किताब समीक्षाः एकदम आसपास के पोलयुक्त चरित्र

यह उपन्यास कई चरित्रों के जरिए ऐसे आख्यान रचता है, जिनमें हमारी बैंकिंग व्यवस्था और खासकर सरकारी बैंकों की डूबती हालत की वजहों की शिनाख्त आसानी से की जा सकती है. व्यंग्य सचाई के कितना करीब हो सकता है—इसका पता इस उपन्यास के जरिए लगता है.

बैंक ऑफ पोलमपुर
बैंक ऑफ पोलमपुर

बैंक ऑफ पोलमपुर किताब के लेखक वेद माथुर हैं. इसे टिनटिन पब्लिकेशंस, जयपुर ने प्रकाशित किया है.

एक व्यंग्यकार के लिए चरित्रों का चयन खासा चुनौतीपूर्ण काम होता है. इसलिए कि व्यंग्य में गंभीरता बनी रहनी चाहिए, विसंगतियों का रेखांकन होना चाहिए. हर दौर में यह काम मुश्किल रहा है. पर जिस दौर में हम हैं, उस दौर में व्यंग्यकारों के लिए चरित्र बहुतायत में हैं.

थोड़ा-सी रचनात्मकता डाल दी जाए, तो एक से एक शानदार चरित्र हमारे सामने खड़े हो जाते हैं. वेद माथुर के हाल में प्रकाशित हास्य व्यंग्य उपन्यास बैंक ऑफ पोलमपुर के कई चरित्र इस तरह से सामने खड़े हो जाते हैं, मानो वो एकदम आंख में आंख डालकर कह रहे हैं—खबरदार जो मुझे काल्पनिक कहा, मैं सत्य हूं. मैं ही परम सत्य हूं.

यह उपन्यास कई चरित्रों के जरिए ऐसे आख्यान रचता है, जिनमें हमारी बैंकिंग व्यवस्था और खासकर सरकारी बैंकों की डूबती हालत की वजहों की शिनाख्त आसानी से की जा सकती है. व्यंग्य सचाई के कितना करीब हो सकता है—इसका पता इस उपन्यास के जरिए लगता है.

उपन्यास  में एक चरित्र है—दयालदास गुप्ता, इसके बारे में उपन्यास में जिक्र कुछ यूं है, दयालदास जी विनोदप्रिय व्यक्ति थे और उनकी कार्यशैली अद्भुत थी. उनके जीवन का पहला सिद्धांत था—जियो और जीने दो.

जहां मौका लगे कमा लो तथा कोई अन्य व्यक्ति कमा रहा हो तो उसकी कमाई में व्यवधान नहीं डालो. जब तक आप दूसरों के आनंद और आराम में व्यवधान नहीं डालेंगे, कोई अन्य आप के मार्ग में बाधा नहीं डालेगा.

इस चरित्र चित्रण को बैंकिंग व्यवस्था की कुछ प्रवृत्तियों से जोड़कर देखने पर कुछ बातें एकदम साफ दिखाई देती हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन द्वारा तैयार किए नोट के मुताबिक, कई बैंक तमाम तरह के असुरक्षित कर्ज देने को भी तैयार हुए.

एक दौर में बैंक इस बात के लिए भी तैयार हुए कि चाहे तो परियोजना में प्रमोटर यानी निजी कारोबारी कम रकम लगाए, ज्यादा रकम बैंक की लगेगी. एक प्रमोटर ने रघुराम राजन को बताया कि बैंकर खुद आकर प्रमोटर से बोलते थेकृये खाली चेकबुक है, इसमें जो रकम भरनी है, भरो, मिल जाएगी.

कौन से बैंकर रहे होंगे ऐसे बैंकों में, इस सवाल का जवाब दयालदास गुप्ता जैसे चरित्रों में मिलता है.

एक से बढ़कर चरित्र बैंक ऑफ पोलमपुर में हैं. उपन्यास में एक चरित्र हैं—भूरालाल भूरानी, इनका जिक्र कुछ यूं हुआ है उपन्यास में, बैंक में एक प्रबंधक भूरालाल भूरानी घूसखोरी के लिए मशहूर थे. एक दिन जूतों की मरम्मत करने वाला गरीब उनके पास 5,000 रुपए का ऋण लेने आया. भूरानी जी ऋण की राशि सुनकर हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए, बड़ी मुश्किल से हंसी थमी तो बोले, "अरे नादान तूने कहावत सुनी होगी, नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या?

पांच हजार के ऋण में से मुझे क्या दे पाएगा और बचे हुए से तू क्या कर लेगा? मैं तुझे पचास हजार का ऋण देता हूं,? 5,000 मुझे दे जाना.''

गरीब मान गया और भूरानी जी ने पचास हजार रुपए के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवा कर 45 हजार रुपए दे दिए. यह बात अलग है कि वह गरीब 45 हजार रुपए की बड़ी रकम को संभाल नहीं पाया. उसने राशि का दुरुपयोग कर लिया और ऋण नहीं चुका पाया.

यह उपन्यास ऐसे चरित्रों से भरा है कि पढ़कर हैरत होती है कि ऐसे सच पर आधारित चरित्रों से भरे पूरे तमाम सरकारी बैंक डूब रहे हैं, यह तो आश्चर्य का विषय नहीं है. सवाल है कि ये अब तक चले कैसे जा रहे थे.  बैंक ऑफ पोलमपुर की एक चरित्र हैं, सुधा नटराजन. जो वरिष्ठता हासिल करने के लिए किसी भी हालत में अपना "कार्यग्रहण'' दर्शाना चाहती थी.

दुर्योग से जिस दिन मैडम के "बैंक ऑफ पोलमपुर'' में नियुक्ति के आदेश हुए, वे उत्तर-पूर्व राज्यों की सैर पर थीं और वहां "बैंक ऑफ पोलमपुर'' की कोई शाखा तो दूर, एटीएम भी नहीं था. कार्मिक मामलों के पुराने विशेषज्ञ गणेश माधवन ने सलाह दी कि शिलांग में "कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व'' (सीएसआर) के अंतर्गत बैंक में सुलभ शौचालय के लिए पैसा दिया था.

यदि नई एमडी सुधा नटराजन उसका दौरा, निरीक्षण या इस्तेमाल कर ले तो इसे उनकी बैंक की जॉइनिंग मान लिया जाएगा और उनकी सीनियरिटी शुरू हो जाएगी. अपने रिकॉर्ड और सुरक्षा के लिए उन्होंने वहां से पांच रुपए की रसीद लेकर संभालकर रख ली. ऐसी रसीद वरिष्ठता को लेकर न्यायालय में विवाद होने हो जाने पर महत्वपूर्ण दस्तावेज सिद्ध होती है.

ऐसे मजबूत पात्रों के आधार पर खोखले होते बैंक ऑफ पोलमपुर की नींव पड़ी है. बैंक ऑफ पोलमपुर डूब गया. और पोलमपुर सिर्फ उपन्यास में नहीं है. सचाई कई बार कल्पना से ज्यादा मारक और पेचदार हो जाती है. बैंक ऑफ पोलमपुर के चरित्र लगातार यही बताते हैं. आने वाले कई बरसों तक इस उपन्यास के चरित्र बैंकिंग जगत की सचाइयों की पोल खोलते रहेंगे.

इस किताब के कई चरित्र सामने आकर खड़े हो जाते हैं मानो आंख में आंख डालकर कह रहे हों—खबरदार जो मुझे काल्पनिक कहा तो.

***

Read more!