राजस्थानः दो मोर्चों पर जंग में उलझीं वसुंधरा, राह में रोड़े ही रोड़े
पायलट को ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा है जिसने गहलोत के तीन दशकों के वर्चस्व के दौरान अलग-थलग पड़ चुकी पार्टी और कांग्रेस में नई जान फूंक दी है. इस तरह उन्होंने पार्टी की बेहद जरूरी वापसी की उम्मीदें भी पैदा कर दी हैं.

राजस्थान साल 2003 से ही कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधे मुकाबलों का गवाह रहा है, जिसमें अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनते रहे हैं. दिसंबर में होने वाले चुनावों की कहानी भी इससे अलग नजर नहीं आती, अलबत्ता इसमें एक छोटा-सा मोड़ आ सकता है. प्रदेश भाजपा भीतरी कलह से जूझ रही है और खुद राजे पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उलझी हैं. कांग्रेस के मोर्चे पर एक अहम फर्क इस बार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर सचिन पायलट की मौजूदगी से आया है, जो राजे और गहलोत, दोनों को एक साथ ललकार रहे हैं.
पायलट को ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा है जिसने गहलोत के तीन दशकों के वर्चस्व के दौरान अलग-थलग पड़ चुकी पार्टी और कांग्रेस में नई जान फूंक दी है. इस तरह उन्होंने पार्टी की बेहद जरूरी वापसी की उम्मीदें भी पैदा कर दी हैं, खासकर पिछले दो चुनावों की हार के बाद, जब पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी 200 सदस्यों की विधानसभा में महज 21 सीटें जीत सकी थी और आम चुनाव में वह 25 में से एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सकी थी.
राजे के खिलाफ गहलोत के निजी हमलों के उलट पायलट की रणनीति यह है कि वे अहम क्षेत्रों में राजे सरकार की नाकामियों को उभारकर सामने रख रहे हैं और यह रणनीति मतदाताओं पर असर करती भी दिखाई दे रही है.
इस सबसे गहलोत और उनके वफादार जाहिरा तौर पर घबराहट में नजर आ रहे हैं. पार्टी में धड़ेबाजी को भांपकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पायलट से कहा है कि वे गहलोत को साथ लेकर चलें, कम से कम इतना तो पक्का करें कि सार्वजनिक तौर पर ऐसा ही दिखाई दे. कांग्रेस जैसे-जैसे एकजुट पार्टी के तौर पर सामने आ रही है, राज्य में चर्चा का विषय यह है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा—गहलोत या पायलट. इसका यह मतलब तो है ही कि पार्टी चुनाव जीत सकती है.
जहां तक भाजपा की बात है, तो राजे और शाह अलग-अलग चुनाव अभियान चला रहे हैं. राज्य भाजपा अध्यक्ष मदन लाल सैनी हालांकि इसे रणनीति का हिस्सा और संसाधनों के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल की कोशिश बताते हैं, मगर पायलट का कहना है कि पार्टी की अंतर्कलह ने उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया है.
शीर्ष नेताओं के साथ टकराव राजे के पूरे कार्यकाल के दौरान ही दिखाई देता रहा. राज्य इकाई में धारणा यह बन गई है कि हाइ कमान ने राजे को "स्विच ऑफ मोड'' में डाल दिया, बावजूद इसके कि वे जबरदस्त दौरे कर रही हैं और पूरे प्रदेश का दौरा कर रही हैं.
अपनी 40 दिनों की सूरज गौरव यात्रा में उन्होंने ऐसा तीसरी बार किया. दूसरी तरफ, शाह ब्लॉक स्तर पर बैठकें कर रहे हैं और पार्टी कार्यकर्ताओं से फीडबैक ले रहे हैं.
पार्टी के भीतर एक राजे-विरोधी लॉबी है और वह उनकी नाकारा हुकूमत का ढोल पीटकर भितरघात में जुटी है, इसका पहला संकेत तब मिला था जब सितंबर 2018 में पार्टी लोकसभा के लिए चुने गए विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई चार में से तीन सीटों के उपचुनाव हार गई थी.
भाजपा के एक बड़े मंत्री कहते हैं, "कुछेक हफ्तों के दौरान ही लोग बगैर किसी वजह के सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ नहीं हुए हो सकते थे.'' वे यह भी कहते हैं कि पार्टी के भीतर अपने विरोधियों के साथ-साथ अब तो उन्हें पायलट से भी लड़ना है, जो गैर-विवादित नया चेहरा हैं.
2003 से ही उन्हें देख रहे एक अफसर का कहना है, "राजे कार्यकर्ताओं के साथ घुलने-मिलने और बातचीत करने में कभी उतनी अच्छी नहीं रहीं जितनी वे आम तौर पर होती हैं, पर दिन में 16 घंटे काम करते हुए भी उन्होंने खुद को ज्यादातर नीतियों और कार्यक्रमों पर अमल से जुड़ी बैठकों तक ही सीमित रखा.''
हरेक चुनाव रैली में राजे अपनी उपलब्धियां गिनाती हैं और योजनाओं के कुछ लाभार्थियों को मंच पर पेश करती हैं. साथ ही सरकार भी रैलियां आयोजित कर रही हैं, जिनमें 7 जुलाई को जयपुर की वह रैली भी थी, जिसे मोदी ने संबोधित किया था और जिसमें 40,000 शिक्षकों की भर्ती करने और 6,000 कॉन्सटेबलों को पदोन्नति देने सरीखी कामयाबियों को गिनाया गया था.
पार्टी और सरकार ने किसानों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए ऐसी कई और रैलियों की योजना बनाई है, खासकर उनके 50,000 रुपए के कर्जे माफ कर देने के बाद.
मुख्य रूप से ग्रामीण निवार्चन क्षेत्रों पर ध्यान देने वाली राजे की गौरव यात्रा के समापन के लिए मोदी भी जल्दी ही राज्य की यात्रा पर आएंगे और शहरी इलाकों में भी पार्टी का चुनाव अभियान शुरू करेंगे. राज्य सरकार को और भी कई मुद्दों पर जूझना पड़ रहा है जिसने राजे की परेशानियों को बढ़ाया ही है.
इनमें एससी/एसटी अत्याचार कानून में संशोधन को लेकर सवर्ण जातियों और दलितों के बीच टकराव से जुड़ा मुद्दा है, तो बाजार में मंदी के हालात का मुद्दा भी, जिसके लिए व्यापारी मोदी की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
कांग्रेस इन तमाम मुद्दों को अपने चुनाव अभियान में उठा रही है. उधर, भाजपा कांग्रेस के 50 साल के कुराज का राग अलाप रही है, जिसे कम ही लोग संजीदगी से ले रहे हैं, क्योंकि एक तो पायलट नया चेहरा हैं और दूसरे, बीते 28 साल में से 18 साल भाजपा राजस्थान में सत्ता में रही है.
कांग्रेस और भाजपा, दोनों से मतदाताओं का मोहभंग इस तथ्य से जाहिर होता है कि 2008 में निर्दलीयों और दूसरे उम्मीदवारों की झोली में 15 फीसदी वोट गए थे और 2013 में "नोटा'' पर पड़े वोट 11 सीटों पर जीत-हार के अंतर से ज्यादा थे. इसका यह भी मतलब है कि कांग्रेस यह मानकर नहीं चल सकती कि सत्ता विरोधी वोटों का उसकी झोली में आना तय है. यही वजह है कि दोनों पार्टियां जाति समीकरणों पर ज्यादा गहराई से नजर डाल रही हैं.
कांग्रेस ने राजे पर शहरी आधारभूत ढांचे, किसानों और बेरोजगार युवाओं को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया है. पार्टी राजपूतों के एक हिस्से तक पहुंचने की कोशिश भी कर रही है, जिनमें जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह भी शामिल हैं, जिन्होंने हाल में भाजपा छोड़ दी है. दूसरी तरफ, भाजपा हाइ कमान राजपूत वोटों को फिसलने नहीं देने के लिए जी-जान से जुटा है. वहीं राजे ने जाटों का समर्थन हासिल करने के लिए अहम पदों पर कई जाट अधिकारियों की नियुक्ति की है. साफ है, राजस्थान रणनीतियों की जंग का मैदान बन गया है.
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