रंगमंचः हैप्पी नाम संजीदगी का
मंच और सिनेमा में अभिनय, नाट्यलेखन और निर्देशन, इन सब मोर्चों पर उनकी गति ने लोगों को चौंकाया और उनके समकक्षों में रश्क भी पैदा किया है. खासकर टेक्स्ट और डिजाइनिं ग में उनके बोल्ड और मॉडर्न नजरिए ने.

महाभारत से आगे का किस्सा है यह. द्वारिका लौटे कृष्ण देखते हैं कि तंगहाल प्रजा को उनसे मिलवाने के लिए सेवक घूस खा रहे हैं. कुरुक्षेत्र में मरे सैनिकों के घरवाले गुस्से में बौराए उनके बखिए उधेड़ रहे हैं.
गुप्तचरों की रिपोर्ट में दो बेटों साम्ब और चारुदेष्ण की अय्याशी तथा आवारगी की भी खबरें हैं. मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंंह के अपने अंदाज वाले उपन्यास उपसंहार की राजनारायण दीक्षित निर्देशित इस मंचीय प्रस्तुति में कृष्ण के चेहरे की उदासी, नजरों के झुके कोण, लटके कंधे, धंसी देह किस्से के पूरे कॉन्फ्लिक्ट का जैसे केंद्र बनती जाती है.
गुप्तचरों से मिलते अराजकता के संदेशों को वे बुत की तरह सुनते हैं, उनकी रुआंसी आवाज में गीलापन है. मोरमुकुट, कंठहार और धोती धारे कृष्ण के जेहन में कौंधते कर्ण, दुर्योधन और जयद्रथ उनमें मैकबेथ और लेडी मैकबेथ जैसा अपराध बोध जगाते हैं.
ऊपर से बरसाने की राधा के सपने. ‘‘हर मनुष्य के ऐश्वर्य की एक मियाद होती है.’’ ऊपर की सारी तहों को संभालते और डूबती आवाज में यह संवाद बोलते अभिनेता हैप्पी रणजीत (35) इनकी सीवन कहीं खुलने नहीं देते. साथी कलाकारों और दर्शकों की ओर आंखों के कोण, कंधे पर गर्दन का झुकाव और मितव्ययी मुस्कान.
‘‘अरे! थैंक गॉड, किसी ने किरदार की साइकोलॉजी पर किए गए मेरे काम को नोटिस किया.’’ पूर्वी दिल्ली के मयूर विहार-1 इलाके की एक गली में अपने ठिकाने यूनिकॉर्न एक्टर्स स्टुडियो की बैठक में पेपर कप में चाय सुड़कते और एक हाथ से माथे पर आए बालों को समेटते हुए वे कहते हैं.
मुस्कराते हुए अब उनके होंठ दूर तक फैल रहे हैं. या स्टेज पर दूरी की वजह से शायद कम फैलते दिखते हों. अभी दो रोज पहले ही मंडी हाउस के एलटीजी ऑडिटोरियम में कृष्ण चरित्र करने के बाद अब वे ग्रुप के 7-8 ऐक्टर्स के साथ शेक्सपियर के अपेक्षाकृत काफी कम खेले गए नाटक रिचर्ड-3 की रीडिंग कर रहे हैं, महीने भर बाद 22 जुलाई को श्रीराम सेंटर में जिसके 2 शो हैं.
सत्ता के लिए मारकाट और फिर अपराध बोध का नाटक. रीडिंग में दूसरे ऐक्टर्स से भी वे किताबी होने की बजाए किरदारों की मनोदशा पकडऩे पर जोर देते हैं. अरसे बाद खुद के ही निर्देशन में वे मुख्य किरदार में होंगे.
‘‘किसी चरित्र की मनोदशा पकड़ में आ जाए, उसके बाद कुरुक्षेत्र के कृष्ण हों या द्वारका के, औरंगजेब हो या पीएचडी (बीए पास फिल्म का समलैंगिक किरदार), बॉडी लैंग्वेज और भंगिमाएं अपने आप बनने लगती हैं.’’
अभिनय के अलावा नाटक लिखने में भी पहले वे कैरेक्टर और साइकोलॉजी टटोलते हैं. टेक्स्ट के जरिए किरदार को अप्रोच न करने की एक वजह उनका अहिंेदी इलाके से आना और उसके चलते भाषा को लेकर अपेक्षित आत्मविश्वास न होना है.
बहरहाल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के 2008 बैच के स्नातक हैप्पी दिल्ली थिएटर की दुनिया में धीरे-धीरे 'संजीदगी के साथ उम्दा मनोरंजन’ का एक चेहरा बन गए हैं. पिछले ही महीने उन्होंने श्रीराम सेंटर में अपने पांच नाटकों का कामयाब फेस्टिवल किया.
कामयाब इस अर्थ में कि ऑडिटोरियम के लिए 50,000 रु. से भी ज्यादा रोज का किराया और पास संस्कृति के दर्शकों का रोना रोने वाले हलके में उन्होंने जिंकदगी से जुड़े संजीदा रियलिस्टिक नाटकों में इतने दर्शक बटोरे कि सारे खर्चे निकालकर कलाकारों के हाथ भी कुछ आ सका.
दर्शक भी संतुष्ट और हैप्पी भी. यह उनके शब्दों में भी झलकता है, ‘‘अब यकीन होने लगा है कि मेरी भी एक ऑडियंस है. अभिनय की भी और मेरे लिखे-निर्देशित किए नाटकों की भी.’’
थोड़ा पीछे चलें. हैप्पी का यह नाम किसी पोथी-पंचांग से नहीं, हालात से निकला था.
ओडिशा के जाजपुर जिले के कल्याणपुर में परिवार के दिन इतने दुख में बीते थे कि उनके पिता का नाम ही दुक्खा पड़ गया था.
पर अपनी इस दूसरी संतान के आते-आते पिता अंग्रेजी के प्रोफेसर हो गए, सो उन्होंने बदले दिनों का शुक्रिया अदा करते हुए नाम ही रखा ‘हैप्पी’.
लेकिन हैप्पी को जीवन की निर्णायक खुशी 2005 में उस बड़े भाई बापी विश्वजीत से मिली, जब वे दोनों एनएसडी में प्रवेश की कार्यशाला में पहुंचे.
पिता ने इसके लिए हैप्पी की नहीं बल्कि बापी की जमकर तैयारी कराई थी.
वहां यह बताए जाने पर कि दोनों भाइयों में से एक ही को लिया जा सकता है, बापी ने बिना पलक झपके कह दिया कि हैप्पी को ले लिया जाए.
हर खास लम्हे पर हैप्पी को भाई की यह कुर्बानी अब भी भावुक बना देती है.
मंच और सिनेमा में अभिनय, नाट्यलेखन और निर्देशन, इन सब मोर्चों पर उनकी गति ने लोगों को चौंकाया और उनके समकक्षों में रश्क भी पैदा किया है.
खासकर टेक्स्ट और डिजाइनिंग में उनके बोल्ड और मॉडर्न नजरिए ने.
प्रोफेसर पिता के बनाए एक माहौल में बचपन में ही जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, इब्सन और शेक्सपियर वगैरह पढ़ लेने से उनकी सोच तेजी से खुली-फैली. उसी का नतीजा था कि समलैंगिकता पर शोध कर लिखे अपने नाटक स्ट्रेट प्रोपोजल में अभिनय के लिए उन्होंने मंच और सिनेमा के अहम नाम दिलीप शंकर और वरिष्ठ रंगकर्मी टीकम जोशी को भी राजी कर लिया.
उन्हीं के शब्दों में, ‘‘विषय में सेंसेशन की बजाय समलैंगिकों को अपने ढंग से जिंदगी जीने देने के संजीदा तर्क के चलते दोनों इसमें अभिनय को राजी हुए.’’
और अब वे अपने काम में एक और पहलू जोड़ रहे हैं. मंडी हाउस के आसपास अभिनय सिखाने के नाम पर कई आढ़तों/मंडियों में ठगे जाते नौजवानों के किस्से उन्होंने सुने थे. सो, कई विशेषज्ञों को लेकर अब 9 जुलाई से वे एक साल का डिप्लोमा कोर्स शुरू कर रहे हैं.
‘‘बिना विज्ञापन के ही इसके लिए अपेक्षित 20 छात्र एक पखवाड़े में आ गए.’’ हर वक्त किरदार तलाशते हैप्पी की सबसे बड़ी मददगार हैं बैचमेट, अर्धांगिनी और अभिनय के साथ घर/प्रबंधन संभालतीं गौरी देवल.
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