पश्चिम बंगालः हर मोर्चे पर चौकस नजर
ममता बनर्जी को स्पष्ट बहुमत मिलने की उम्मीद, मगर जरूरत पडऩे पर राज्य में चुनाव बाद समीकरण और केंद्र में मोदी को चुनौती देने का दरवाजा भी खोला.

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में पूर्वी मिदनापुर, पश्चिम मिदनापुर, झाडग़्राम, पुरुलिया और दक्षिण 24 परगना की 60 सीटों के लिए 1 अप्रैल को मतदान के पहले दो चरणों के बाद भाजपा ने 50 सीटों तक की जीत का दावा किया. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की मुखिया ममता बनर्जी ने किसी तरह का अनुमान लगाने से परहेज किया, या नंदीग्राम में बस जीत का संकेत ही दिखाया, जहां वे ऐन चुनावों के पहले भाजपा में चले गए शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ लड़ रही हैं.
संभव है, भाजपा का दावा अगले चरणों की फिजा तैयार करने, अपने काडर का मनोबल बढ़ाने और टीएमसी का उत्साह घटाने के सियासी ‘माइंड गेम’ का हिस्सा हो. इसके बरक्स ममता एक दूसरा ‘माइंड गेम’ खेल चुकी थीं. 27 मार्च को पहले चरण के मतदान के बाद 28 मार्च को ममता ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी समेत 14 पार्टियों के प्रमुख नेताओं को भाजपा के 'तानाशाही राज’ के खिलाफ एकजुट होने की अपील की.
इसे भाजपा के नेता उनकी कमजोरी का इजहार मानते हैं. बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष तंज करते हैं, ‘‘दीदी को हार साफ दिख रही है. वे न तो सरकार में रहेंगी, न ही विधायक रहेंगी. ऐसे में राजनीति जारी रखने के लिए उन्हें बंगाल से बाहर जाना ही होगा.’’ लेकिन यह तो तय दिखता है कि ममता अपने पत्ते काफी करीने से खेल रही हैं.
राजनीतिक टीकाकार जयंत घोषाल कहते हैं, ‘‘ममता ने अपने काडर को संदेश देने की कोशिश की कि मोदी के खिलाफ वे राष्ट्रीय स्तर पर लडऩे का फैसला कर चुकी हैं और विपक्ष की एकमात्र नेता के रूप में डटने जा रही हैं. इसके जरिए ममता ने यह बताना चाहा कि बंगाल का चुनाव जीतना जरूरी है क्योंकि यही जीत बंगाल की बेटी को 2024 से पहले मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेता बना सकती है.’’
इस ‘माइंड गेम’ का अगला अध्याय और भी दिलचस्प है. 1 अप्रैल को नंदीग्राम में वोटिंग के बाद 2 अप्रैल को उलबेडिय़ा की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ''चर्चा है कि ममता दीदी दूसरी सीट से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही हैं.’’ ममता ने इसे भी भुनाने में देर नहीं की. टीएमसी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया, ‘‘दीदी नंदीग्राम से जीत रही हैं इसलिए दूसरी सीट से लडऩे का सवाल ही नहीं है.’
फिर, अगला ट्वीट था, '2024 में आसान सीट तलाशिए क्योंकि बनारस में चुनौती मिलने वाली है.’’ अगले दिन, एक रैली में ममता ने यह कहकर संदेश कुछ साफ कर दिया कि ''मैं रॉयल बंगाल टाइगर हूं. चोटिल होने के बावजूद एक पैर से मैं बंगाल जीतूंगी और दो पैर से दिल्ली.’’
उधर, चुनावी मैदान में भी ममता और टीएमसी कोई मोर्चा खाली नहीं छोड़ रही हैं. अगले चार दौर, खासकर दक्षिण बंगाल की 163 सीटों के मतदान के पहले ममता ने भाजपा के खिलाफ खुली जंग छेड़ दी है, जहां टीएमसी ने 2016 के विधानसभा चुनावों में 122 सीटें जीती थीं. अब वे महिलाओं से कड़छी-बेलन लेकर ‘‘भाजपा के गुंडों’’ का सामना करने का आह्वान कर रही हैं और दक्षिण 24 परगना के मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा शासित राज्यों में दंगों की याद दिला रही हैं.
टीएमसी के मजबूत गढ़ दक्षिण बंगाल और उत्तर बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद तथा उत्तर दिनाजपुर जिलों की करीब 60 सीटों पर ममता एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) और सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के मुद्दे उठा रही हैं, जहां एक-तिहाई वोटर मुसलमान हैं. उन्होंने एक रैली में कहा, ‘‘अगर आप एनआरसी के जरिए बाहर नहीं फेंक दिया जाना चाहते तो खूब सावधान रहिए.’’
बंगाल की 30 फीसद मुसलमान आबादी पर इस बार ममता की पकड़ 2016 जैसी नहीं भी हो सकती है, क्योंकि इस चुनावी होड़ में कुछ असर वाले मुसलमान मौलवी अब्बास सिद्दीकी भी मौजूद हैं. सिद्दीकी का इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) वाम मोर्चा-कांग्रेस के तीसरे गठजोड़ का हिस्सा है. उसे हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुसलमीन) का समर्थन भी हासिल है और बंगाल की 294 विधानसभा सीटों में से ज्यादातर दक्षिण बंगाल में 26 उम्मीदवार उतारे हैं.
ममता इससे सतर्क हैं. दक्षिण 24 परगना की एक रैली में उन्होंने चेताया, ‘‘भाजपा का हैदराबाद से एक दोस्त और फुरफुरा शरीफ का एक बिगड़ैल अल्पसंख्यक वोटों के बंटवारे के लिए करोड़ों रुपए खर्च रहे हैं. उन्हें वोट देने का मतलब है भाजपा को वोट देना.’’
हालांकि, यह कोशिश भी शिद्दत से दिखती है कि भाजपा के उकसावे में न फंसा जाए और ऐसा कुछ न किया जाए, जिससे भाजपा की इस चाल को फायदा पहुंचे कि ममता ‘हिंदू विरोधी’ हैं. नंदीग्राम में दो बार-रेयापाड़ा में रोड शो और 1 अप्रैल को बोयाल में कथित चुनावी धांधली के बाद मतदान बूथ पर पहुंचने के दौरान ममता का सामना ‘जय श्रीराम’ के नारे से हुआ लेकिन वे शांत बनी रहीं.
इसके पहले ऐसी घटनाओं पर दीदी गरम हो जाया करती थीं. उन्होंने नेताजी की 125वीं वर्षगांठ पर भाषण देने से इनकार कर दिया था. उसके पहले मई 2019 में उत्तर 24 परगना में उनके काफिले का सामना ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाते लोगों से हुआ था, तो वे विफर पड़ी थीं.
लेकिन वह और वक्त था. वरिष्ठ टीएमसी नेताओं की राय मानकर ममता भाजपा के हाथ में खेलने से बच रही हैं. उनकी पार्टी का नया मंत्र है, ‘‘ठंडा ठंडा कूल कूल, आबार जितबे तृणमूल’’ (ठंड रखो, फिर जीतेगी तृणमूल). नंदीग्राम में तीन हफ्ते तक डेरा डाले तृणमूल नेताओं सुब्रत बक्शी और डोला सेन के साथ पूर्व टीएमसी मंत्री पूर्णेंदु बोस कहते हैं, ''हमने दीदी को मनाया कि ऐसे नारों से चिढ़ती न दिखिए.
तृणमूल कार्यकर्ताओं को भी उकसावे में तीखी प्रतिक्रिया न देने को आगाह किया गया है.’’ वे कहते हैं, ‘‘दीदी ने नेताओं-कार्यकर्ताओं को सावधान किया है कि भाजपा की चाल में फंसने से बचें.’’
ममता बड़ी-बड़ी रैलियों के अलावा ऌप्रचार में व्यक्तिगत स्पर्श भी देने की कोशिश कर रही हैं. यह ‘दुआरे दुआरे ममता’ है. उनकी कोर टीम नुक्कड़ सभाओं और घर-घर प्रचार में जुटी है. बोस कहते हैं, ‘‘टीएमसी के युवा नेता घर-घर पहुंचकर गलतफहमियों को दूर कर रहे हैं. वरिष्ठ नेता नुक्कड़ सभाएं कर रहे हैं. हमने नंदीग्राम में बड़ी रैली के बदले ममता दी की आठ स्थानीय सभाएं आयोजित कीं.’’
ममता ने नंदीग्राम में 29-30 मार्च को 5 किमी. लंबे रोड शो की योजना रद्द कर दी. इसके बदले वे ह्वीलचेयर पर गांवों की गलियों में घूमीं. नंदीग्राम में भांगाबेरा के रहने वाले बिश्वबंधु जाना कहते हैं, ‘‘वे लगभग सभी हिंदू बस्तियों में गईं, ताकि शुभेंदु अधिकारी के मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप का जवाब दिया जा सके, जो उन्हें 'ममता बेगम’ कहते आ रहे हैं.’’
बोयाल मतदान बूथ में पहुंचीं ममता ने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाते भाजपा और ‘खेला होबे’ का नारा लगाते टीएमसी कार्यकर्ताओं को शांत करने का जिम्मा सीआरपीएफ के जवानों पर छोड़ दिया. वहां ममता दो घंटे तक इंतजार करती रहीं. उन्होंने अपने समर्थकों से कहा, ''मुझे नंदीग्राम की नहीं, लोकतंत्र की चिंता है.’’ वैसे, बाद में चुनाव आयोग ने बोयाल में बूथ कब्जे की शिकायत खारिज कर दी.
यूं तो टीएमसी में कई स्टार प्रचारक हैं, लेकिन ममता इकलौती स्टार बनी हुई हैं. उनका लक्ष्य 100 सीटों पर रैलियां करने का है, जबकि अभिषेक बनर्जी 60 सीटों पर रैलियां कर रहे हैं, जिनमें आधी दक्षिण 24 परगना में हैं. इसके अलावा 20-25 टीएमसी नेता हर जिले में रैलियां, सभाएं कर रहे हैं और भाजपा तथा केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ एक्टिविस्टों और स्थानीय समूहों से संपर्क कर रहे हैं.
बोस कहते हैं, ‘‘नंदीग्राम में हमने नए काले कृषि कानूनों और केंद्र की किसानों की दुर्दशा के प्रति बेरुखी के बारे में जानकारी देने के लिए मेधा पाटकर और योगेंद्र यादव को बुलाया. 2007 में नंदीग्राम आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोकप्रिय कलाकार कबीर सुमन और नचिकेता को भी लाया गया.’’
बोस 'भाजपा को वोट नहीं’ और ‘बांग्ला बचाओ, संविधान बचाओ’ की मुहिम भी चला रहे हैं. इसी तरह, मजदूर संगठनों में मजबूत पैठ वाली डोला सेन हुगली के जूट मिल इलाकों और उत्तर बंगाल के चाय बागान का दौरा कर रही हैं. बोस खुद भी आदिवासी बहुल और राजबंशी तथा मेछ स्थानीय समूहों के इलाकों में काफी काम कर चुके हैं.
उनका एक लक्ष्य यह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों की तरह अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के वोट एकमुश्त भाजपा की ओर जाने से रोका जाए.
लेकिन भाजपा ने 50 से ज्यादा राष्ट्रीय नेताओं को बंगाल में लगा रखा है और मोदी-शाह जोड़ी आ-जा रही है, इसलिए ममता के लिए जरूरी हो गया है कि वे ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दिखें. टीएमसी प्रमुख राज्य के एक कोने से दूसरे कोने तक हर रोज औसतन तीन रैलियां कर रही हैं. धूप में झुलसे चेहरे पर थकान लिए ह्वीलचेयर पर सवार ममता भाजपा के केंद्रीय मंत्रियों और सितारों की मेले-ठेले जैसे जश्न वाली रैलियों और रोड शो से बिलकुल विपरीत नजारा पेश करती हैं.
कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर, राजनीति विश्लेषक शोभनलाल दासगुप्ता कहते हैं, ‘‘ममता बनर्जी दो छवियों के बीच आ-जा रही हैं. एक, ह्वीलचेयर पर घायल और लगातार दुष्प्रचार की शिकार महिला मां-बहनों का समर्थन हासिल करने की कोशिश में है; और दूसरे ताकतवर आहत बाघिन जिसमें बदला लेने का दमखम है. जिस इलाके में जैसी जरूरत होती है, वहां वे वैसी ही छवि पेश करती हैं.’’
ममता की रैली में उम्मीदवारों की मंच पर मौजूदगी की एक वजह यह है कि वे पार्टी में स्थानीय कलह पर काबू पाना चाहती हैं. अलीपुरद्वार जिले केफलाकाटा की रैली में उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो जीत रही हूं पर आप टीएमसी को 200 से ज्यादा सीटें जरूर जिताएं, वरना भाजपा पैसे के दम पर गद्दारों को खरीदने की कोशिश करेगी.’’
उम्मीदवारों के चयन में असहमतियां थीं, लेकिन दीदी की बात अंतिम रही. यह प्रक्रिया पिछले साल चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की टीम ने मौजूदा विधायकों के कामकाज और लोकप्रियता के आकलन और हर सीट के लिए तीन संभावित नामों के सुझाव के साथ शुरू हुई थी. विधेयकों की कथित तौर पर तीन श्रेणियां बनाई गईं:
कामकाज अच्छा पर भ्रष्टाचार के आरोप, कामकाज अच्छा नहीं पर स्वच्छ छवि वाले, और संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले पर कामकाज अच्छा नहीं. किशोर की टीम के एक सदस्य कहते हैं, ‘‘उम्मीदवारों का चयन खासकर कामकाज और लोकप्रियता के आधार पर किया गया. स्वच्छ छवि को कम वजन दिया गया.’’ कोशिश यह भी हुई कि स्वच्छ छवि वाले कुछ वामपंथी और कांग्रेस नेताओं को भी लाया जाए पर ज्यादा कामयाबी नहीं मिली.
किशोर का सुझाव था कि टीएमसी के 211 में से 120 विधायकों के टिकट काट दिए जाएं. आखिकार 80 विधायकों के टिकट कटे. ममता और अभिषेक ने खुद बात करके टिकट कटे नेताओं को समझाने की कोशिश की मगर शिकायतें बनी रहीं. दक्षिण 24 परगना की सातगाछी सीट से अब भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩे वालीं सोनाली गुहा तीन दशक से ममता की वफादार रही हैं. वे कहती हैं, ''दीदी मुझसे दिक्कत बतातीं तो मैं भाजपा में जाने से पहले दो बार सोचती. मुझे अभिषेक ने भी फोन नहीं किया.’’
ममता का ट्रंप कार्ड बेशक उनकी सरकार के सालाना 12,000 करोड़ रु. के समाज कल्याण कार्यक्रम हैं, जो खराब माली हालत के बावजूद जारी हैं. सस्ता राशन, उच्च शिक्षा केलिए लड़कियों को छात्रवृत्ति, सभी के लिए 5 लाख रु. का स्वास्थ्य बीमा, और कृषि सहायता से 10 करोड़ आबादी का तकरीबन 75 फीसद किसी न किसी तरह लाभान्वित है. टीएमसी का यह दावा भी है कि बंगाल में हर परिवार की आमदनी सालाना 12,000 से 20,000 रु. तक बढ़ी है.
ममता को उम्मीद है कि इससे भाजपा का ‘असॉल पोरिबोर्तन’ का नारा फीका पड़ जाएगा. लेकिन दीदी चुनाव बाद समीकरण और दिल्ली केमोर्चें के लिए भी दरवाजे खुले रख रही हैं, बशर्ते जरूरत पड़े. जैसा कि विपक्षी नेताओं को लिखी चिट्ठी से जाहिर होता है.
हालांकि ममता पहले भी देशव्यापी विपक्ष को एक मंच पर लाने की कोशिश कर चुकी हैं. जनवरी 2019 में कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान पर 25 दलों के नेताओं की एक बड़ी रैली हुई थी. उस रैली में राकांपा के शरद पवार, कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खडग़े, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, द्रमुक के एम.के. स्टालिन जैसे दिग्गज नेता मौजूद थे.
हालांकि वह प्रयोग सफल नहीं रहा. एक-दो पार्टियों को छोड़कर बाकी दलों का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा और ममता के गढ़ बंगाल में भाजपा 42 में से 18 सीट जीतने में सफल रही. उस प्रयोग के नाकाम होने के बाद भी ममता 2024 के लिए उसी प्रयोग में क्यों जुट गई हैं?
सियासी टीकाकार एन. अशोकन कहते हैं, ‘‘ममता तीसरी बार सरकार बना लेती हैं तो मौजूदा विपक्षी खेमे में यह कमाल करने वाली पहली मुख्यमंत्री होंगी. उनके कद के नेता सिर्फ शरद पवार होंगे, लेकिन वे भी महाराष्ट्र में शिवसेना और कांग्रेस की मदद से भाजपा को रोकने में सफल रहे हैं इसलिए ममता सियासी रूप से उनसे ज्यादा ताकतवर बनकर उभर सकती हैं.’’
राजनैतिक टीकाकार गौतम लाहिड़ी के मुताबिक, ‘‘ममता इसे समझ रही हैं इसलिए उन्होंने 2024 का सियासी दांव अभी से खेल दिया है.’’ लेकिन क्या कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए तैयार होगा? राजनीतिक विश्लेषक मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘‘कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है. ममता क्षेत्रीय दलों का कोई मंच तैयार करने में सफल हो जाती हैं तो कांग्रेस मन या बेमन से समर्थन जरूर दे सकती है क्योंकि कांग्रेस का पहला लक्ष्य मोदी को रोकना है.’’
इसमें और भी कई पेच हैं. विपक्षी खेमे में बीजू पटनायक, केसीआर या जगन मोहन रेड्डी जैसे नेताओं का फोकस अपने राज्य तक सीमित है. वामपंथी पार्टियां ममता की छतरी तले आएं, यह असंभव नहीं तो कठिन जरूर है. सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा लोकसभा चुनाव में कितने प्रभावी होंगे और क्या फिर साथ आ जाएंगे?
भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और बंगाल के सह प्रभारी अरविंद मेनन कहते हैं, ‘‘ममता की हार तय है. बंगाल में हारने के साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को चुनौती देने की सोच दिवास्वप्न साबित होगी.’’ बहरहाल, ममता बनर्जी की यह राजनैतिक दूरदर्शिता है या घबराहट का शुरुआती संकेत, इसका पता तो 2 मई को चुनावी नतीजों के बाद ही चलेगा.
प्रमुख विपक्षी नेताओं को ममता की चिट्ठी क्या चुनाव बाद के समीकरण के लिए दरवाजे खुला रखने की कोशिश है?
ममता का केंद्र में विपक्षी एकता का सूत्रधार बनने का संकेत राजनैतिक दूरदर्शिता है या घबराहट के संकेत?

