दिलीप घोष के फिर चुने जाने का अर्थ
गुंडई को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए गुंडई ही चाहिए. अपने तीखे बयानों से चर्चा में रहने वाले दिलीप घोष को राज्य भाजपा की कमान फिर से देने के पीछे भाजपा की यही सोच प्रतीत होती है

अगर आपने सोचा था कि दिलीप घोष नागरिकता (संशोधन) कानून पर जहरीले बयान देने की कीमत चुकाएंगे तो आप गलत थे. घोष, जिनकी अगुआई में भाजपा ने 2019 के आम चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया और 40 फीसद वोट शेयर के साथ राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 18 जीत लीं, 16 जनवरी को फिर से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चुन लिए गए.
सीएए प्रदर्शनकारियों को पहले 'रीढ़हीन, शैतान और परजीवी' और फिर उन्हें 'कुत्तों की तरह गोली मारने' लायक बताने के लिए घोष को पार्टी के भीतर से ही आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. केंद्रीय नेतृत्व ने भी उन्हें ऐसे बयानों को लेकर चेताया और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री बाबुल सुप्रियो ने खुद और पार्टी को उनकी टिप्पणियों से अलग कर लिया, जबकि भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष चंद्र कुमार बोस ने कहा ''देश में आतंक की राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं है.'' वास्तव में, यह सुप्रियो ही थे जिन्हें बंगाल में सीएए अभियान के संभावित चेहरे के रूप में पेश किया जा रहा था. हालांकि खुद सुप्रियो भी सीएए को लेकर विवाद में तब कूद पड़े थे जब उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में एक छात्रा की सीएए की प्रति फाडऩे के लिए, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तीखी आलोचना की थी. बाद में जब एक मुस्लिम ने उनकी ऐसी प्रतिक्रिया को लेकर सवाल पूछे तो सुप्रियो ने कहा, वे उस शख्स को 'उसके देश वापस भेजकर' जवाब देंगे.
फिर भी, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने घोष में ही विश्वास जताया. घोष कहते हैं कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने उन्हें भाषा को लेकर 'सतर्क' रहने को तो कहा था लेकिन कभी भी इस बात को लेकर 'दबाव' नहीं बनाया. घोष का मानना है कि वे अमित शाह को, यह समझाने में सफल रहे कि उन्हें पश्चिम बंगाल में 'आक्रामक होने की जरूरत' है. (देखें बातचीत)
नाम न छापने की शर्त पर पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, ''पार्टी ने लंबे समय तक इस चुनाव को टाला लेकिन कोई विकल्प भी तो नहीं था.'' क्या सुप्रियो विकल्प नहीं हो सकते थे? इसके उत्तर में पार्टी नेता कहते हैं, ''बाबुल जमीन पर राजनीति करने वाले आदमी नहीं हैं.''
इस पद के लिए प्रदेश के अन्य संभावित दावेदारों के बारे में चर्चा पर वे बताते हैं, ''जो नाम हो सकते हैं उनकी ईमानदारी और पार्टी के प्रति निष्ठा को लेकर पार्टी पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी. कम से कम यह आदमी (घोष) पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं के लिए तो 100 फीसद प्रतिबद्ध है.''
प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेटस प्रशांतो रॉय कहते हैं, ''टीएमसी नेताओं की आक्रामक शैली का जवाब देने के लिए भाजपा, घोष और सायंतन बोस जैसे आक्रामक नेताओं पर अधिक भरोसा कर रही है.''
घोष को राज्य में शीर्ष पद पर फिर से निर्वाचित कर मेसर्स मोदी और शाह ने 2020 के नगर पालिका और 2021 के विधानसभा चुनाव के लिए घोष ब्रांड की राजनीति में भरोसा दोहराया है.
दरअसल, घोष की भाषा बंगाली भद्रलोक को परेशान करने वाली हो सकती है लेकिन ममता के लोगों, चाहे वह बीरभूम के बाहुबली अनुब्रत मोंडल हों जो खुलकर विरोधियों को धमकाते हैं या तपस पॉल जैसे नेता जो पार्टी का विरोध करने वाली महिलाओं को गुंडे भेजकर बलात्कार कराने की धमकी देते हैं, के बाहुबल का प्रतिकार करने के लिए घोष जैसे नेताओं की उपयोगिता समझी जाती है.
रे कहते हैं, ''मध्यम वर्ग ने अब नेताओं से संयत और जिम्मेदारीपूर्ण बात की अपेक्षा ही छोड़ दी है. पिछले दो दशकों से उन्हें राजनीति में भौंड़ेपन की आदत हो गई है. वामदलों के अनिल बसु और बिनॉय कोंगर ने अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए ममता पर व्यक्तिगत आक्षेप किए.'' घोष उसी परंपरा का एक अंश हैं.
उनके रुख में ग्रामीण बंगाल के सोच की प्रतिध्वनि भी है, जहां उन्हें टीएमसी के सामने दमदार और ईंट का जबाव पत्थर से देने में सक्षम नेता के रूप में देखा जाता है.
ललाट पर सिंदूर तिलक और केसरिया/ पीले कपड़ों में नजर आने वाले घोष, कट्टर सांप्रदायिक भाषणों के कारण बंगाल में भाजपा के लिए आदर्श हैं. सीएए के खिलाफ ममता की रैलियों के जवाब में, घोष हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए अभिनंदन यात्राओं का आयोजन कर रहे हैं.
वे हिंदुओं के ध्रुवीकरण के काम को गंभीरता से ले रहे हैं. कलकत्ता विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर सोवन लाल दत्ता गुप्ता कहते हैं, ''भाजपा के लिए बंगाल में पैठ बढ़ाने का यही एकमात्र तरीका था क्योंकि कई दशकों से तुष्टीकरण की राजनीति के कारण हिंदुओं का बड़ा वर्ग उपेक्षित और वंचित महसूस कर रहा है. भाजपा के लिए यहां पर बड़ा अवसर था जिसे भुनाने में उसने गलती नहीं की.''
इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि घोष को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया क्योंकि इस पद के लिए किसी अन्य ने नामांकन ही नहीं भरा था. महिला और बाल विकास राज्यमंत्री देबोश्री चौधरी कहती हैं, ''पार्टी कार्यकर्ताओं में उनके लिए भरपूर स्वीकृति थी और इसी वजह से दिलीपदा को फिर से अध्यक्ष चुना गया. एक लंबे, बहुत लंबे समय के बाद कार्यकर्ताओं को एक ऐसा प्रदेश अध्यक्ष मिला है जो पार्टी के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है.''