कोई उम्मीद लौटी है शायद

मंच के आजमाए पुराने खलीफाओं और नाटकों की आ रही नई फसल से आश्वस्त थिएटर के नागरिक लौटे सभागारों की ओर. कुछ बड़े नाम भी फिर से कर रहे स्टेज की ओर रुख.

भीतर महाभारत: रमनजीत कौर और वंश भारद्वाज की प्रस्तुति द डाइस ऑफ डिजायर का एक दृश्य
भीतर महाभारत: रमनजीत कौर और वंश भारद्वाज की प्रस्तुति द डाइस ऑफ डिजायर का एक दृश्य

यह द्रौपदी जिंदगी की दुश्वारियों का रोना नहीं रोती बल्कि अपनी कमनीयता और सेक्सुअलिटी पर बात करते हुए पांच पांडवों में बांट देने के लिए सास कुंती को कोसती है. उधर बेटे कर्ण के मारे जाने के बाद गांधारी के शिविर में पहुंचीं कुंती उनके कंधे पर सिर रखकर रोती हैं: ''दीदी, आज रात अपने शिविर में रुक जाने दीजिए. वहां तो जश्न का शोरशराबा चल रहा है.’’

मशहूर रंगकर्मी रमनजीत कौर इसके अलावा अंबा, अंबिका, अंबालिका और गंगा समेत महाभारत के कई स्त्री पात्रों की दैहिक चाहतों और सत्ता-शक्ति की आकांक्षाओं के तार पकड़कर अपनी प्रस्तुति द डाइस ऑफ डिजायर रचती हैं. रंगों-भंगिमाओं से रची गई लगभग एपिसोडिक प्रस्तुति में डेढ़ दर्जन अभिनेत्रियां सवा घंटे एक जादू-सा बिखेरती हैं. वे जैसे डिजॉल्व होकर अपने रूप-रस-गंध से स्टेज के एक-एक कण और कोशिका को स्पंदित कर देती हैं, उसे जैविक बना देती हैं.

टेक्स्ट से ज्यादा विजुअल इस कथावस्तु को कैरी करते हैं. तभी एक अभिनेत्री चलते दृश्य में पल भर के लिए किरदार से बाहर निकलती है और दिल्ली के एलटीजी सभागार में 300 से ज्यादा दर्शकों के बीच अगली कतार में बैठे फिल्म अभिनेता पंकज त्रिपाठी से हामी भरवाती है: ''ऐम आइ राइट मिस्टर त्रिपाठी?’’ वे बस मुस्कुरा देते हैं और कोलकाता के द क्रिएटिव आर्ट्स ग्रुप का यह नाटक पूरा देखते हैं.

तीन दिन पहले बगल के ही कमानी सभागार में समकालीन दिग्गज रंग निर्देशकों में से एक, मशहूर सीनोग्राफर सत्यव्रत राउत पौराणिक टेक्स्ट पर हैदराबाद विश्वविद्यालय के परफॉर्मिंग आर्ट्स के छात्रों के साथ इसी तरह का प्रयोग करते हुए कालिदास के शकुंतला में मूल कथा के अंत में सवाल खड़े कर रहे थे.

नटी के कहने पर शकुंतला मंच पर आकर पिता, उनके शिष्यों, माता, दुष्यंत और यहां तक कि सूत्रधार से भी उसके साथ किए गए हद दर्जे के मर्दाना बर्ताव पर सवालों की बौछार करती है. तालियों के साथ 400 से ज्यादा दर्शक उसके साथ हो लेते हैं. राउत आशंकित थे: ''आजकल किसी को भी ठक से ठेस लग जाती है. 'संस्कृत में लिखे हुए से खिलवाड़! नहीं चलेगा’ करके. लेकिन शकुंतला के मुंह से निकले सवाल दरअसल आज के दर्शकों की ही जिज्ञासाएं हैं.’’

दो-तीन साल तक जैसे एक बुरे ख्वाब से गुजरे थिएटर में शहर-शहर चल रहे फेस्टिवल्स के जरिए फिर से जान लौटती दिख रही है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सालाना जलसे भारत रंग महोत्सव (भारंगम) का 22वां संस्करण —दिल्ली में 14-23 फरवरी; बाकी नौ अन्य शहरों में—भी उसी को जाहिर करने का एक प्लेटफॉर्म बना. एकमात्र बेशक नहीं. इससे कुछ रुझान साफ तौर पर उभरते दिख रहे हैं. कोरोना और लॉकडाउन के एकांत में अरसे तक ओटीटी पर कंटेंट देखकर ऊबे दर्शक अब किस्से मंच पर फिर से आमने-सामने देखने को बेताब हैं.

पर देखें किसे? प्रतिक्रियाओं से लगता है कि सबसे पहले उन्होंने मंच के मंझे-आजमाए दिग्गज निर्देशकों पर भरोसा जताया है. मसलन रंजीत कपूर, संजय उपाध्याय, राज बिसारिया और राउत वगैरह. बिदेसिया नाटक और थिएटर म्युजिक में अपने बेमिसाल काम के लिए विख्यात उपाध्याय हिंदी के कालजयी कवि निराला पर अपनी प्रस्तुति नीलकंठ निराला (लेखक: रामेश्वर सिंह कश्यप) लंबे अरसे बाद लेकर निकले थे.

निराला के जीवन की कड़वी-मीठी गुत्थियां धीरे-धीरे खुलीं और दर्शक उसमें बिंधता गया. अपेक्षाकृत नए नाटककार इरशाद खान सिकंदर के लिखे नाटक जॉन एलिया का जिन्न के जरिए कपूर ने अपना मैजिकल टच दिखाया. श्रीराम सेंटर में हुए इस प्ले के लिए गेटक्रैश की सी हालत बन गई. बिसारिया के दो पात्रों के थ्रिलर राज (मूल लेखक: एंथनी शेफर) को देखने के लिए 400 से ज्यादा दर्शक सवा दो घंटे तक जमे रहे. इसे देखकर बांग्लाभाषी प्रदीप दास कहते हैं, ''कमाल का ग्रिपिंग प्ले था. सेट की इतनी बारीक डीटेलिंग...इसी को कहते हैं ओल्ड इज गोल्ड.’’

उत्तर भारत में वैसे नाट्य प्रस्तुतियों के लिए दर्शक जुटाना हमेशा से एक चुनौती रहा है. कई बार तो फ्री एंट्री के बावजूद 50-100 दर्शक तक नहीं पहुंचते. टिकट लेकर नाटक देखने-दिखाने का कल्चर तैयार करने पर बहसें चलती ही रही हैं. ऐसे में ऐप के जरिए टिकट लेकर बड़े पैमाने पर सभागारों की ओर लौट रहे दर्शक दूसरे रंगकर्मियों के लिए भी उम्मीद बंधाते हैं.

दर्शकों की ताजा वापसी की एक और वजह है मौजूं मेटाफर्स को लेकर लिखे गए नए नाटक और उनकी प्रस्तुतियां. भारंगम में खेले गए द डाइस ऑफ डिजायर, जॉन एलिया का जिन्न और अभिराम भड़कमकर के इसी दिन इसी वक्त वगैरह को छोड़ भी दें तो हाल के दिनों में कई नाटककार/रंगकर्मी ताजा टेक्स्ट के साथ सामने आए हैं. बिहार के घुमक्कड़ कवि-नाटककार रवींद्र भारती ने कोरोना काल में नट-पथरकट-कंकाली जैसी घुमंतू जातियों की नागरिकता के सवाल को लेकर हुलहुलिया लिखा.

पिछले साल पटना के रंगकर्मी विजेंदर टाक ने इसके शो करके चर्चा बटोरी. और इसी 10-12 फरवरी को लखनऊ के रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ ने इसे एनएसडी प्रथम वर्ष के छात्रों के साथ किया. हालांकि एनआरसी लेकर आई एनडीए सरकार की नाक के नीचे दिल्ली में होने की वजह से कोशिशें हुईं कि उसमें से नागरिकता रजिस्टर जैसी शब्दावली हटा दी जाए. इस पर कुलश्रेष्ठ स्पष्ट करते हैं, ''कुछ सुझाव आए थे जरूर, लेकिन यह कहने पर कि नाटक की जैसी विषयवस्तु है, उसे देखते हुए यह ठीक नहीं रहेगा, उसके बाद उसे जस का तस रखा गया.’’

मशहूर कथाकार-नाटककार असगर वजाहत भले उनके नाटक गांधी-गोडसे पर हाल में आई राजकुमार संतोषी की फिल्म की वजह से चर्चा में हों लेकिन दिसंबर 2022 में चर्चित रंगकर्मी एम.के. रैना के निर्देशन में श्रीराम सेंटर रंगमंडल की ओर से खेले गए उनके नाटक महाबली ने साहित्य और रंगमंच के हलकों में अच्छी हलचल मचाई. यह विनम्र भक्त कवि तुलसीदास को सम्राट अकबर के बरअक्स खड़ा करता है.

अंतिम दृश्य खासा असरकारी है जिसमें तुलसी से सीकरी आने को लेकर सवाल-जवाब कर हारे अकबर निरुपाय-निढाल बैठे हैं और उनके ठीक पीछे निडर खड़े तुलसी के चेहरे पर मंदस्मित मुस्कान है. इस नाटक की एक अंतर्कथा भी है. कोरोना से पहले संजय उपाध्याय ने अभिनेता राजेंद्र गुप्ता को लेकर पटना में इसे करने की पूरी तैयारी कर ली थी. वक्त बदला पाध्याय इस बीच संघ परिवार की सांस्कृतिक इकाई संस्कार भारती से जुड़ गए.

उसके बाद वजाहत ने इसे करने का अधिकार कॉमरेड रैना को सौंप दिया. बहरहाल नाटककार राजेश कुमार के कोरोना के दिनों की त्रासदी और बेबसी पर केंद्रित दो-पात्रीय नाटक निश्शब्द को 2022 का साहित्य कला परिषद (दिल्ली) का पहला पुरस्कार मिला और बीती जनवरी में उसे लोकेंद्र त्रिवेदी के निर्देशन में खेला गया. जबलपुर के रंगकर्मी आशीष पाठक के आत्मविस्तार बनाम भूविस्तार की जमीन पर बने नए नाटक भूमि ने पिछले दिसंबर में प्रथम प्रदर्शन के बाद से ही घूमना शुरू कर दिया है.

आंखों में गहरे ख्वाब लेकर मुंबई पहुंचते नौजवानों की जिंदगी के कुछ पन्ने उठाकर वहीं के लेखक-अभिनेता अमितोष नागपाल ने महानगर के जुगनू की शक्ल में एक ऐसा म्युजिकल लिखा-रचा है जो देश-दुनिया में घूम रहा है. अभिनेता कुमुद मिश्र और मानव कौल के साथ रंगमंच करते आए घनश्याम लालसा पिछले साल के उत्तरार्ध में अपना सोलो पटना का सुपरहीरो लेकर ऐसा निकले कि अब शहर-दर-शहर दर्शकों की पसंद बनते जा रहे हैं.

निहाल पाराशर की कथा पर तैयार इस प्ले में यह पटनहवा हीरो कार्ल मार्क्स और भगत सिंह के मिलवां अवतार पिंटू भैया की छाया में जीता और आगे बढ़ता है. इसके अलावा कवि-कथाकार संजय कुंदन का नया नाटक हंसमुख नवाब कोड़े मार-मारकर लोगों को हंसाता और जो भी हो रहा है, उसे अच्छा कहकर तालियां पीटने को मजबूर करता है. पटना इप्टा के अलावा इसे गुड़गांव के रंगकर्मी महेश वशिष्ठ भी खेल रहे हैं.

दरअसल, टेक्नोसैवी पीढ़ी वाले इस दौर में दर्शक नाट्य प्रस्तुतियों के दम-गूदे के बारे में पहले ही अच्छी तरह से पता कर लेते हैं. सो ऐसा भी नहीं कि सभी नाटकों के लिए दर्शक टूटे पड़ रहे हैं. भारंगम के पहले के संस्करणों में ऐसे मौके आए ही हैं कि किसी प्रस्तुति के अंत में उसके निर्देशक को पुष्पगुच्छ देने तक को एक अदद वरिष्ठ/गंभीर प्रेक्षक सभागार में न बचा हो.

खैर, दर्शकों के नजरिए से देखें तो कुछ और बेहतर सामने आने को है. एनएसडी रंगमंडल मार्च के अंत तक अंधा युग का मंचन करने जा रहा है. आजादी के बाद लिखे गए दस शीर्ष नाटकों में पहला स्थान रखने वाले, धर्मवीर भारती के इस नाटक को दिग्गज रंगकर्मी और एनएसडी के बेहतर दिनों में उसके निदेशक रहे रामगोपाल बजाज उसे निर्देशित कर रहे हैं. इसी प्लेटफॉर्म पर अप्रैल में वे सुरेंद्र वर्मा का मुगल पीरियड पर लिखा ड्रामा करेंगे, ऐसी संभावना है.

कभी शेक्सपियर के ओथेलो में अपने शीर्षक किरदार के लिए लंदन तक में जाने गए आदिल हुसैन ने अरसे बाद मंच पर उतरने के लिए सोलो प्ले की तैयारी शुरू कर दी है. वे बताते हैं, ''यह थोड़ा स्पिरिचुअल किस्म का सोलो होगा. मेरी एक नई जर्नी जैसा है.” अभिनेता पंकज त्रिपाठी भी इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहते हैं.

उन्हीं के शब्दों में, ''मेरे दिमाग में कुछ सब्जेक्ट हैं. नाटक जल्दी ही शुरू करना चाहता हूं.’’ फिल्म के चुके अभिनेताओं का मंच की ओर लौटने का चलन पुराना है लेकिन स्टेज से ही सिनेमा में गए हुसैन और त्रिपाठी करियर में शीर्ष पर रहते हुए यह फैसला कर रहे हैं. इसे जोड़कर देखें तो फौरी तौर ही सही, थिएटर के नए नागरिक गढ़ने के लिहाज से यह अच्छा संकेत है. 

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