उत्तराखंडः पहाड़ पर नया आंदोलन!

राज्य में आगामी विधानसभा चुनावों में महज कुछ ही महीने बाकी हैं और यहां स्थानीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए सशक्त भूमि-कानून की मांग जोर पकड़ रही है

आक्रोश भूमि कानून को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का पुतला फूंकते यूकेडी के कार्यकर्ता
आक्रोश भूमि कानून को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का पुतला फूंकते यूकेडी के कार्यकर्ता

''आज हिमालै तुमन कै धत्यू छौ,
जागो-जागो हो प्यारा लाल,
नी करण दीयो हमारी निलामी,
नी करण दियो हमारो हलाल..
ढुंग बेचो-माट बेचो, बेची खै बज़्याणी,
लीस खोपी-खोपी मेरी उधेड़ी दी खाल
न्योली-चांचरी-झवाव्ड़ा-छपेली बेचा प्यारा,
अर बेची अराडू पाणी ठंडो-ठंडी बयार''

ये पंक्तियां पहाड़ के जल, जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए उत्तराखंड की सांस्कृतिक चेतना के अग्रणी रहे जनकवि गिरिश तिवारी यानी 'गिरदा' की हैं. गिरदा के क्रांतिकारी गीतों ने चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा विरोधी आंदोलन, अलग राज्य के उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन को बुलंद आवाज दी. गिरदा तो नहीं रहे लेकिन उनका ये गीत मौजूदा वक्त में उत्तराखंडियों के अंतर्मन में नए आंदोलन का बिगूल फूंक रहा है. गीत का हिंदी भावार्थ है—''आज हिमालय जगा रहा है तुमको, जागो-जागो मेरे लाल, मत होने दो मेरी नीलामी, मत होने दो मुझे हलाल. पत्थर बेचा-मिट्टी बेची, बेचे जंगल हरे बांज के और लीसा गडान के घावों से उतार दी मेरी खाल. संगीत-गीत सब बेच दिए, मेरे इन सुमधुर कंठों का सुर बेच दिया. बेच दिया, ठंडा पानी-ठंडी बयार.''

दरअसल, जल, जंगल और जमीन उत्तराखंड वासियों के लिए ना सिर्फ अधिकार और क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा है बल्कि प्रकृति के साथ आत्मीयता की भी बात है. यही वजह है कि आगामी चुनाव से पहले भावनाओं का ज्वालामुखी प्रदेश की सामाजिक-राजनैतिक चेतना में फूट पड़ा है. आश्चर्य इस बात का है कि भावनाओं का ये उबाल 6 अक्तूबर, 2018 को नहीं आया, जब अध्यादेश लाकर त्रिवेंद्र सिंह सरकार ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक पारित करवा लिया. निवेश के नाम पर कानून के सख्त प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया. कानून में धारा 143(क) और धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी गई.

ऐसे में सवाल है कि कानून में बदलाव के ढ़ाई साल बाद मामले के तूल पकड़ने की वजह क्या है? दरअसल, 25 जून, 2021 को उत्तराखंड के संस्कृति और पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज के ट्विटर हैंडल से एक तस्वीर पोस्ट हुई, जिसमें अभिनेता मनोज वाजपेयी के अल्मोड़ा में जमीन खरीदने की जानकारी दी गई. इस तस्वीर के सामने आने के बाद सोशल मीडिया पर उत्तराखंड को बाहरियों से बचाने के लिए मुहिम चल पड़ी. सोशल मीडिया पर 'उत्तराखंड मांगे भू-कानून' ट्रेंड करने लगा. और इसी नारे के साथ युवाओं का आक्रोश अब इस मुद्दे के चुनावी रंग में ढलने के संकेत देने लगा है.

लेकिन सवाल केवल वाजपेयी के जमीन खरीदने का नहीं है. उन्होंने जमीन का छोटा टुकड़ा खरीदा है और वह भी व्यक्तिगत आवश्यकता के हिसाब से. वाजपेयी कहते हैं, ''मैं और मेरा परिवार योग और ध्यान में विश्वास करने वाले लोग हैं. पिछले लॉकडाउन में मेरा उत्तराखंड रहना हुआ था. हमें ख्याल आया कि हम यहां ध्यान, आर्ट ऐंड कल्चर पर वर्कशॉप कर सकते हैं. अल्मोड़ा के लोगों को शामिल कर सकते हैं. मुझे दुख इस बात का है कि 50 वर्षों से लोग वहां बड़े-बड़े निवेश कर रहे हैं तो किसी को परेशानी नहीं हुई लेकिन मैंने ध्यान और आध्यात्म के लिए एक जगह चुनी, जिसके पीछे कोई व्यवसायिक मकसद नहीं है तो भी मुझे विवाद में घसीट दिया गया.

अगर स्थानीय लोगों को नहीं भा रहा तो मैं जमीन वापस बेच दूंगा'' इस मामले के नए सिरे से खड़े होने के पीछे वाजपेयी एक सॉफ्ट टारगेट हो सकते हैं, लेकिन जो बड़ा सवाल वह भी उठा रहे हैं, वह राज्य में लचीले कानून की वजह से कौड़ियों के दाम खरीदी गई पर्वतीय जमीन, व्यावसायिक हित, राज्य के सामाजिक ताने-बाने पर उसके असर, पलायन और हिमालय के संरक्षण से जुड़ा है.

उत्तराखंड राज्य गठन के वक्त 7,76,191 हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध थी. जो अप्रैल 2011 में घटकर 7,23,164 हेक्टेयर रह गई. इन वर्षों में 53,027 हेक्टेयर कृषि भूमि कम हो गई. औसतन 4,500 हेक्टेयर प्रतिवर्ष की गति से खेती योग्य जमीन कम हुई है. अगस्त 2018 में उत्तराखंड हाइकोर्ट के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा और मनोज तिवारी की बेंच ने 2,26,950 किसानों द्वारा पर्वतीय क्षेत्र से पलायन करने पर चिंता भी जताई थी. वर्तमान में केवल 20 प्रतिशत भूमि ही कृषि योग्य बची है, 80 प्रतिशत अप्रयुक्त है या फिर वह बेची जा चुकी है. इस 20 प्रतिशत कृषि भूमि में से भी केवल 12 प्रतिशत ही सिंचित है और 8 प्रतिशत वर्षा आधारित है.

कागजों में आज जो आंकड़े दिखते हैं, वे पहाड़ियों के जीवन का शोक हैं. कुंटलों के हिसाब से अनाज और खाद्यान्न पैदा करने वाला पहाड़ी किसान, आज अपना पेट भरने के लिए मोहताज है. महज 10 से 20 किलों गेंहू और चावल लेने के लिए सस्ते गल्ले की दुकान पर लगी लंबी लाइन में अपनी बारी का इंतजार करता है. राज्य के मसूरी, चंबा, धनौल्टी जैसे इलाके जो राज्य के 'रूट बेल्ट' हैं, वहां बीते तीस वर्षों में इन्वेस्टर्स, बिल्डर्स, ब्यूरोक्रेट्स, धनाढ्यों ने औने-पौने दामों पर स्थानीयों से जमीन खरीदी. आज जमीन बेचने वाले स्थानीय लोग बाहर से आए संपन्न लोगों के बंगलों, कोठियों, होटल और फार्महाउस में चौकीदारी, बैरा, खानसामे और केयरटेकर आदि का काम करते हैं. कल तक जो मालिक थे, आज वे नौकर हैं.

दूसरी ओर, विकास की सीढ़ियों पर बढ़ते हुए पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश ने हॉर्टीकल्चर में जबरदस्त प्रगति की. सेब, खुमानी, अखरोट, बादाम जैसी नगदी फसलों के उत्पादन से हिमाचलियों को फायदा हुआ. लेकिन प्राकृतिक संसाधन एक जैसे होने के बावजूद भी उत्तराखंड में इसके उलट राज्य की फल-पट्टियां पिकनिक स्पॉट्स की भेंट चढ़ गईं. पहाड़ी राज्य-सिक्किम में भी भूमि की बेरोकटोक बिक्री पर रोक के लिए सिक्किम रेग्युलेशन ऑफ ट्रान्सफर ऑफ लैंड (एमेंडमेंट) ऐक्ट 2018 की धारा 3(क) जैसे प्रावधान हैं.

वहीं मेघालय में मेघालय ट्रान्सफर ऑफ लैंड (रेगुलेशन) ऐक्ट 1971 कहता है कि कोई भी जमीन किसी आदिवासी की ओर से गैर-आदिवासी को या गैर-आदिवासी की ओर से अन्य गैर-आदिवासी को सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बिना हस्तांतरित नहीं की जा सकती. जाहिर है, इन राज्यों में स्थानीय लोगों के हितों का ख्याल रखा गया है. दूसरी ओर, उत्तराखंड में बाहरियों के लिए कानून में जबर्दस्त ढील दे दी गई. इसलिए उत्तराखंड के भूमिहीन हुए लोग हिमाचल और नॉर्थ ईस्ट की तर्ज पर भू-कानून की मांग कर रहे हैं.

राजनैतिक दलों को आगामी चुनावों के लिए इस मुद्दे में भविष्य दिख रहा है. उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) के अध्यक्ष दिवाकर भट्ट कहते हैं, ''राज्य के अंदर ऊंची-ऊंची पहाड़ियां तक बिक गई हैं. हम नहीं चाहते कि खून-खराबा हो. जैसे पहले राज्य बनाने के लिए लड़े थे वैसे ही अब राज्य बचाने के लिए हम लड़ेंगे.'' पहली बार राज्य में चुनाव में उतर रही आम आदमी पार्टी (आप) सशक्त भू-कानून का पुरजोर समर्थन कर रही है. उसके नेता कर्नल कोठियाल कहते हैं, ''राज्य बनने के बाद उत्तराखंड को सशक्त भूमि कानून न होने की महंगी कीमत चुकानी पड़ी.'' भूमि कानून में पहाड़ और तराई जिलों की परिस्थितियों के अनुसार विशेष प्रावधान होने चाहिए. अगर हिमाचल प्रदेश में मजबूत भूमि कानून लागू हो सकता है तो उत्तराखंड में क्यों नहीं?

वहीं, देहरादून के धर्मपुर से विधायक और पूर्व में देहरादून के मेयर रहे विनोद चमोली भूमि कानून पर छिड़ी बहस को यूकेडी और आप का पॉलिटिकल कैंपेन मानते हैं. ''बुनियादी रूप से जब राज्य बना था अगर तब कुछ कड़े निर्णय ले लिए गए होते तो उन्हें लागू करना आसान होता. लेकिन अब प्रदेश बहुत आगे निकल चुका है. उत्तराखंड में मात्र पहाड़ नहीं हैं, तराई क्षेत्र भी है. इसलिए भूमि कानून लाने से विकास की गति भी रुकेगी.''

प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी इस मुद्दे पर मुखर दिख रही है. पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत इस मामले पर कहते हैं कि सरकार के लिए जमीन का बंदोबस्त पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. जाहिर है, राज्य में आगामी चुनावों से ऐन पहले सशक्त भूमि कानून की मांग और जोर पकड़ सकती है.

विकास बनाम विनाश की बहस के बीच तो उत्तराखंड झूलता ही रहा है, लेकिन सत्ता ने बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए कैसे कमजोर और भ्रष्ट लैंड मैनेजमेंट सिस्टम बनाया गया, टिहरी गढ़वाल के सिंगताली गांव का लैंड ट्रांसफर उसका बड़ा उदाहरण है. संयुक्त उत्तर प्रदेश में गढ़वाल के आयुक्त रह चुके रिटायर आइएएस अधिकारी सुरेंद्र सिंह पांगती के मुताबिक, सिंगताली गांव में तीन खाताधारकों से बिजनेसमैन मिस्टर सावरा ने जमीन खरीदी. 1 मार्च, 2006 को 11,383 वर्ग मीटर कृषि भूमि इन ग्रामीणों से खरीदी गई जबकि कानून सिर्फ 500 वर्ग मीटर खरीदने की ही अनुमति देता है. सावरा का पता देहरादून का दिया गया जबकि असल में वह दिल्ली का निवासी था. किस अधिकारी के अधिकार से ये ट्रांसफर हुआ वह कॉलम सरकारी कागजों में खाली छोड़ दिया गया.

साल 2015 में हरीश रावत सरकार के समय नैनीसार (अल्मोड़ा) में जिंदल ग्रुप जमीन पर कब्जा करने के आरोप में घिर गया. ग्रामीणों ने जमीन आवंटन और ट्रांसफर की प्रक्रिया से लेकर उनकी सहमति लिए जाने को लेकर नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाया. भूमि विवाद की गूंज विधानसभा से लेकर कोर्ट तक पहुंची.

पिछले महीने ही हाइकोर्ट ने उत्तराखंड सरकार को जौनसार-बावर क्षेत्र में आदिवासियों की शिकायत पर जवाब देने को कहा है, जिसमें प्राइवेट पार्टियां तानाशाही तरीके से उन्हें लैंड डील करने को मजबूर कर रही थीं.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य और उसके संसाधनों का शोषण हुआ है. पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं, ''हम विकास विरोधी नहीं हैं. यहां सबका स्वागत है. पर उत्तराखंड इस तरह से टूटता-बिखरता चला जाएगा तो देश की हवा, मिट्टी, पानी, जंगल, नदियों के सवाल खड़े हो जाएंगे, हो ही गए हैं.''

सख्त भूमि कानून की मांग को लेकर बीते कई वर्षों से अभियान चला रहे सागर रावत कहते हैं, ''यह उत्तराखंड के जल-जंगल-जमीन, संस्कृति, रोटी-बेटी और हक-हकूक की लड़ाई है, जिसे हर हाल में लड़ा जाएगा.''

वहीं, उत्तराखंड आंदोलन के नेता रहे रविंद्र जुगरान कहते हैं, ''हमारी कोशिश है सभी राजनैतिक दल भूमि कानून के मुद्दे को अपने इलेक्शन मैनिफेस्टो में शामिल करें. जो जमीन पिछले 30 वर्षों में खरीदी गई हैं, उन्हें किसने खरीदी, कितने में खरीदी, किस उद्देश्य से खरीदी, कितने स्थानीय लोगों को उससे रोजगार मिला, जमीन पर निवेश किया पैसे का स्रोत क्या है, इसकी जांच हो. अगर खामियां पाई जाएं तो जरूरत पड़ने पर राज्य सरकार उस जमीन का अधिग्रहण करे.''

डेमोग्राफिक बदलाव का खतरा

दरअसल, खाली होते गांव, कम होते रोजगार और पलायन के बाद उत्तराखंड में लगातार बाहरी लोगों का आगमन चरम पर होने से यहां डेमोग्राफिक बदलाव का खतरा पैदा हो गया है. आरोप है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार में हुए संशोधन के कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जाने लगी हैं. जानकारों के मुताबिक, उत्तराखंड में कृषि भूमि का रकबा अब केवल 9 प्रतिशत के आसपास रह गया है. इसके बावजूद पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि भूमि की निर्बाद्ध बिक्री का कानून सरकार ने 2018 में पास कर दिया था.

उत्तराखंड में जमीन की खरीद-फरोख्त के कानून को बदलने के लिए सरकार की उतावली में ही उसकी मंशा छिपी हुई थी. राज्य की भाजपा सरकार ने पूंजी निवेश के लिए पुराने भूमि-कानून में संशोधन को जरूरी बताया था. माना गया कि 2018 में आयोजित इन्वेस्टर्स मीट के लिए ही वह भूमि कानून में बदलाव का अध्यादेश और फिर विधानसभा में विधेयक ले आई. इन्वेस्टर्स मीट में 1,20,000 करोड़ रु. के निवेश के लिए एमओयू पर दस्तखत होने की बात कही गई थी. लेकिन कानून बन जाने के बाद भी निवेश बढ़े नहीं.

उस समय केवल कांग्रेस विधायक मनोज रावत ने सदन में इसके खिलाफ बोला था. रावत कहते हैं, ''हमें नौकर बनाने के लिए यह सरकार का षड्यंत्र था. मेरी विधानसभा केदारनाथ के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अज्ञात लोगों की ओर से तेजी से जमीन खरीदी जा रही है. केवल भूमि कानून की भी बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केदारनाथ में तीन दौरों के बाद भी उन तीर्थ-पुरोहितों को वे जमीनें ट्रांसफर नहीं हुईं हैं जो सरकार ने आपदा के बाद उन्हें देने का वादा किया था.''

विपक्ष पूछ रहा है कि जमीन की खुली बिक्री के लिए कानून बना कर सरकार किसका हित साधना चाहती है? जमीन के चंद सौदागरों के धंधे को जारी रखने के लिए तो कहीं ऐसा नहीं किया जा रहा?  

भूमि कानून लचीले किए जाने से एक बड़ा सामरिक संकट उत्तराखंड-नेपाल-चीन के करीब 625 किमी के बॉर्डर पर दस्तक देने लगा है. 2011 की जनगणना के बाद से अब तक चीन सीमा से पांच किमी के दायरे में मौजूद चार और नेपाल से लगते 10 गांव पूरी तरह खाली हो गए हैं. यानी इनसानी बस्तियों के अभाव में सेकंड लाइन ऑफ डिफेंस का फायदा सेना को न मिलना.

इसलिए भूमि कानून आज सिर्फ उत्तराखंड का सवाल नहीं बल्कि पूरे देश का सवाल है.

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