पेट्रोलः महंगे तेल पर बहस
आज जब ईंधन की कीमतें बढ़कर तीन वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं, सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है.

सरकार ने जब इस साल 16 जून को खुदरा पेट्रोलियम उत्पादों के लिए गतिशील मूल्य निर्धारण की शुरुआत की—जिसके तहत ईंधन की घरेलू कीमतें अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुरूप रोजाना बदलनी थीं, तब यदि जनता ने कुछ विरोध किया भी हो, तो वह बहुत कम था. लेकिन आज जब ईंधन की कीमतें बढ़कर तीन वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं, सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है.
इसका कारण—और इसकी पृष्ठभूमि—जटिल है. भारत के ईंधन बाजार को विनियंत्रित कीमतों वाला बनाने के लिए गतिशील मूल्य निर्धारण को अपनाया गया. पेट्रोल की कीमतों को पहले 2010 में (और डीजल को 2014) में विनियंत्रित कर दिया गया था, हालांकि तब दरों को केवल हर पखवाड़े संशोधित किया जाता था. ऐसा कच्चे तेल की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव की पृष्ठभूमि के आधार पर किया गया था. कच्चे तेल की कीमत जनवरी 2012 में 120 डॉलर प्रति बैरल से घटकर इस वर्ष जून में 45 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ गई. कीमतों में इतनी गिरावट गतिशील मूल्य निर्धारण लागू करने के लिए आदर्श अवसर के तौर पर थी.
जो बात कई लोगों को नाराज करती है, वह यह है कि 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद उपभोक्ता ईंधन की कीमतें लगभग जस की तस बनी रही हैं. इसे इस तरह देखें: 1 मार्च, 2014 को, यानी मोदी सरकार के सत्ता में आने के दो महीने पहले, कच्चे तेल का भाव 108.7 डॉलर प्रति बैरल था और दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 73.2 रु. प्रति लीटर थी. इस वर्ष 25 सितंबर को कच्चा तेल 57 डॉलर प्रति बैरल पर होने के बावजूद दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 70.4 रु. प्रति लीटर रही.
इस मामले को जटिल बनाने वाला तथ्य यह है कि केंद्रीय उत्पाद शुल्क और राज्य वैट सहित तमाम टैक्स, उपभोक्ता ईंधन की कीमतों में आधे से अधिक होते हैं—और टैक्स बढ़ते जा रहे हैं. अप्रैल 2014 में, पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 9.5 रु. प्रति लीटर था. इस वर्ष 15 सितंबर को यह आंकड़ा दोगुने से ज्यादा बढ़कर 21.5 रु. प्रति लीटर हो गया था. यह तथ्य कि अपने वर्तमान स्तर तक पहुंचने के लिए उत्पाद शुल्क कई बार बढ़ाया गया है, यह दर्शाता है कि किस प्रकार सरकार के लिए ईंधन पर टैक्स लगाना राजस्व का एक पसंदीदा स्रोत है. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने अमेरिका में आए तूफान हार्वे और इरमा और वैश्विक तेल-शोधन क्षमता में काफी गिरावट आने को मौजूदा उच्च लागतों के लिए दोषी ठहराते हुए कहा कि ईंधन की कीमतें जल्द ही कम हो जाएंगी. हालांकि आंकड़े उनकी दलील की तस्दीक नहीं करते. 15 अगस्त को, तूफान हार्वे या इरमा के बनने से भी पहले, दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 68.1 रु. प्रति लीटर थी, और पिछले महीने 4.2 रु. प्रति लीटर बढ़ाई गई थी. इसके विपरीत, 15 सितंबर को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 70.4 रु. प्रति लीटर थी और जिस महीने में हार्वे और इरमा तूफानों ने अमेरिका को तबाह किया था, उस महीने के दौरान केवल 2.3 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी हुई थी. ध्यान रखें, भारत ने वित्त वर्ष 2016-17 में 17.98 करोड़ बैरल कच्चे तेल का उपभोग किया था, जिसमें से 85 प्रतिशत सऊदी अरब, ईरान, इराक, नाइजीरिया, वेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों से आयात किया गया था.
विशेषज्ञों का कहना है कि ईंधन की कीमतें कम करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा करों को कम करने की जरूरत है. रेटिंग एजेंसी आइसीआरए (इक्रा) के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के. रविचंद्रन कहते हैं, ''जहां तक ईंधन की कीमतों का संबंध है, हम एक कगार तक पहुंच चुके हैं और (करों को संशोधित करने का) फैसला सरकार को करना है.'' इसका अर्थ होगा कि सरकार को ईंधन पर लगाए गए कर से मिलने वाले राजस्व का एक हिस्सा छोड़ देना होगा. मामले को और ज्यादा जटिल करने वाला तथ्य यह है कि ईंधन को गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के दायरे से बाहर रखा गया है, जो इस वर्ष 1 जुलाई से लागू हो गया है. इससे राज्यों को ईंधन पर वैट के माध्यम से थोड़ी राजकोषीय स्वायत्तता मिल गई है और इसी से यह पता चलता है कि क्यों ईंधन की कीमतें राज्य-दर-राज्य बदलती हैं. प्रधान यह संकेत दे चुके हैं कि ईंधन की ऊंची कीमतों पर लगाम लगाने का समाधान ईंधन को जीएसटी के तहत लाना हो सकता है.
ईंधन की ऊंची कीमतें महंगाई बढ़ा सकती हैं और रिजर्व बैंक को अक्तूबर में ब्याज दर घटाने से रोक सकती हैं. साथ ही भारत के व्यापार संतुलन को भी खराब कर सकती हैं. ऊर्जा विशेषज्ञ किरीट पारिख कहते हैं कि ईंधन पर उच्च करों से हासिल राजस्व का इस्तेमाल सामाजिक और कल्याणकारी योजनाओं में किया जाना चाहिए, जो शिक्षा और स्वास्थ्य की ओर निर्दिष्ट हों. यह तर्क ठोस है, लेकिन इससे उपभोक्ता यह नहीं समझ पाते कि ईंधन की कीमतें इतनी ऊंची क्यों हैं.
—एम. जी. अरुण