जाति का नया सांचा
महाराष्ट्र की आबादी में ब्राह्मणों के महज करीब 3 फीसद होने का दावा किया जाता है, जबकि यह आंकड़ा काफी ज्यादा होगा

धवल कुलकर्णी
महाराष्ट्र के सियासी दलों और सामाजिक संगठनों ने बिहार में जाति जनगणना शुरू होने के बाद अपने राज्य में भी ऐसी ही कवायद करने की लंबे वक्त से चली आ रही मांग को फिर जिंदा कर लिया. फिलहाल केवल अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के बारे में आंकड़े हैं जो दशकीय जनगणना में इकट्ठा किए जाते हैं.
जाति जनगणना की मांग की अगुआई अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के नेता कर रहे हैं. महाराष्ट्र की राजनीति पर हालांकि मराठों का दबदबा है, पर तमाम धर्मों, वर्गों और जातियों में फैले ओबीसी को सबसे बड़ा सामाजिक धड़ा माना जाता है जो आबादी के करीब 53 फीसद हैं. इनमें से 43.70 फीसद हिंदू और 8.40 फीसद गैर-हिंदू हैं. कुछ अनुमान उनकी आबादी इससे कम आंकते हैं, पर देश में इसकी कोई वैज्ञानिक गिनती नहीं है, क्योंकि आखिरी जाति-आधारित जनगणना 1931 में हुई थी.
अन्य पिछड़ी जातियां महाराष्ट्र में करीब 353 हिंदू और गैर-हिंदू तबकों में बंटी हैं, जिनमें ओबीसी (19 फीसद कोटा), विमुक्त जाति और घुमंतू जनजातियां या वीएजेऐंडएनटी (11 फीसद कोटा) और विशेष पिछड़े (2 फीसद) हैं. मगर यही विविधता एक ऐसी ज्यादा बड़ी और अखिल-ओबीसी एकता में अड़चन बन जाती है जो राजनीति पर मराठों के दबदबे को चुनौती दे सके.
शुरुआत पूर्व मंत्री और एनसीपी के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल ने की, जब उन्होंने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को पत्र लिखकर बिहार की तर्ज पर राज्य में ओबीसी की गिनती के लिए जाति जनगणना करवाने की मांग की. पिछड़े माली समुदाय से आने वाले भुजबल ने कहा कि ओबीसी और अधिसूचित तथा घुमंतू समुदायों के बारे में वैज्ञानिक आंकड़ों के मौजूद न होने की वजह से इन तबकों को विकास के कार्यक्रम और पर्याप्त बजटीय सहायता नहीं मिल सकी.
पूर्व उपमुख्यमंत्री और एनसीपी के नेता अजित पवार, महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नाना पटोले और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के पड़पोते तथा वंचित बहुजन अघाड़ी के प्रमुख प्रकाश आंबेडकर ने भी जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया.
लेखक और ओबीसी एक्टीविस्ट प्रो. हरी नरके कहते हैं, ''यह ऐसी मांग है जिसकी जड़ें विकास और अर्थशास्त्र के इर्द-गिर्द केंद्रित मुद्दों में हैं.'' इन वर्गों के बारे में वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद होने पर एससी और एसटी की तरह ओबीसी को भी आबादी-आधारित बजट दिया जा सकेगा और उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा सकेंगी. जाति जनगणना से ओबीसी के लिए कोटे की मौजूदा सीमा को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी. जाति जनगणना से बहुत छोटे ओबीसी या अधिसूचित जनजातियों सरीखे छोटे समुदायों के आंकड़ों और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भी खुलासा होगा.
यही नहीं, ब्राह्मण समुदाय के कुछ धड़ों ने भी जाति जनगणना की मांग का समर्थन किया है. बहुभाषिक ब्राह्मण अधिवेशन के अध्यक्ष मोरेश्वर घैसास 'गुरुजी' कहते हैं कि महाराष्ट्र की आबादी में ब्राह्मणों के महज करीब 3 फीसद होने का दावा किया जाता है, जबकि यह आंकड़ा काफी ज्यादा होगा. वे जोर देकर कहते हैं कि तमाम उपजातियों के ब्राह्मणों को खुद को केवल 'ब्राह्मण' के रूप में दर्ज करवाना चाहिए ताकि समुदाय की अहमियत सामने आ सके.
साल-दर-साल
स्वतंत्र भारत में, जनगणना में केवल एससी और एसटी समुदाय के बारे में डेटा एकत्र किया गया. वैसे, काकासाहेब कालेलकर (1955) और बी.पी. मंडल (1980) आयोग ने पिछड़े वर्ग समूहों की जनगणना की सिफारिश की थी.
एमवीए शासन के दौरान, विधानसभा ने जाति आधारित जनगणना की मांग करने वाले प्रस्ताव (8 जनवरी, 2020) को सर्वसम्मति से मंजूरी दी. हालांकि, केंद्र ने 2021 की बहु-विलंबित जनगणना में एससी और एसटी के अलावा बाकी की जातिवार आबादी गणना करने से इनकार कर दिया.
अनुमान के अनुसार, महाराष्ट्र की आबादी का करीब 53 फीसद ओबीसी हैं.
दावा है कि मराठा-कुनबी राज्य की आबादी का एक तिहाई और इस तरह सबसे बड़ा जाति समूह है. उन्हें ओबीसी के रूप में मान्यता प्राप्त है.