौबत आई. एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) प्रमुख उद्धव ठाकरे और अन्य नेता एकजुटता व्यक्त करने के लिए अंतरवाली-सरती पहुंचे थे. विपक्षी गठबंधन महाराष्ट्र विकास अघाड़ी ने मराठों के बीच असंतोष का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. परोक्ष रूप से गृह मंत्री फडणवीस पर हमला करते हुए एनसीपी नेता और पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख और शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने आरोप लगाया कि लाठीचार्ज का आदेश गृह विभाग ने दिया था.
उपमुख्यमंत्री फडणवीस ने 4 सितंबर को 'लाठीचार्ज में घायल निर्दोष लोगों’ से माफी मांगी. साथ ही स्पष्ट किया कि राज्य सरकार ने लाठीचार्ज के आदेश नहीं दिए थे. फडणवीस ने बताया कि ओबीसी छात्रवृत्ति, छात्रावास और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग जैसी रियायतों की पात्रता का दायरा मराठों तक बढ़ा दिया गया है. शिंदे बोले, वे यह पक्का करने की कोशिश कर रहे हैं कि मराठों को मिलने वाले लाभ कानूनी कसौटियों पर खरे उतरें.
लेकिन मनोज ने मांग पर अड़कर राज्य सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ा दीं. उन्होंने कहा कि वे अनशन तभी तोड़ेंगे जब सरकार मराठों को कुनबी के तौर पर जाति प्रमाणपत्र हासिल करने की अनुमति देने का फैसला करेगी. मनोज रेखांकित करते हैं कि हैदराबाद के निजाम के समय मराठवाड़ा-जालना उसी क्षेत्र में- में मराठा पिछड़ों की सूची में आते थे.
राज्य सरकार ने आवश्यक दस्तावेज होने की स्थिति में मराठों को कुनबी जाति प्रमाणपत्र हासिल करने की अनुमति देने संबंधी एक सरकारी संकल्प (जीआर) जारी किया. अब जस्टिस संदीप शिंदे (सेवानिवृत्त) की अगुआई वाली एक समिति इसका पता लगाएगी कि क्या मराठों को कुनबी के तौर पर जाति प्रमाणपत्र मिल सकता है? समिति में अतिरिक्त मुख्य सचिव (राजस्व) जैसे अधिकारी शामिल होंगे, और यह एक महीने में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी. बहरहाल, सरकार के प्रतिनिधियों और मनोज के बीच गतिरोध तोड़ने में सफलता नहीं मिली क्योंकि मनोज जीआर को खारिज कर रहे हैं.
सरकार ने 11 सितंबर को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, जिसमें एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर सामाजिक कार्यकर्ता मनोज से सरकारी पहल को देखते हुए अपना अनशन वापस लेने का अनुरोध किया गया. राज्य सरकार शीर्ष अदालत में क्यूरेटिव पीटिशन (उपचारात्मक याचिका) दायर करने पर विचार कर रही है. शिंदे ने कहा कि वे यह पक्का करने में जुटे हैं कि आरक्षण कोटा बहाल हो और ओबीसी के हिस्से में सेंध लगाए बिना मराठा यह लाभ हासिल कर सकें. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस के मामले वापस ले लेगी. 12 सितंबर को मनोज ने कहा कि जब तक शिंदे, फडणवीस, पवार और छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज छत्रपति उदयनराजे भोसले और छत्रपति संभाजीराजे उनसे मिलने नहीं आते, तब तक उनका अनशन जारी रहेगा. हालांकि, विरोध-प्रदर्शन महीने भर तो चलेगा.
मराठा नेता यह कहते हुए मनोज की मांग को जायज करार देते हैं कि मराठे और कुनबी एक ही हैं. संभाजी ब्रिगेड के प्रवीण गायकवाड़ का कहना है कि ऐतिहासिक अभिलेखों में मराठों को कुनबी कहा गया है. वे आगे जोड़ते हैं, ''मराठा नाम की कोई जाति नहीं है. राष्ट्रगान में मराठा को भौगोलिक इकाई के तौर पर संदर्भित किया गया है. जो लोग महाराष्ट्र में रहते हैं वे मराठा हैं...जाति तो व्यवसाय के आधार पर तय की गई थी. कुनबी तो बरखा पर निर्भर सीमांत किसान थे; उनमें से जो लोग खेती-बाड़ी का काम निबटाने के बाद एक क्षत्रिय की भांति योद्धा की भूमिका निभाते थे, उन्हें मराठा कहा गया. और धीरे-धीरे वे सेनापति जैसे बड़े पदों पर पहुंच गए.’’ उन्होंने कहा कि मराठों के लिए केवल एक जाति के दायरे में आरक्षण हासिल करना संभव नहीं था, इसलिए उन्हें या तो कुनबी के तौर पर या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) श्रेणी से कोटा लाभ मिल सकता है.
1 जून, 2004 को जस्टिस एस.एन. खत्री (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता वाले राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने मराठा-कुनबियों और कुनबी-मराठों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने की मांग को मंजूरी दे दी थी. गायकवाड़ के मुताबिक, ''इसका मतलब है कि मराठा और कुनबी एक हैं.’’ वे यह भी कहते हैं कि मराठों को धीरे-धीरे कुनबी के तौर पर जाति प्रमाणपत्र मिल रहे थे.
उन्नीसवीं सदी के अंत में सर विलियम विल्सन हंटर जनसांख्यिकीय आयोग ने कहा था कि छत्रपति शिवाजी महाराज कुनबी तबके से आते थे और ग्वालियर और बड़ौदा के राजा भी इसी समुदाय के थे. गायकवाड़ बताते हैं कि केशवराव बापू देशमुख लिखित क्षत्रिय मराठा समाज के तीन खंडों वाले इतिहास में भी इसी तरह का निष्कर्ष निकाला गया है.
भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक का कहना है कि पार्टी और सत्तारूढ़ गठबंधन इस मांग को लेकर असमंजस में है. पूर्व में निकाले गए मराठा मोर्चे एनसीपी समर्थित माने जाते थे और उन्होंने ओबीसी के एक तबके को भाजपा के साथ आने की जमीन बनाई. और अब पार्टी मराठों को इस श्रेणी में शामिल करके इस समुदाय को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती. हालांकि, उपमुख्यमंत्री अजित पवार के नेतृत्व वाले एनसीपी खेमे को भी अपने मराठा बहुल निर्वाचन क्षेत्रों को साधना है. ऐसे में अंदेशा इस बात का है कि विरोध-प्रदर्शन 2016 की तरह व्यापक रूप ले सकता है.
भाजपा के इस विधायक का कहना है, ''ताजा आंदोलन सरकार की तरफ से रिक्त पदों पर भर्तियां शुरू होने का नतीजा है. ग्रामीण युवाओं में सरकारी नौकरियों के प्रति खासा आकर्षण है क्योंकि उसमें एक वित्तीय सुरक्षा और करियर की स्थिरता होती है. मराठा युवाओं को लगता है कि अगर कोटा लागू होगा तो उन्हें सरकारी नौकरियां मिलने की संभावनाएं बेहतर हो जाएंगी."
हालांकि, पिछड़ा वर्ग के लोग खुद को ओबीसी श्रेणी में शामिल करने की मराठों की मांग से नाराज हैं. इसमें तकरीबन 400 वर्ग और जातियां शामिल हैं जिनमें धार्मिक विभाजन (43.7 फीसद हिंदू और 8.4 फीसद गैर-हिंदू) भी है. स्थानीय स्तर पर सत्ता के ढांचे पर नियंत्रण के मामले में मराठों के प्रतिस्पर्धी ओबीसी समुदाय को लगता है कि अगर संख्याबल के मामले में उन पर भारी पड़ने वाले मराठों को इस श्रेणी में शामिल किया गया तो वे (ओबीसी) अपने राजनैतिक आरक्षण और अन्य कोटा लाभों से वंचित हो जाएंगे.
पूर्व में क्रमश: जस्टिस आर.एम. बापट, बी.पी. सराफ और एस.एन. खत्री (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में गठित तीन आयोग मराठों को पिछड़े वर्ग के तौर पर वर्गीकृत करने की मांग को खारिज कर चुके हैं. 2000 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी यही किया था. प्रदर्शन की धमकी देते हुए कुनबियों के एक संगठन कुनबी सेना के विश्वनाथ पाटील ने कहा, ''सरकार को ऐसे किसी भी फैसले (मराठों और कुनबियों को एक श्रेणी में रखना) का खामियाजा भुगतना पड़ेगा.’’
अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संगठन के संस्थापक-अध्यक्ष और ओबीसी आंदोलन के दिग्गज नेताओं में से एक शब्बीर अहमद अंसारी कहते हैं कि असल में मराठा समुदाय अन्य पिछड़ा वर्ग के उत्थान से नाखुश है, इसीलिए इस श्रेणी में शामिल करने की मांग करता रहा है. उनका कहना है, ''संविधान के तहत आरक्षण शैक्षिक और सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया है, (लेकिन) मराठों के पास तो राजनैतिक ताकत है. समुदाय के गरीब तबके को ईडब्ल्यूएस श्रेणी के माध्यम से कोटा लाभ दिया जा सकता है.’’ उन्होंने आरोप लगाया कि मराठा अपने निहित फायदों को देखते हुए ओबीसी श्रेणी में आना चाहते हैं. साथ ही उन्होंने चेताया कि अगर इन मांगों पर ध्यान दिया गया तो वे भी विरोध प्रदर्शन करेंगे.
मराठों को पारंपरिक तौर पर शासक वर्ग के रूप में देखा जाता है और राज्य के मुख्यमंत्रियों और विधायकों की संख्या के मामले में उनकी बड़ी भागीदारी रही है. सत्ता संचालन में हमेशा उनकी पकड़ काफी मजबूत रही है. हालांकि, मराठों की एक अच्छी-खासी तादाद के लिए सत्ता के इन गलियारों तक पहुंच दूर की कौड़ी रही है.
महाराष्ट्र का सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र इन मराठा आरक्षण आंदोलनों का एक केंद्रबिंदु है. राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो विरोध-प्रदर्शनों की एक बड़ी वजह यह है कि यहां लोगों के पास भूमि जोत बहुत कम हैं, और कृषि संबंधी दिक्कतों तथा पर्याप्त आय न होने के कारण खेती अव्यावहारिक होती जा रही है. उनका कहना है कि राजनैतिक वर्ग आरक्षण को एकदम गलत ढंग से 'गरीबी हटाओ’ कार्यक्रम के तौर पर प्रचारित करता रहा है.
ओबीसी समूहों ने भी इसके जवाब में विरोध-प्रदर्शन किए हैं. राष्ट्रीय ओबीसी महासंघ के बबनराव तायवड़े चाहते हैं कि मराठों को आरक्षण पक्का करने के लिए केंद्र सरकार को कानून और संविधान में संशोधन करके कोटा पर किसी भी तरह की सीमा हटा देनी चाहिए.
ओबीसी राजकीय अघाड़ी के संस्थापक-अध्यक्ष श्रवण देवरे सवाल उठाते हैं कि आखिर सरकार ''चंद लोगों के विरोध के आगे कैसे झुक सकती है." वे यह भी कहते हैं कि शीर्ष अदालत के 2021 के फैसले ने मराठा आरक्षण रद्द करके एक तरह से यह संदेश दे दिया था कि इस तरह की मांग पूरी तरह बंद होनी चाहिए. उन्होंने चेताया कि अगर मराठों को ओबीसी श्रेणी में रखा गया तो समुदाय 2024 के चुनाव में इसका बदला जरूर लेगा.
ओबीसी समुदाय से आने वाले कांग्रेसी विधायक और नेता विपक्ष विजय वडेट्टीवार का कहना है कि अगर मराठों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करना है तो अन्य पिछड़ों के लिए आरक्षण को मौजूदा 27 फीसद (19 फीसद ओबीसी और 11 फीसद विमुक्त और घुमंतू जनजातियों) से बढ़ाया जाना चाहिए ताकि ओबीसी तबके पर कोई प्रतिकूल असर न पड़े.
बहरहाल, मराठा आरक्षण की मांग ने कुल मिलाकर भानुमती का पिटारा खोल दिया है और अन्य सामाजिक समूहों की तरफ से भी लगातार ऐसी मांगें उठाई जा रही हैं. मसलन, ढांगर (चरवाहा) समुदाय-जिसमें चरवाहे और किसान दोनों शामिल हैं-खुद को अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल करने की मांग कर रहा है, जबकि आदिवासी इसका विरोध करते हैं.
राज्य में आरक्षण की राजनीति उबाल पर है. लेकिन एक वास्तविकता यह भी है कि जातिगत आंकड़ों का कोई तार्किक आधार नहीं है, जिसकी वजह से बढ़ा-चढ़ाकर दावे और मांगें की जाती रही हैं. मिसाल के तौर पर ओबीसी को 52 फीसद हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़ा समूह माना जाता है लेकिन पूर्व मुख्य सचिव जे.के. बांठिया की अध्यक्षता वाले एक आयोग ने उनकी आबादी 37 फीसद के करीब आंकी थी. अगर कुनबियों को हटा दें तो मराठा भी संभवत: 12 से 16 फीसद ही हो सकते हैं. ब्रिटिश भारत में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी. हर दस साल में होने वाली जनगणना के तहत केवल अनुसूचित जाति (एससी) और एसटी का डेटा जुटाया जाता है.