प्रवासी मजदूरः राजनीति की रेल
जिन राज्यों में मजदूर फंसे थे वे उन राज्यों के सत्ताधारी दल चाहते थे कि उन्हें जल्दी भेजा जाए ताकि उनके यहां संक्रमण न फैल जाए

यह 15 मई रात करीब 9.30 बजे की बात है. दिल्ली के वजीराबाद इंडस्ट्रियल एरिया की एक स्टील फैक्ट्री में काम करने वाला इल्लियास सिर पर भारी-सा सूटकेस रखकर नोएडा की ओर बढ़ रहा था. साथ में उनके करीब 40 साथी और थे जो यहां की अन्य फैक्ट्रियों में काम करते थे और आसपास के ही गांव के रहने वाले थे. इल्लियास निराशा भरे भाव में अपनी पीड़ा जाहिर करता है, ''दो दिन हो गए रेलवे स्टेशन पर पड़े-पड़े, पता नहीं कौन ट्रेन कहां से चलेगी. कब तक बिना काम-धंधे भूखे-प्यासे मरेंगे. पैदल ही जाएंगे, क्या करें?''
सवाल यह है कि जब रेल मंत्री 3 घंटे के भीतर पूरे देश में कहीं भी ट्रेन की व्यवस्था कराने के दावे कर रहे, राज्य सरकारें अपने प्रदेशवासियों को वापस लाने के प्रति संवेदनशील नजर आ रहीं तो दिक्कत कहां है? क्यों श्रमिक ट्रेन चलाने में इतना समय लगा और क्यों 40 दिन बाद भी सड़कों पर भटक रहे प्रवासी मजदूरों की तस्वीरें चारों तरफ तैर रही हैं? दरअसल, यह पूरा मामला दकियानूसी तरीके अपनाकर जिक्वमेदारी से बचने और ठीकरा दूसरे के सिर फोडऩे का नजर आता है.
श्रमिक ट्रेन चलाने में देरी क्यों?
इसकी शुरुआत 7 अप्रैल को मंत्रियों के समूह (जीओएम) वाली उस बैठक से हुई, जिसकी अध्यक्षता राजनाथ सिंह कर रहे थे. इस बैठक में पहली बार प्रवासी मजदूरों को उनके घर भेजने का मामला सामने आया. इस बैठक में शामिल एक मंत्री ने बताया कि बैठक के दौरान यह विचार सामने आया कि पहले चरण का लॉकडाउन खत्म होने के बाद एक बार कुछ समय के लिए ट्रेनें चलाकर सभी फंसे हुए मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचा दिया जाए. लेकिन राज्य इसके लिए तैयार नहीं हुए.
रेलवे बोर्ड के एक अधिकारी ने बताया कि इस बारे में राज्यों से राय ली गई लेकिन ज्यादातर राज्यों की तरफ से यह जबाव मिला कि वह केंद्र सरकार की गाइडलाइन से बंधे हुए हैं जिसके तहत लॉकडाउन का पालन पूरी तरह करने के लिए कहा गया है. जिन राज्यों के मजदूर फंसे हुए थे वे राज्य अपने बीमार मजदूरों को लेने के लिए तैयार नहीं थे, जबकि जिन राज्यों में मजदूर फंसे हुए थे वे राज्य चाह रहे थे कि प्रवासी मजदूरों को वापस भेजा जाए ताकि उनके यहां झुग्गियों, मलिन बस्तियों और अनधिकृत कॉलोनियों में जनसंख्या का दबाव कम हो और संक्रमण फैलने का खतरा टाला जा सके.
रेल राज्यमंत्री सुरेश अंगड़ी कहते हैं, ''रेलवे शुरू से ही मजदूरों को भेजने के लिए तैयार है लेकिन राज्य सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. राज्य सरकार यह नहीं चाहती थी कि प्रवासी मजदूर लौटें क्योंकि उन्हें राज्य में कोरोना संक्रमण फैलने का खतरा था. जब 1 मई से श्रमिक स्पेशल ट्रेन चली, तब भी राज्यों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. राज्य यह चाहते थे कि रेलवे या वह राज्य जहां से मजदूर आ रहे हैं, यह सुनिश्चित करे कि सफर करने वाले लोग पूरी तरह स्वस्थ हैं. जहां तक बात रेलवे की है तो रेलवे सिर्फ यात्रा सुविधा उपलब्ध करा सकती है, मजदूरों को भेजना है या बुलाना यह तो राज्य सरकारों को ही तय करना होगा.''
केंद्र और राज्यों के बीच खींचतान
राज्यों और केंद्र के बीच खींचतान उस समय और बढ़ गई, जब रेल मंत्री पीयूष गोयल ने ट्वीट कर कहा कि रेलवे रोजाना 300 श्रमिक ट्रेनें चलाकर प्रवासी मजदूरों को पहुंचाने के लिए तैयार है. लेकिन राजस्थान, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्य इन्हें चलाने के लिए अनुमति नहीं दे रहे.
इसके जवाब में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, ''हमारे राज्य में किसी तरह की कोई अनुमति नहीं रुकी है. लेकिन रेल मंत्री की ओर से इस तरह के बयान पर कोई आश्चर्य नहीं है. क्योंकि वे अपनी नाकामियों को राज्य सरकारों को थोपने के मामले में कुशल हैं.''
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने गोयल के आरोप का जवाब देते हुए कहा कि हमारे राज्य ने 30 ट्रेनें मांगी थी, जिनमें से केवल 14 मिली. इसके अलावा उनके राज्य में इससे जुड़ी किसी तरह की कोई भी अनुमति नहीं रुकी. बघेल ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि राज्य ने स्वीकृत ट्रेनों के लिए 1.17 करोड़ रुपए का भुगतान भी किया है.
अब नई उलझन
अब तक अगर केंद्र सरकार राज्यों की अनुमति के बगैर ट्रेनें चलाना मुश्किल मान रही है तो 19 मई के ताजा दिशा-निर्देश नई गफलत पैदा करेंगे क्योंकि इसमें स्पष्ट निर्देश हैं कि रेलवे, गृह मंत्रालय की सहमति से श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला सकती है. यदि ऐसा था तो राज्यों को इसके लिए पहले क्यों जिम्मेदार ठहराया जा रहा था? सरकार भी कहीं न कहीं यह मानती है कि इस पूरे मामले में चूक हुई है. अंगड़ी कहते हैं, ''इस विकट समय में थोड़ी-बहुत कमी और चूक हो सकती है और हुई भी है लेकिन रेलवे सिर्फ सर्विस प्रोवाइडर है, किसी न किसी को जिम्मेदारी तो लेनी होगी. पहले रेलवे यात्रियों की जिम्मेदारी के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर थी. अब गृह मंत्रालय यात्रियों की जिम्मेदारी ले रहा है तो रेलवे ट्रेनों की संख्या दोगुनी करके ज्यादा से ज्यादा मजदूरों को उनके घर भेजेगी.''
अंगड़ी के इस दलील के जबाव में पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी कहते हैं, ''गलती रेलवे की नहीं, सरकार की है. सरकार ने अब यह गाइड लाइन जारी किया है कि सिर्फ गृह मंत्रालय की सहमति से रेलवे श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला सकती है. सरकार को यह कदम पहले दिन उठाना चाहिए था. अभी भी रेलवे बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश के लिए ट्रेनें चला रही है, जबकि उसे दिल्ली से कोलकाता-वाया पटना ट्रेन चलाना चाहिए था ताकि विभिन्न राज्यों के मजदूर एक ट्रेन से यात्रा करते और अपने गंतव्य स्टेशनों तक पहुंचते. ऐसा नहीं करने की वजह से यह हो रहा है कि जिन राज्यों के लिए पूरी सवारी नहीं हो रही है उस ट्रेन को रद्द किया जा रहा है. बीते बुधवार को गाजियाबाद से झारखंड के लिए चलने वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेन को इसीलिए रद्द करना पड़ा क्योंकि पैसेंजर पूरे नहीं थे.'' फिलहाल ट्रेनों को लेकर अभी भी भ्रम और नई मांगे उठ रही है.
बिहार सरकार ने कहा है कि श्रमिक स्पेशल ट्रेन को इस तरह से चलाया जाए कि वह मजदूरों को गृह जिले तक पहुंचा सके. अभी सिर्फ बिहार श्रमिक स्पेशल ट्रेन को दानापुर (पटना के पास) तक चलाया जा रहा है वहां से फिर मजदूरों को बसों के जरिए उनके दरभंगा और मधुबनी जैसे गृह जिलों तक पहुंचाना पड़ रहा है. इसलिए बेहतर होगा कि रेलवे ऐसा रूट तैयार करे ताकि पटना होते हुए ट्रेन दरभंगा और मधुबनी तक चल सके. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी रेलवे से मांग की है कि वह न सिर्फ श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाए, बल्कि इन श्रमिकों के लिए राज्य के भीतर भी लोकल ट्रेन या ईएमयू चलाए, ताकि लोग अपने गृह जिलों तक ट्रेन से पहुंच सके और उनके लिए अलग से बसों का इंतजाम नहीं करना पड़े.
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