प्रधान संपादक की कलम से
देश में अध्ययन-अध्यापन की दुश्वारियों और डिजिटल कक्षाओं के बारे में बात कर रहे हैं इंडिया टुडे के प्रधान संपादक अरुण पुरी

इस हफ्ते की आवरण कथा का विषय—शिक्षा मेरे दिल के काफी करीब है. तीस साल पहले मैंने एक शिक्षा ट्रस्ट की स्थापना की और एक स्कूल खोला क्योंकि मुझे लगा कि दिल्ली के एक नामी स्कूल में पढ़ने वाले मेरे बच्चे ऐसी शिक्षा पा रहे हैं जिसमें पुरातन पाठ्यक्रम और रट्टामार पढ़ाई के अलावा बच्चे की पूरी प्रतिभा के विकास पर कोई जोर नहीं है. हमने जिस स्कूल की स्थापना की, उसमें समझदारी के साथ पढ़ाई पर फोकस रखा गया.
ऐसा स्कूल, जहां पढ़ाई मजेदार हो, जहां बच्चे सवाल पूछने से न झिझकें, जहां सबका ध्यान रखा जाए, जहां बच्चे अपनी मौजूदा समझदारी और मान्यता की सीमाएं आगे ले जाने की सोचें और इस प्रक्रिया में नया ज्ञान हासिल करें तथा शिक्षा के नए बेंचमार्क बनाएं. हमारे स्कूल की गिनती देश के अव्वल स्कूलों में होती है और मेरा नजरिया ऐसी कई पाठशालाएं स्थापित करने का था. सरकार की दमघोंटू शिक्षा नीतियों के चलते वह सपना अधूरा रह गया. लेकिन वह कहानी फिर कभी. समस्या आज भी जस की तस है.
देश में पढ़ाई संकटग्रस्त है. एनजीओ प्रथम की हालिया सालाना शिक्षा सर्वेक्षण रिपोर्ट (एएसईआर) के मुताबिक, बड़ी संख्या में हमारे स्कूली बच्चे निचले दर्जे की पाठ्य-पुस्तकें पढ़ने या अक्षरों तथा अंकों को पहचानने में अक्षम हैं. ‘सीखने के इस गंभीर संकट’ के मूल में, नई शिक्षा नीति, 2019 के मजमून के मुताबिक, मात्रा बनाम गुणवत्ता का मसला है. हम कुछ विश्वस्तरीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर, रॉकेट वैज्ञानिक या फॉर्चुन 500 कंपनियों का संचालन करने वाले बिजनेस मैनेजर भले ही पैदा करते हों, लेकिन मेरा मानना है कि यह हमारी शिक्षा व्यवस्था के बावजूद है, न कि उसकी वजह से. कड़ी मेहनत और कामयाबी की उत्कट इच्छा ही ऐसी अनोखी प्रतिभाओं को आगे ले जाती है.
बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाने वाला दशक भर पुराना शिक्षा का अधिकार कानून बेहद थोड़े शिक्षक-छात्र अनुपात और पढ़ाई की निम्न कोटि से बेमानी जैसा हो गया है. एएसईआर, 2019 के 26 ग्रामीण जिलों के सर्वेक्षण में पता चला कि कक्षा एक के सिर्फ 16 फीसद छात्र ही पढ़ पाते हैं और तकरीबन 40 फीसद अक्षर भी नहीं पहचान पाते. उच्च शिक्षा में हमारा सकल दाखिला अनुपात (जीईआर) महज 26 फीसद है जबकि अमेरिका में यह 85 फीसद है. ये नतीजे चिंताजनक हैं क्योंकि हमारे देश की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है.
कोविड-19 महामारी ने इस समस्या को विकराल बना दिया. हम अप्रत्याशित लॉकडाउन के तीसरे महीने में हैं, स्कूल-कॉलेज बंद हैं, परीक्षाएं टाल दी गई हैं और लाखों छात्र क्लासरूम से बाहर हैं. इससे ऑनलाइन पढ़ाई की ओर बढ़ने की जरूरत आन पड़ी है. पाठ्यक्रम की निरंतरता बनाए रखने और लॉकडाउन के बाद आसान शुरुआत के लिए स्कूल-कॉलेजों, तकनीकी संस्थानों और यहां तक कि कोचिंग सेंटरों ने भी ऑनलाइन कक्षाएं शुरू कर दी हैं.
देश भर के लाखों छात्र हर रोज जूम से लेकर गूगल मीट तक कई प्लेटफॉर्म के जरिए वर्चुअल क्लासरूम से जुड़ रहे हैं. ऑनलाइन होमवर्क दिए और दिखाए जा रहे हैं. उनका मूल्यांकन हो रहा है और परीक्षाएं भी ली गई हैं. ऑनलाइन शिक्षा बाजार के लिए अनुमान था कि 2021 तक उसका इस्तेमाल करने वाले 96 लाख हो जाएंगे और कारोबार 1.96 अरब डॉलर (14,836 करोड़ रु.) का हो जाएगा, अब यह लक्ष्य इसी साल हासिल हो जाएगा.
केंद्र सरकार भी ऑनलाइन पढ़ाई को बढ़ावा दे रही है. उसने पीएमईविद्या कार्यक्रम लॉन्च किया है. यह मल्टी-मोड डिजिटल ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म टीवी चैनलों, कम्युनिटी रेडियो और पॉडकास्ट के जरिए चलता है. सरकार 30 मई से आला 100 विश्वविद्यालयों को ऑनलाइन कोर्स शुरू करने की इजाजत महज इस वजह से देगी कि ऑनलाइन पढ़ाई से भारत अपने खस्ताहाल शिक्षा इन्फ्रास्ट्रक्चर की भरपाई कर सकेगा. इससे शिक्षक-छात्र अनुपात में नाटकीय बदलाव आ सकता है और एक शिक्षक परिसरों के क्लासरूम से काफी ज्यादा छात्रों को पढ़ा सकता है. अनुमान है कि इसका जिक्र नई शिक्षा नीति में भी होगा, जो जल्दी ही सार्वजनिक की जा सकती है.
हमारी आवरण कथा, सीनियर एडिटर कौशिक डेका और सीनियर असिस्टेंट एडिटर शिवकेश की लिखी ‘ऑनलाइन क्रांति’ इस रुझान की पड़ताल करती है, ताकि जाना जा सके कि देश मौजूदा संकट के बाद भी क्या डिजिटल क्लासरूम को एक अवसर में बदल सकता है. क्या यह देश में स्कूलों, योग्य शिक्षकों और अच्छी शिक्षा की भारी कमी से आगे छलांग लगाने का मौका बन सकता है? हमने जिन विशेषज्ञों से बात की, उनमें से ज्यादातर का मानना है कि छलांग लगाने का यही मौका है. उन्हें एहसास है कि शिक्षा परिसर इस कमी को पूरा कर पाने के काबिल नहीं हो पाएंगे. जैसा कि एक शिक्षाशास्त्री ने हमसे कहा कि अगर हमें 35 फीसद जीईआर तक पहुंचना है तो ‘‘हमें हर चार दिन पर एक नया विश्वविद्यालय और हर दूसरे दिन एक नया कॉलेज खोलना होगा.’’
हालांकि ऑनलाइन पढ़ाई के आड़े डिजिटल पहुंच की खाई आ रही है. कई सर्वे से पता चलता है कि छात्रों के घरों में गैर-भरोसेमंद कनेक्टिविटी और बिजली आपूर्ति ऑनलाइन पढ़ाई के लिए दिक्कत बन सकती है. दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस मीडिया प्लेटफॉर्म पर 35 कॉलेजों के 12,214 छात्रों के एक ऑनलाइन सर्वे में पाया गया कि 85 फीसद छात्र ऑनलाइन परीक्षा के खिलाफ हैं, 75.6 फीसद छात्रों के पास क्लास या परीक्षा के लिए लैपटॉप नहीं हैं, जबकि 79.5 फीसद के पास ब्रॉडबैंड कनेक्शन नहीं हैं.
तकरीबन 65 फीसद ने कहा कि उनके पास स्थायी मोबाइल नेटवर्क कनेक्शन नहीं है जबकि लगभग 70 फीसद का दावा था कि उनके घर में ऑनलाइन परीक्षा के लिए माहौल नहीं है. ग्रामीण भारत में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी बड़ी समस्या बनने जा रही है. देश भर की 2,50,000 ग्राम पंचायतों को फाइबरऑप्टिक केबल से जोड़ने के लिए सरकार के भारत नेट प्रोजेक्ट के पूरा होने में अभी साल भर की देरी है.
अब कुछ व्यक्तिगत बात. लॉकडाउन के एकांतवास के दौरान अपने दो किशोरवय ग्रैंडचिल्ड्रेन के साथ मैंने पहली बार ऑनलाइन पढ़ाई के सुख और कष्ट का अनुभव किया. यह आसान तो नहीं है, लेकिन भविष्य इसी का है और अब इसी में इजाफा होना है. दूसरे क्षेत्रों की ही तरह, शिक्षा में भी हमारे देश में विभिन्न नई टेक्नोलॉजी के साथ बड़े बदलाव की अकूत संभावना है. लेकिन यह सारी ऊर्जा योजना, अमल और फंड आवंटन की इच्छाशक्ति के अभाव में बेकार चली जाती है. शायद यह महामारी की आपदा में भी हुए कुछेक फायदों में एक हो. हम इस मौके को न गंवाएं.
एक बात और, मैं हमेशा ही किसी देश की प्रगति का मूल्यांकन तीन बड़े पैमाने पर करता रहा हूं. ये हैं उसके बच्चों की सेहत, उसकी साक्षरता दर और महिलाओं की स्थिति. दुनिया में कोई भी देश इन तीनों की प्रगति के बिना विकसित नहीं हो पाया है.
(अरुण पुरी)
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