लॉकडाउन की भारी कीमत
लॉकडाउन, कोविड का बढ़ता संक्रमण और अनिश्चितता की सामान्य भावना भारतीय अर्थव्यवस्था को आने वाले कुछ समय के लिए काफी दबाव में रखने वाले हैं

भारत में कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए 25 मार्च से दुनिया का सबसे अधिक कठोर लॉकडाउन लागू कर दिया गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्ण लॉकडाउन को उचित ठहराते हुए कहा था, ''जान है तो जहान है.'' लेकिन अर्थव्यवस्था को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी जो पहले से ही मंदी की ओर अग्रसर थी. उस विवादित फैसले के नतीजों पर काफी कुछ कहा जा चुका है, और अब अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी के आंकड़े इसके पूरे नुक्सान की तस्दीक करते हैं—अर्थव्यवस्था इस अवधि में 23.9 फीसद सिकुड़ गई है. मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र 39.3 फीसद टूट गया है जबकि निर्माण गतिविधियों में 50.3 फीसद की कमी आई है. व्यापार, होटल, परिवहन और संचार क्षेत्र में 47 फीसद की गिरावट आई है, वहीं निवेश गतिविधियों में 47.1 फीसद की कमी दर्ज की गई है. वैसे, सरकार का उपभोग खर्च 16.4 फीसद बढ़ा है.
पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग के एक अनुमान के मुताबिक, इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में भारत को करीब 12.5 लाख करोड़ रु. की कीमत के आउटपुट का नुक्सान हुआ है. एकतरफ, सरकार को 2.5 लाख करोड़ का नुक्सान झेलना पड़ा है तो दूसरी ओर, भारतीय कंपनियों का नुक्सान भी 2.5 लाख करोड़ रु. का रहा है. बाकी के 7.5 लाख करोड़ रु. में तनख्वाह और दिहाड़ी का नुक्सान शामिल है.
कई अर्थशास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि इस अवधि के लिए संशोधित अनुमान इससे कहीं अधिक भयावह हो सकते हैं, क्योंकि अभी इस आंकड़े में अर्थव्यवस्था के असंठित क्षेत्र पर पड़े असर को शामिल नहीं किया गया है. केंद्रीय सांख्यिकीय कार्यालय, जो राष्ट्रीय आर्थिक आंकड़े जारी करता है, पारंपरिक रूप से संगठित क्षेत्र के संकेतकों का इस्तेमाल असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों के संकेत के रूप में करता है.
सरकार ने मनरेगा, खाद्य सब्सिडी योजनाओं और नकद हस्तांतरण जैसी योजनाओं पर जो 1.7 लाख करोड़ रु. खर्च किए हैं, निस्संदेह उनसे मदद मिली है. पहली तिमाही में उम्मीद की एकमात्र किरण कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियां ही रही हैं. इस क्षेत्र को लॉकडाउन की बंदिशों से बाहर रखा गया था और इसने 3.4 फीसद की वृद्धि तो दर्ज की ही है, साथ ही इस बार मॉनसून भी अच्छा रहा है और खरीफ की बुआई भी बढिय़ा हुई है. संभावना है कि यह क्षेत्र इस साल भी अच्छा प्रदर्शन जारी रखेगा.
आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारतीय उद्योग के कुछ हिस्सों ने लॉकडाउन की चुनौतियों का बेहतर तरीके से सामना किया है. वित्तीय और पेशेवर सेवाएं—जिसमें वित्तीय सेवाएं, मेडिसिन, कानून और रियल एस्टेट हैं—को मामूली 5 फीसद का घाटा हुआ है. वहीं, कई कंपनियों ने बड़े पैमाने पर लागत में कमी का रास्ता अपनाया—इसमें कर्मचारियों की तनख्वाह में कमी शामिल है. नौकरियों में बढ़ती अनिश्चितता, लगातार चल रही कोविड-19 महामारी और आय में कमी आने वाले दिनों में घरेलू खर्चों में कटौती को और बढ़ाएंगे.
हालांकि, सरकार वी-आकार के सुधार (जिस तेजी से नीचे गया उसी तेजी से अर्थव्यवस्था में वापसी) की उम्मीद कर रही है, पर अधिकतर अर्थशास्त्री संकट से उबरने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं.
31 अगस्त को पहली तिमाही के आंकड़े जारी होने के कुछ ही मिनटों बाद, भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यम ने कहा कि लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था को 'बाहरी झटके' लगे हैं और उन्होंने इसे 'भारत और दुनियाभर के सामने पेश डेढ़ सौ वर्षों में होने वाली घटना' कहा. उन्होंने कहा, ''भारत का लॉकडाउन ब्रिटेन से 15 फीसद अधिक गहन था और ब्रिटेन में नुक्सान 22 फीसद का हुआ. लॉकडाउन की कड़ाई के मद्देनजर यह घाटा अंदेशे के मुताबिक ही है.'' लेकिन सुब्रह्मण्यम ने यह भी कहा कि देश पटरी पर आ रहा है. उन्होंने कहा, ''कोर सेक्टर्स में, उत्पादन में सुधार दिख रहा है.
रेलवे माल ढुलाई अर्थव्यवस्था की सेहत का अच्छा संकेतक है और यह पिछले साल के स्तर के 95 फीसद तक पहुंच गया है. बिजली की खपत पिछले साल की तुलना में 1.9 फीसद कम है. ई-वे बिल अधिक हैं. आने वाली तिमाहियों में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है.'' लेकिन सरकार को छोड़कर अन्य लोगों को सुब्रह्मण्यम के आशावादी मत पर कम ही भरोसा है. एक विश्लेषण में, ईवाइ इंडिया के मुख्य नीति सलाहकार डी.के. श्रीवास्तव कहते हैं, ''अर्थव्यवस्था स्पष्ट रूप से एक गंभीर दुष्चक्र में फंस गई है, जिसमें मांग को प्रोत्साहित करने की बड़ी जरूरत है.''
सरकार ने अभी तक अधिकतर ध्यान तरलता बनाए रखने के उपायों पर दिया है. लेकिन इससे बड़े पैमाने पर कंपनियों—खासकर एमएसएमई (लघु, छोटे और मझोले उद्योग) सेक्टर—की तालाबंदी पर रोक नहीं लग पाई और इससे जुड़ी नौकरियां खत्म हो गईं. सरकार को नए तरीके की, साहसी नीतियों, मसलन छोटी कंपनियों के लिए मजदूरी की सब्सिडी, ब्याज देनदारियों की माफी वगैरह जैसे कदम उठाने होंगे. सरकार ने राजकोषीय घाटे के प्रबंधन में अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन इस वक्त, राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने से अधिक महत्वपूर्ण वृद्धि दर को बढ़ाना है. शिव नाडर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष पार्थ चटर्जी ने एक नोट में लिखा है, ''सरकार के खर्चे बढ़ाने की संभावना है. यह अभूतपूर्व स्थिति है और इसलिए असाधारण उपाय भी करने होंगे.''
इस बात पर सभी लोगों में सर्वानुमति है कि केंद्र सरकार को रोजमर्रा के उपभोक्ताओं को हाथों में अधिक पैसा देने के तरीके खोजने चाहिए ताकि मांग बढ़ाई जा सके. बहरहाल, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि केंद्र की ऐसी किसी कोशिश की इच्छा है. सरकार पहले से ही राज्यों को दिए जाने वाले जीएसटी (माल एवं सेवा कर) के बकाए के भुगतान को लेकर दबाव में है, ऐसे में मांग को प्रोत्साहित करने वाले पैकेज के लिए खर्च करना कठिन है. अगर सब कुछ पटरी पर लौटने की बात हो तो इस बाबत बहुत सारे अनुमान हैं कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कब सही रास्ते पर आएगी. एक अनुमान तो यही है कि ऐसा इस वित्तीय वर्ष के अंत तक ही हो सकता है.
हालांकि, महामारी अपने बदतरीन रूप में और इसके आर्थिक दुष्प्रभाव भी हमारे पीछे पड़े हैं, लेकिन लागतार छिटपुट लॉकडाउन, कोविड का बढ़ता संक्रमण और अनिश्चितता की सामान्य भावना भारतीय अर्थव्यवस्था को आने वाले कुछ समय के लिए काफी दबाव में रखने वाले हैं.