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पंजाब में ईसाई धर्म कोई अजनबी नहीं है. यूरोपीय मिशनरियां यहां 19वीं सदी के मध्य में उतर आई थीं और 1849 में अंग्रेज-सिख युद्ध के खत्म होने के पहले ही धर्मांतरण का आगाज कर चुकी थीं.

10 फरवरी, 1999
10 फरवरी, 1999

अरुण पुरी

पंजाब अपने व्यंजनों, संगीत, नृत्य, जोशोखरोश वाले लोगों, हरित क्रांति, और सबसे बढ़कर सिख धर्म का केंद्र होने के लिए मशहूर है. हालांकि, इधर एक और परिघटना धार्मिक हलकों में हलचल पैदा कर रही है. वह है पेंटेकोस्टलवाद का उदय. यह करिश्माई आंदोलन दुनिया भर में ईसाई धर्म की सबसे तेजी से बढ़ती शाखा है और इन दिनों पंजाब के कस्बों और गांवों में ऐसे सैलाब की तरह फैल रहा है कि हर कोई बैठा बस देख रहा है. 

इस सैलाब की वजह कुछ मुट्ठी भर पादरी हैं. 'एपोस्टल’ या प्रचारक अंकुर योसेफ नरूला उनमें सबसे चर्चित हैं. हिंदू खत्री परिवार में जन्मे, जालंधर में फ्लोर टाइल और मार्बल के कारोबार से जुड़े नरूला 2008 में ईसाई धर्म में दीक्षित हुए और अपनी मिनिस्ट्री सिर्फ तीन लोगों के साथ शुरू की. उनके चर्च ऑफ साइन्स ऐंड वंडर्स का दावा है कि आज दुनिया भर में उसके 3,00,000 अनुयायी हैं.

जालंधर के खंब्रा गांव में 65 एकड़ में फैले मुख्य चर्च के अलावा 'अंकुर नरूला मिनिस्ट्री’ की शाखाएं अमेरिका, कनाडा, जर्मनी के साथ एक ग्रेटर लंदन के हैरो में और दूसरी बर्मिंघम में है, जिसका अक्तूबर में ही उद्घारटन हुआ है. उनके जैसे करीब दर्जन भर और हैं, जो डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पुलिसवाले, अफसरशाह, कारोबारी और जमींदर समाज के हर तबके से आते हैं और उपदेश के लिए या तो अपना पेशा छोड़ चुके हैं या हर रविवार को वह भूमिका भी निभाते हैं.

सबके पास ढेर सारे अनुयायी, पंजाब में कई सेंटर, यूट्यूब पर ढेरों फॉलोअर हैं और सबसे बढ़कर, सभी चमत्कारी शक्तियों और आस्था उपचार की चमत्कारी उपलब्धियों का दावा करते हैं. वे भूत उतारने से लेकर कैंसर, जोड़ों में दर्द और बांझपन का इलाज करने, नशे से निजात दिलाने, शादी कराने और वीजा दिलाने में मददगार होने जैसे हर मर्ज के इलाज दावा करते हैं. 

इस जमात के दूसरे छोर पर हैं गांवों के पादरी. इनकी पांत में आपको पुलिस के एएसआइ, छोटे-मोटे कपड़ा व्यापारी, छोटे-मोटे दर्जी, खेत मजदूर अक्सर अपने घरों के एक हिस्से में संडे सरमन (प्रवचन) आयोजित करते मिलते हैं. वे अनुयायियों के साथ अधिक परिचित तौर-तरीकों से पेश आते हैं. वे अपने ईसाई प्रचार में खुलकर पंजाबी संस्कृति के प्रतीकों—पगड़ी, लंगर, टप्पा, गिद्दा का प्रयोग करते हैं.

मैनेजिंग एडिटर सुनील मेनन, डिप्टी एडिटर अनिलेश एस. महाजन और ग्रुप फोटो एडिटर बंदीप सिंह ने पाया कि उनके सत्संग पंजाब के किसी भी प्रचलित धर्म—सिख, हिंदू या सूफी संप्रदाय के धार्मिक आयोजनों जैसे ही एहसास दिलाते हैं. उनके ज्यादातर अनुयायी सबसे शोषित-पीड़ित दलित/आदिवासी समुदाय से आते हैं, जो पंजाब की फलती-फूलती समृद्धि और उसके एलीट नियंत्रण वाली संस्थाओं से अलग-थलग हैं.

ये तबके ही छोटे-बड़े डेरों की ओर जाते हैं, जो उन्हें मुख्यधारा की सामाजिक रूढ़ियों से अलग कुछ जगह मुहैया कराते हैं. लेकिन घोटालों और विवादों की वजह से कुछ डेरों की चमक फीकी पड़ी तो पंजाब की वंचित-पीड़ित जातियों को करिश्माई ईसाइयत में सदियों की जलालत और शोषण से मुक्ति की नई राह दिखी है. 

उनकी भारी संख्या से मुख्यधारा की संस्थाओं से बेचैनी बढ़ रही है. ठोस आंकड़े नहीं हैं, लेकिन एक आकलन के मुताबिक, पादरियों की संख्या 65,000 जितनी भारी है, जो पंजाब के सभी 23 जिलों में फैले हैं, मगर वे सबसे बड़ी संख्या में माझा और दोआब के इलाके और मालवा में फिरोजपुर और फाजिल्का के सीमावर्ती क्षेत्रों में हैं. जहां तक अनुयायियों की बात है तो 2011 की जनगणना के मुताबिक, राज्य की कुल आबादी में ईसाइयों की संख्या सिर्फ 1.26 फीसद यानी 3,48,230 है.

अब इसे नरूला के 3,00,000 अनुयायियों के दावे से मिलाकर देखिए, जो ज्यादातर पंजाब में ही हैं, तो आप समझ पाएंगे कि क्यों धर्मांतरण के खिलाफ पुराना हौवा फिर स्वर उठा रहा है. सिख धर्म अपने मूल मूल्यों में उदार और समता पर जोर देता है, लेकिन पिछली सदी में ताकतवर जट सिख समुदाय के वर्चस्व की वजह से सौहार्द्र और प्रतिशोध के द्वंद्व में फंस गया है. हिंदू दक्षिणपंथी धारा के लिए धर्मांतरण का मुद्दा उसके अफसाने में सही ठहरता है. यहां तक कि कैथोलिक चर्च भी पेंटेकोस्टल आंदोलन की ओर लोगों के भारी झुकाव से चकित है. 

पंजाब में ईसाई धर्म कोई अजनबी नहीं है. यूरोपीय मिशनरियां यहां 19वीं सदी के मध्य में उतर आई थीं और 1849 में अंग्रेज-सिख युद्ध के खत्म होने के पहले ही धर्मांतरण का आगाज कर चुकी थीं. उसके बाद से कैथोलिक चर्च के साथ-साथ प्रेस्बाइटेरियन, मेथडिस्ट और एंग्लिकन जैसे प्रोटेस्टैंट मुख्यधारा के समुदायों की मौजूदगी यहां रही है. लेकिन असली उछाल 1873 के बाद तकरीबन अगली आधी सदी में आया, जब पंजाब की सबसे उपेक्षित-कलंकित जाति समूहों ने खुद को बपतिस्मा के जरिए मुक्त करना चाहा.

तब संख्या पांच लाख तक बढ़ गई थी. बंटवारे के बाद भारत के हिस्से में उसके आधे से कम लोग रह गए. हालात पिछले दशक में दूसरी लहर आने तक स्थिर रहे, जब पादरियों और उनके अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखा गया. जाति अभी भी मुख्य वजह है. इसी वजह से दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी द्वारा माझा में सिख परिवारों के ''धर्मांतरण’’ को रोकने के लिए नियुक्त किए गए एक्टिविस्ट मंजीत सिंह भोमा कबूल करते हैं, ''अगर ये ईसाई समूह अपने बच्चों को शिक्षा, किताबें या स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराते हैं तो एसजीपीसी को सोचने की जरूरत है कि उसमें बुरा क्या है.’’

पंजाब ऐसे धर्मांतरण विरोधी कानूनों से दूर रहा है, जो कुछ राज्यों में पारित किए गए हैं. फिर भी बड़े पैमाने पर ईसाइयत में धर्मांतरण से सभी तरफ नाराजगी है. आनंदपुर साहिब में 5 सितंबर को अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने कहा कि सिख समुदाय को धर्मांतरण पर अपने रुख पर नए सिरे से विचार करना चाहिए. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने 'जवाबी’ पहल के तौर पर घर-घर अंदर धर्मसाल जैसी मुहिम शुरू की है, जिसके तहत वॉलंटियर सिख धर्म का प्रचार करने के लिए दरवाजे-दरवाजे जाते हैं.

हालात गरम हो चुके हैं और कट्टर सिख गुट इवेंजेलिस्टिों को धमकाने लगे हैं. 29 अगस्त को निहंगों की एक टोली ने अमृतसर के ददौना गांव में एक पेंटेकॉस्टल आयोजन में 'जबरन धर्मांतरण’ का आरोप लगाकर हंगामा किया. दो दिन बाद तरन तारन जिले के गांव ठक्करपुरा में नकाबपोश घुसपैठियों ने कैथोलिक चर्च में तोड़फोड़ की और पादरी की कार जला दी.

ईसाई एक्टिविस्टों ने 18 अक्तूबर को विरोध प्रदर्शन किया. पंजाब देश के खूनी बंटवारे का सबसे ज्यादा पीड़ित रहा है और उसने उग्रवाद का अंधेरा दौर देखा है. दोनों ही धर्म के नाम पर हुए. भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, उपासना की आजादी संविधान में निहित है. शायद सबसे अच्छा तरीका सामाजिक-आर्थिक हालात सुधारना ही है, जिससे मजबूर होकर लोग अपनी आस्था बदलते हैं. मुनासिब यही है कि हर कोई सावधानी और नरमदिली दिखाए. 

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