पश्चिम बंगाल चुनावः नौ की ताकत

ममता सरकार सामाजिक कल्याण के लिए हर साल 1,200 करोड़ रु. खर्च करती है, जिसने टीएमसी का एक समर्पित आधार तैयार किया है. इसे अपने पाले में करना भाजपा की बड़ी चुनौती है

सधे हुए सुर  दिसंबर, 2020 में बीरभूम जिले में शांति निकेतन में ममता बनर्जी
सधे हुए सुर दिसंबर, 2020 में बीरभूम जिले में शांति निकेतन में ममता बनर्जी

दक्षिण बंगाल के नौ जिलों ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने यहां की कुल 22 में से 19 सीटें तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की झोली में डाल दी थीं. विधानसभा क्षेत्रों के लिहाज से इसका मतलब होता है 138 सीटें—यानी 2016 में हुए विधानसभा चुनावों में टीएमसी को मिली कुल सीटों का दो-तिहाई. कुछ ही महीनों बाद भाजपा के खिलाफ 'करो या मरो' जैसी चुनावी जंग में इन्हीं जिलों में टीएमसी का प्रदर्शन ममता बनर्जी का भाग्य तय करेगा. कुल 178 विधानसभा क्षेत्रों वाले ये जिले हैं: नदिया, उत्तरी 24 परगना, हावड़ा, हुगली, कोलकाता, दक्षिणी 24 परगना, बर्धमान, बीरभूम और पूर्वी मेदिनीपुर.

बंगाल जीतना भाजपा के लिए अब भी मुश्किल काम है, भले भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में टीएमसी के 22 सीटों के मुकाबले 18 सीटें जीतने और टीएमसी के कुल मत फीसद के बहुत करीब (भाजपा 40 फीसद, तृणमूल 43.3 फीसद) पहुंचने में सफल रही. 294 सदस्यीय विधानसभा में साधारण बहुमत के लिए किसी पार्टी को 148 सीटों की जरूरत होती है, और लोकसभा चुनाव नतीजों के अनुसार, ममता की पार्टी लगातार तीसरी बार सत्ता संभालने के लिए अच्छी स्थिति में है. लेकिन भाजपा की नजर में मई 2019 से अब तक काफी कुछ बदल गया है.

दक्षिण बंगाल के पूर्वी मेदिनीपुर, हुगली, हावड़ा, दक्षिण 24 परगना और उत्तर 24 परगना जिलों के साथ ही राज्य के पश्चिमी हिस्से की आदिवासी पट्टी में प्रभाव रखने वाले शुभेंदु अधिकारी जैसे टीएमसी दिग्गजों की दलबदल और जमीनी कार्यकर्ताओं में कमी आने से उत्साहित भाजपा को विश्वास है कि उसका 'एबार बांग्ला' सपना पूरा हो जाएगा. बिष्णुपुर के भाजपा सांसद सौमित्र खान का दावा है, ''हमारे पास हावड़ा, हुगली, कोलकाता, बीरभूम और पूर्वी मेदिनीपुर में कई महारथी हैं. टीएमसी, कांग्रेस और वाम दलों के कम-से-कम सात सांसद और 40 विधायक हमारे साथ आने को तैयार हैं.''

'एम' फैक्टर

मुस्लिम गढ़ों में टीएमसी के वर्चस्व को करीब 3,000 मस्जिदों पर नियंत्रण रखने वाले हुगली जिले की फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी से खतरा है. उनकी यह दलील है कि टीएमसी ने मुसलमानों का समर्थन लेकर भी उनके विकास के लिए कुछ नहीं किया. ओवैसी और सिद्दीकी ने दक्षिण बंगाल में 50 सीटों पर चुनाव लडऩे की योजना बनाई है. संभावना है कि वे टीएमसी के सुरक्षित गढ़ों में उसके समर्थन आधार का एक हिस्सा ले जाएंगे.

मुस्लिम वोटों में बिखराव से खुद को होने वाले लाभ का भाजपा आनंद लेगी. मुसलमानों से सिद्दीकी की स्पष्ट अपील ने टीएमसी को हिलाकर रख दिया है. उनकी रैलियों में भारी भीड़ उमड़ रही है और वे भाजपा की बजाए, ममता सरकार को मुस्लिम हितों के लिए खतरे के रूप में पेश कर रहे हैं. वाम मोर्चे के अध्यक्ष सूर्यकांत मिश्र ने वंचित अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लड़ाई के लिए सिद्दीकी को वाम-कांग्रेस के 'धर्मनिरपेक्ष' गठबंधन में शामिल होने का आमंत्रण दिया है.

पूरे राज्य में 125 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसद या उससे अधिक है. इनमें उत्तर और दक्षिण 24 परगना, नदिया, कोलकाता, बीरभूम और बर्धमान में 75-80 सीटें हैं. 2016 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी ने इन 125 सीटों में से 81 सीटें जीतीं और 14 में उपविजेता रही. वाम और कांग्रेस ने कुल 40 सीटें जीतीं और भाजपा ने चार. वाम-कांग्रेस गठबंधन 105 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहा था. टीएमसी को इसकी चिंता करनी चाहिए, खासकर अगर यह गठबंधन सिद्दीकी को भी जोड़ लेता है.

दक्षिण और उत्तर 24 परगना जिलों में 64 सीटें हैं और वहां मुसलमानों की बड़ी आबादी क्रमश: 35 और 26 फीसद है. यही दोनों जिले बीती मई में चक्रवात अम्फान के विनाश का शिकार बने थे और भाजपा यहां अपने घर-घर अभियान में राहत वितरण में हुए कथित भ्रष्टाचार पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है.

उत्तर बंगाल से संबंध रखने वाले भाजपा प्रवक्ता दीप्तिमान सेनगुप्ता कहते हैं, ''हम उत्तर और दक्षिण 24 परगना को लेकर चिंतित नहीं हैं क्योंकि वहां हमारे प्रतिद्वंद्वियों तथा सिद्दीकी की ओर से होने वाले ध्रुवीकरण प्रयासों के नतीजतन हमारे पक्ष में हिंदू मतों के एकजुट होने में मदद मिलेगी. जहां तक अल्पसंख्यक मतों की बात है तो 2019 में हमें 4 फीसद मत मिले थे जिनके बिना हम उत्तर बंगाल की आठ में से सात लोकसभा सीटें नहीं जीत पाते. यहां तक कि क्रमश: 49 और 51 फीसद मुस्लिम आबादी वाले उत्तर दिनाजपुर और मालदा के कुछ हिस्सों में भी हमें मत मिले थे. इससे पता चलता है कि भाजपा मुसलमानों के लिए अछूत नहीं है.''

लेकिन भाजपा सक्रिय रूप से मुसलमानों का साथ पाने की कोशिश करते नहीं दिखेगी क्योंकि इससे उसके पक्ष में हिंदू वोटों का संभावित एकीकरण कमजोर हो सकता है. भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की ओर से राज्य में 'चावल का कटोरा' कहे जाने वाले बर्धमान जिले से जनवरी में शुरू किए गए 'कृषक सुरक्षा अभियान' और 'एक मुठ्ठी चावल' कार्यक्रम में सघन मुस्लिम आबादी वाले 8,000 गांव शामिल नहीं किए गए थे.

कोलकाता और उससे आगे

कोलकाता जिला हमेशा से पार्टियों के लिए टेढ़ा खेल रहा है. वाम के शासन में भी यह जिला कांग्रेस और टीएमसी के लिए वोट करता रहा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यह महानगर भाजपा से अप्रभावित रहा है. पार्टी ने कोलकाता के पूर्व मेयर सोवन चटर्जी, जिन्हें वह टीएमसी से खींचकर अपने साथ लाई है, को कोलकाता की 11 सीटों और दक्षिण 24 परगना की 31 सीटों के लिए पर्यवेक्षक नियुक्त किया है. 24 परगना में चटर्जी के प्रभाव के कारण ही ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को लोकसभा की डायमंड हार्बर सीट जीतने में मदद मिली थी.

भाजपा की सबसे बड़ी चिंता 15 लाख की वह आबादी है जो 3,500 पंजीकृत झुग्गियों में फैली हुई है. भाजपा के एक नेता का दावा है, ''टीएमसी झुग्गी के बाशिंदों का इस्तेमाल फर्जी वोटिंग और मतदान के दिन बूथों पर हंगामा करने के लिए करेगी.'' इस वोट बैंक को हथियाने की दौड़ में भाजपा और टीएमसी के बड़े नेता उनके दरवाजों पर दस्तक दे रहे हैं.

हुगली में टीएमसी खेमे में बिखराव नजर आ रहा है. सात विधायक अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं जिनमें 40 वर्षों से ममता के विश्वासपात्र रहे प्रबीर घोषाल भी शामिल हैं. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय कहते हैं, ''यहां तक कि हावड़ा जहां 11 फीसद हिंदी भाषी लोग रहते हैं, अपना रंग बदल रहा है.'' भाजपा खेमे में अधिकारी के होने से पार्टी को पूर्वी मिदनापुर में 16 सीटें जीतने का पूरा भरोसा है. बीरभूम, जहां विधानसभा की 11 सीटें हैं और 37 फीसद मुस्लिम आबादी है, टीएमसी के अनुब्रत मंडल ज्यादा जोर नहीं लगा रहे हैं. दरअसल, मंडल पर रेत और पत्थर के अवैध खनन में शामिल होने का आरोप है जिसकी जांच केंद्रीय एजेंसियां कर रही हैं.

कोलकाता के रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के चुनाव विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि पार्टियां किन्हें उम्मीदवार बनाती हैं, उनके मुद्दे क्या हैं, सिद्दीकी-ओवैसी मोर्चे का असर क्या होगा, और आखिर में मोदी और ममता अपना चुनाव प्रचार कैसे करते हैं. चक्रवर्ती कहते हैं, ''2016 में टीएमसी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद ममता बड़े जनादेश के साथ वापस लौटी थीं.

वे लोगों को यह समझाने में सफल रही थीं कि उन्हें वोट देने से लाखों लोगों को जो आर्थिक लाभ दिए जा रहे हैं, वे आगे भी जारी रहेंगे.'' सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज, कोलकाता में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर मैदुल इस्लाम कहते हैं, ''चाहे राशन हो या बुनियादी जरूरतें, बंगाल की बड़ी आबादी ममता सरकार पर उंगली नहीं उठा सकती. यही वजह है कि उनके विरोधी इस मुद्दे को नहीं छूना चाहते हैं और ध्रुवीकरण के जरिए विकास के मुद्दे को बदलने की कोशिश कर रहे हैं.'' पिछले दो महीनों में सरकार के 'दुआरे सरकार' अभियान के तहत 90 लाख नए लाभार्थी तैयार हो गए हैं.

आरएसएस के एक नेता स्वीकार करते हैं कि सामाजिक कल्याण पर ममता सरकार के हर साल 1,200 करोड़ रु. के खर्च से टीएमसी के समर्पित काडरों और कट्टर समर्थकों का एक मजबूत आधार बन गया है. उन्हें अपनी ओर लाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है. असल में बंगाल में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसे ममता सरकार की 11 अहम योजनाओं में से किसी एक या उससे अधिक का लाभ न मिलता हो.

टीएमसी के राज्यसभा सांसद शुखेंदु शेखर रे कहते हैं, ''बंगाल में दीदी के दशक भर लंबे शासन की यह बड़ी उपलब्धि है. इसलिए हमें डरने की कोई जरूरत नहीं.'' उनका इशारा है कि 'मां-माटी-मानुष' सरकार सुरक्षित है. वे कहते हैं, ''ममता ने राज्य में शांति कायम की है. आज शांति के बिना कल कोई जिंदगी नहीं होगी.''

Read more!