येदियुरप्पा-सा दूसरा कौन?

भाजपा ने 2021 में येदियुरप्पा की जगह बसवराज बोम्मई को देते हुए ध्यान रखा था कि किसी लिंगायत को ही सीएम की कुर्सी मिले

आ गया चुनाव : शिवमोगा एयरपोर्ट के उद्घाटन के मौके पर बी.एस. येदियुरप्पा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ
आ गया चुनाव : शिवमोगा एयरपोर्ट के उद्घाटन के मौके पर बी.एस. येदियुरप्पा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ

अजय सुकुमारन

अस्सी वर्ष का होने से तीन दिन पहले 27 फरवरी को बी.एस. येदियुरप्पा ने कर्नाटक विधानसभा को अलविदा कह दिया. यह एक विधायक के रूप में उनके 40 साल के करियर पर पूर्णविराम था. यह उस शख्स के लिए एक जज्बाती लम्हा था जो कभी राज्य में भाजपा का अकेला विधायक था और जिसकी अगुआई में 15 साल पहले कर्नाटक में पहली बार पार्टी की सरकार बनी थी. 2019 में भाजपा ने राज्य में दोबारा सरकार बनाई तो उन्हें फिर से कुर्सी मिली. पिछले साल भर में उन्होंने कई बार संकेत दिए कि वे अब विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन विदाई भाषण में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि रिटायर व्यक्ति की तरह वे घर में बैठने नहीं जा रहे, उन्होंने कुछ लक्ष्य रखा है और उसे पूरा करने में खुद को झोंक देंगे. वह लक्ष्य है: मई में भाजपा को फिर से सत्ता में लाना. यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं होगी क्योंकि कर्नाटक में किसी सत्तारूढ़ पार्टी ने आखिरी बार 1985 में सत्ता में वापसी की थी. भाजपा के सामने तो अतिरिक्ति चुनौती है—कर्नाटक उसके लिए 'दक्षिण भारत में प्रवेश का द्वार' है.

पर 80 की उम्र में, लगता है, येदियुरप्पा भाजपा के कुछ जाने-पहचाने फॉर्मूलों की अनदेखी कर रहे हैं—खासकर, बुजुर्ग दिग्गजों के लिए रिटायरमेंट का पैमाना. जुलाई, 2021 में कार्यकाल के बीच में ही मुख्यमंत्री का पद छोड़ देने और आगामी चुनाव न लड़ने के फैसले पर अटल होने के बावजूद येदियुरप्पा राज्य के चुनावों अभियान की धुरी हैं, जबकि पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर कहीं ज्यादा निर्भर है. हाल की रैलियों में शीर्ष नेताओं ने मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से ज्यादा येदियुरप्पा के नाम का इस्तेमाल किया. 27 फरवरी को येदियुरप्पा के जन्मदिन पर मोदी एक नए हवाई अड्डे का उद्घाटन करने उनके गृह जिले शिवमोगा गए और वहां यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पार्टी उन्हें कितना महत्व देती है.

वास्तव में, उसी दिन बेलगावी में मोदी ने अपने दिग्गज नेताओं के प्रति भाजपा के बर्ताव और कांग्रेस के बर्ताव की तुलना की कि कांग्रेस ने अपने अच्छे दिनों में लोकप्रिय नेताओं-विशेष रूप से दो पूर्व मुख्यमंत्रियों एस. निजलिंगप्पा और वीरेंद्र पाटील के साथ कैसा व्यवहार किया था. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि विपक्ष पर अपने प्रहार में पीएम की आंखें कर्नाटक के एक महत्वपूर्ण वोट बैंक वीरशैव-लिंगायत पर जमी थीं जो राज्य की आबादी के अनुमानित 17 प्रतिशत के साथ सबसे बड़ा वोट बैंक है.

वीरशैव-लिंगायत लगभग 87 उप-जातियों से बना एक बड़ा समुदाय है जो 12वीं सदी के दार्शनिक और समाज सुधारक बसवन्ना के प्रति अपनी आस्था रखता है. इनमें से कुछ उप-जातियां सदर लिंगायत, बनजीगा लिंगायत और पंचमशाली सबसे ज्यादा प्रभावशाली हैं. मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई सदर लिंगायत से और येदियुरप्पा बनजीगा लिंगायत से आते हैं. राज्य में अब तक नौ लिंगायत सीएम बन चुके हैं.

इस समुदाय ने लगभग दो दशक से भाजपा का मजबूती से समर्थन किया है. 1989 में येदियुरप्पा भाजपा के एकमात्र लिंगायत विधायक थे. 2004 तक भाजपा के लिंगायत विधायकों की संख्या 34 हो गई थी. 2008 में जब पार्टी पहली बार सत्ता में आई, लिंगायत विधायकों की संख्या 39 के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई और येदियुरप्पा का कद और मजबूत हो गया. इसलिए 2021 में जब पार्टी ने उन्हें हटाया तो सावधानीपूर्वक एक लिंगायत बोम्मई को गद्दी पर बिठाया. लेकिन बोम्मई येदियुरप्पा जैसे जननेता नहीं हैं, इसलिए, आगामी चुनाव के लिए पार्टी को फिर से अपने पुराने योद्धा की लोकप्रियता पर आश्रित होना पड़ रहा है.

येदियुरप्पा के चुनावी दौड़ से बाहर होने को कांग्रेस अवसर के रूप में देख रही है और लिंगायत समुदाय को फिर से साथ लाने के लिए नजर गड़ाए हुए है. कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष और अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के महासचिव ईश्वर खांड्रे कहते हैं, ''उन्होंने येदियुरप्पा का अपमान करते हुए उन्हें जिस तरह से हटाया वह किसी को अच्छा नहीं लगा. इस बर्ताव को लोगों ने दिल पर लिया है.'' लिंगायत नेताओं ने जब भी कांग्रेस का नेतृत्व किया है, पार्टी ने 'शानदार जीत' हासिल की है.

हालांकि, 1983 में लिंगायतों ने जनता पार्टी का रुख कर लिया था. देवराज अर्स के नेतृत्व में कांग्रेस के लाए गए भूमि सुधार कानूनों से जमींदार समुदाय पार्टी से दूर हो गया था. जनता पार्टी 1989 तक सत्ता में रही लेकिन जब कांग्रेस ने पाटील के नेतृत्व में चुनाव लड़ा तो उसने कर्नाटक की 224 विधानसभा सीटों मं  से 178 जीतकर भारी जीत दर्ज की. उस साल 63 लिंगायत विधायकों में से 41 कांग्रेस के टिकट पर जीते थे. लेकिन 1990 में पाटील को पक्षाघात का दौरा पड़ा और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने उनकी जगह पिछड़े वर्ग के लोकप्रिय नेता एस. बंगारप्पा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया. उन्होंने यह घोषणा बीमार पाटील से मिलने के बाद लौटते समय बेंगलूरूहवाई अड्डे पर की जो कर्नाटक के राजनैतिक इतिहास में एक निर्णायक क्षण था. 1994 में कांग्रेस की हार में इस 'विश्वासघात' पर लिंगायतों की प्रतिक्रिया स्पष्ट थी और कांग्रेस फिर कभी इस समुदाय का समर्थन हासिल नहीं कर पाई. 1999 में 67 लिंगायत विधायकों में से आधे कांग्रेसी थे लेकिन ऐसा जनता दल मंक विभाजन के कारण हुआ था.

इस तरह का दूसरा बंटवारा येदियुरप्पा ने किया जब वे भाजपा से अलग हो गए और अपनी कर्नाटक जनता पार्टी बना ली. 2013 में कांग्रेस को इसका फायदा हुआ तो येदियुरप्पा की साख भी मजबूत हुई. वे 2016 में भाजपा में फिर लौटे और प्रदेश अध्यक्ष बने. लिंगायत उनके पीछे मजबूती से खड़े रहे. 2018 में चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया ने लिंगायत मत को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की लंबे समय से चली आ रही मांग मान ली. लेकिन उनकी सरकार ने जो सिफारिश की उसमें वीरशैवों और लिंगायतों के बीच फर्क किया गया जो कि अब तक हमेशा से समानार्थक शब्दों के रूप से इस्तेमाल होता आया था. कांग्रेस के कई नेताओं को 2018 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. येदियुरप्पा के छोटे बेटे बी.वाइ. विजयेंद्र कहते हैं, ''कांग्रेस ने समुदाय के भीतर भ्रम पैदा करने की कोशिश की और वह विभाजन करके फायदा उठाना चाहती थी. अब कांग्रेस को गलतियों का एहसास हुआ है.''

भाजपा फूंक-फूंककर कदम रख रही है. अगस्त 2022 में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने येदियुरप्पा को दो शीर्ष पैनलों—भाजपा संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति में नियुक्त किया. पिता के निर्वाचन क्षेत्र शिकारीपुरा से चुनाव लड़ने की उम्मीद कर रहे और भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विजयेंद्र कहते हैं, ''येदियुरप्पाजी ने कई मौकों पर यह भी कहा है कि पार्टी ने उन्हें सब कुछ दिया है. वे प्रदेश पार्टी अध्यक्ष, डिप्टी सीएम और फिर सीएम थे. उनका सपना है कि भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ वापस आए.'' विजयेंद्र राज्य भर में होने वाले भाजपा के मोर्चा सम्मेलनों के प्रभारी हैं. लेकिन शिकारीपुरा सीट की बागडोर बेटे को सौंपना एक ऐसा विषय है, जिस पर—परिवारवाद के मुद्दे पर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों पर हमला करती आई—भाजपा ने अभी तक खुलकर बात नहीं की है. येदियुरप्पा के बड़े बेटे बी.वाइ. राघवेंद्र शिवमोगा से दो बार के सांसद हैं.

पर कर्नाटक में भाजपा के सत्ता में होने के बावजूद, लिंगायतों का वर्ग नाराज है. पिछले दो वर्षों से पंचमशाली आरक्षण बढ़ाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. विजयपुरा के विधायक बासनगौड़ा पाटील यतनाल सरीखे भाजपा नेताओं ने इसका समर्थन किया. बोम्मई सरकार भी दिसंबर में ओबीसी कोटा श्रेणियों में बदलाव के प्रस्ताव के साथ आई, लेकिन आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं हैं. पिछले दो महीने से बेंगलूरू में धरने पर बैठे पंचमशाली संत बसव जय मृत्युंजय स्वामी कहते हैं, ''इस बारे में कोई आदेश या अधिसूचना नहीं आई है. इसलिए, हमारे पास आंदोलन जारी रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.'' प्रेक्षकों का मानना है कि वीरशैव-लिंगायतों को लुभाने में उम्मीदवार का चयन अहम रहने वाला है. 2018 में कांग्रेस ने 43 लिंगायतों को उतारा जिनमें से 16 जीते, जबकि भाजपा ने 67 को टिकट दिया, जिनमें से 38 जीते. कर्नाटक की 224 सीटों में से इस समुदाय की कम से कम 154 सीटों पर उपस्थिति है. पर असल सवाल, जैसा कि भाजपा के एक नेता कहते हैं, ''येदियुरप्पा के बाद कौन? पार्टी को इसका जवाब देना होगा.'' दक्षिण में भाजपा की किस्मत इसी के जवाब पर टिकी होगी.

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